Sanskrit को बढ़ावा देने के लिए हिंदी से पांच गुना ज्यादा खर्च
संस्कृत पर खास जोर इसलिए क्योंकि हमारे अधिकतर प्राचीन ग्रंथ इसी भाषा में उपलब्ध हैं
एक दशक में सरकार ने संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए ढ़ाई हजार करोड़ रुपए खर्च किए हैं, यह बात एक आरटीआई से निकल कर सामने आई है सूचना के अधिकार में मांगी गई इस जानकारी में बताया गया है कि बाकी पांच शास्त्रीय भाषाओं तमिल, गुजराती, कन्नड़, मलयालम और उड़िया हुआ खर्च ड़ेढ़ सौ करोड़ से भी कम रहा है यानी संस्कृत को इन पांच भाषाओं से 17 गुना ज्यादा महत्व का माना गया है. इस हिसाब से हर साल संस्कृत पर सरकार का खर्च 230.24 करोड़ का है. तमिल को बढ़ावा देने के लिए जो पैसा खर्च हुआ वह संस्कृत के मुकाबले 0.5 प्रतिशत था. तमिल को 2004 में शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला था और इसे ग्रांट्स फॉर प्रमोशन ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज (ओपिल) से 113.43 करोड़ रुपए मिले जो संस्कृत पर हुए खर्च से 22 गुना कम है, जबकि संस्कृत को 2005 में यानी तमिल के बाद शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया था. इनके अलावा हिंदी, उर्दू और सिंधी पर कुल 1,317.96 करोड़ रुपये का खर्च हुआ जबकि उर्दू को लगभग 38 करोड़ रुपये मिले.
संस्कृत के बाद सबसे ज्यादा पैसा हिंदी पर खर्च हुआ जो 426.99 करोड़ रुपये रहा. सिंधी पर 53.03 करोड़ रुपये का खर्च किया गया. पिछली जनगणना के मुताबिक हिंदी को मातृभाषा बताने वालों की संख्या लगभग 44 प्रतिशत थी और जबकि संस्कृत को जानने-समझने और मातृभाषा मानने वाले नगण्य संख्या में थे. अब भारतीय भाषाओं में मराठी, पाली, प्राकृत, असमिया और बांग्ला भी शास्त्रीय भाषाओं में शामिल हैं यानी अब देश में शास्त्रीय भाषाएं 11 हो चुकी हैं हालांकि सभी भाषाओं के प्रसार पर खर्च की जानकारी नहीं मिल सकी है.