Book Review-धूप के छोर का पता देते जीवन संगीत वाले दोहे
कृति : धूप का छोर
लेखिका :सीमा पांडे मिश्रा ‘सुशि’
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन
समीक्षा : डॉ मीनू पांडेय ‘नयन’
सीमा पांडे मिश्रा ‘सुशी’ जी के दोहा संग्रह ‘धूप की छोर’ को पिछले दो दिनों से पढ़ रही हूँ. शीर्षक बहुत रोचक सा लगा, जैसे कुछ-कुछ कह भी रहा हो और काफी कुछ छिपा भी रहा हो, जैसे बिल्कुल कोई वस्तु हो धूप जिसके छोर पर पहुंचने की सफलता का जश्न मनाया जा रहा हो दोहे के रूप में. शिवना प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह का मूल्य मात्र दो सौ रुपये है. पेपर क्वालिटी बहुत उम्दा है. जैसे ही पुस्तक खोलते हैं तो समर्पण वाला पृष्ठ सामने आता है जिसमें अपनी जन्मदात्री को यह संग्रह समर्पित किया गया है, देखते ही भावों की लहरें हिलोर मारने लगतीं हैं.
अगले पृष्ठ में श्री नरहरि पटेल की भूमिका पढ़कर सीमा जी के बारे में कुछ अलग राय बनती नजर आ रही है जैसे इन भावों को कलमबद्ध करने वाली कोई कोमलांगी मन से भी उतनी ही कोमल होगी, जितनी कोमलता से भावों को दोहे का रुप देकर पुस्तक में ढाला है. फिर लेखिका के मन की बात पढ़कर उनकी स्रजन प्रकिया को समझने का आधार मिला. साथ ही साथ यह भी ज्ञात हुआ कि आदरणीय ज़हीर कुरैशी जी के सानिध्य में दोहों का सृजन हुआ, यह बात ही इस विश्वास को मानने के लिए काफी है कि आप एक सामर्थ्यवान लेखिका हैं.
चिकित्सक पिता की इंदौर की इस बेटी को साहित्य की समझ विरासत में मिली क्योंकि बड़ी बहन हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी रहीं तो उनके मुखमंडल से साहित्यकारों की चर्चा सुनते-सुनते एवं उनकी रचनाओं को गुनते गुनते कहीं न कहीं वो बीज बचपन में ही अंकुरित हो गया था. इसलिए सीमा जी अपने स्कूल कालेज के दौर से ही छोटी-छोटी कविता, कहानियों का सृजन करने लगीं थीं और धीरे-धीरे समय के साथ उनकी लेखनी सशक्त बनती गयी. जीएसटी में उपायुक्त जैसे बेहद जिम्मेदार पद पर होते हुए भी अपनी लेखनी के लिए समय निकाल कर सृजन करते रहना भी उसी अंकुरण की देन है.
इस संग्रह में 600 दोहों को शामिल किया गया है, जो कि विविध विषयों पर हैं मगर सभी समसामयिक विषयवस्तु लिए हुए सरलता, सरसता, सादगी एवं संप्रेषण की अद्भुत क्षमता रखते हैं. सभी दोहों में कसावट है क्योंकि दोहे का अनुशासन, संग्रह के हर दोहे में दिखाई देता है.
इस संग्रह में दोहे की विषय वस्तु पर विस्तार से विचार किया जाये तो कहीं हमें किसान की व्यथा दिखाई देती है, तो कभी नारी मन की पीड़ा को आपकी कलम छूकर आती है, कभी नदी, नाले, सागर, पेड़-पौधों की दुख तकलीफ़ों को आप साझा करतीं हैं तो अगले ही पल आप कुछ सशक्त बिम्ब के माध्यम से प्रतिरोध के रूप में मुखातिब होतीं हैं. कुछ दोहे गांव की दयनीय स्थिति को बयां करते हैं तो कुछ विकास की सूली पर चढ़े गांव और शहर के क्रंदन को वर्णित करते हैं. जीवन के विभिन्न रिश्तों और पक्षों के ऊपर भी कई दोहे सृजित किये गये हैं. इस संग्रह की विशेषता यह है कि हर दो चार दोहे के मध्य आपको एक ऐसा दोहा अवश्य मिलेगा जो एक थके, हारे, बुझे बुझे पराजित मन में जोश भरने का काम करेगा, आपके तनाव को दूर करने का काम करेगा, आपको नेक कार्य के लिए प्रेरित करने का कार्य करेगा, इस दृष्टि से यह एक दोहा संग्रह न होकर आपाधापी भरे जीवन में वास्तविक आनंद की प्राप्ति और अनुभूति कैसे हो, यह मार्ग प्रशस्त करती एक दिगदर्शिका है. इसे पढ़ते पढ़ते कहीं भी नीरसता का अनुभव नहीं होगा, यह मेरा अनुभव है.
तो आइए देखते हैं कुछ दोहों की बानगी, और आप ही तय कीजिए कि जो बात मैने ऊपर लिखी है वो कितनी सच है.
रौ में बहती जा रही, लिए लक्ष्य की आस।
नदिया को फुर्सत कहाँ, बैठे तनिक उदास।
अपने दुःख की पोटली, अपने सब अरमान।
ढोते हैं चुपचाप सब, अपना ये सामान।
फल से लदा उदास है, उस बँगले का आम।
कोई तो आए निकट, चाहे पत्थर थाम।
प्यास कहाँ है दरस की, नही मुक्ति दरकार।
देवालय के द्वार पर, माँगों की भरमार।
रोज मिले अवहेलना, कविता में तारीफ़।
आसमान के चाँद सी, स्त्री की तकलीफ।
कोई भी वादा नहीं, न कोई अनुबंध।
आँखों से ही बोलते, सौंधे से संबंध।
मेरी नजरें घूमकर, सिर्फ तुम्हारी ओर।
हर दुःख को करती रहीं, कच्चा और कमजोर।
अभिवादन तुमको नहीं, पद को है श्रीमान।
कुर्सी के ही वास्ते, ये सारा सम्मान।
जादूगर वो बात का, बातें करे कमाल।
बातों के ही फेंकता, मनभावन से जाल।
हालातों पर बात अब, करना है बेकार।
बाहर तन अच्छा दिखे, भीतर से बीमार।
वैसे तो रिश्ते सभी, होते हैं अहसास।
लेकिन कुछ बेनाम से, हैं जीने की आस।
जिस बिरवे ने सह लिया, पतझड़ का अवसाद।
उसका होना तय रहा, हर मौसम आबाद।
कुंठाओ की शाख पर, राग द्वेष के रोग।
शूलों को चुभते रहे, फूलों जैसे लोग।
नदी उफनकर बढ़ चली, डूब गए तट बंध।
जब जब बांधा बांध तो, टूट गए संबंध।
(पुस्तक अमेजन पर उपलब्ध है)