June 27, 2025
देश दुनिया

Socio Analysis हमको उम्मीद क्या खुदा से रहे…

-आदित्य पांडे

उम्मीदों के दरकते पहाड़ निराशा के लिए जमीन तैयार करते हैं


-कॉरपोरेट में कर्मचारियों के लिए अक्सर केआरए शीट होती है, आप क्या क्या काम करेंगे या कंपनी आपसे क्या क्या काम चाहती है इसका लेखा जोखा. आप इससे इतर कितना भी अच्छा सोच लें, कर दें लेकिन अप्रेजल के इस शीट की रैंकिंग ही आपकी अगली तनख्वाह ही नहीं ‘पिंक स्लिप’ तक को तय करती है. कई सारे मैनेजर और पूरी एक हायरर्की तय करती है कि आप इस लीक पर चलते रहें और काम की गुणवत्ता बनाए रखें. अब आप जरा इस कॉरपोरेट दुनिया से बाहर सामान्य व्यवहार की दुनिया में आइये तो पता चलेगा कि आपकी या आपसे जिनती नाराजियां हैं वह ऐसी ही किसी केआरए शीट के अभाव में हैं. खुश रहने के उपायों में एक यह भी बताया जाता है कि आप बस अपनी अपेक्षाएं तय कर लें. आपने कोई न्यूनतम मानक तय कर दिया कि बस यह मुझे इस हद तक साथ दे दे तो मैं खुशो हो जाऊंगा लेकिन अक्सर ऐसा होता नहीं है. किसी ने आपके लिए एक्स सीमा तक काम कर दिया तो आप पूछेंगे कि ‘एक्स इन टु टू’ कर देने में उसे क्या दिक्कत थी. उम्मीदों का पहाड़ खड़ा होता जाता है. ठीक यही आपके साथ भी हो रहा होगा कि आप अपनी क्षमता या श्रद्धा या अपने निर्णय अनुसार किसी का साथ दे रहे हैं, जितना हो सकता है उससे आगे बढ़कर भी, लेकिन उसकी उम्मीदें पहाड़ हो चुकी हैं. आप जो करते जा रहे हैं वह कम पड़ता जा रहा है. बस, यही सब हो रहा है पहलगाम के बाद लिए गए बदले के मामले में भी. यदि हमने तय किया होता कि भारत की तरफ से किस या कितने प्रतिकार को हम उचित प्रतिकार मान लेंगे तो शायद वह दुख नहीं होता जो अभी व्यक्त किया जा रहा है. यदि उस दिन, उस समय आपसे पूछा जाता कि कितना बड़ा प्रहार आप उचित मानेंगे तो शायद ही कोई पाकिस्तान को नक्शे से मिटाने तक की सीमा तय करता. ज्ययादातर इस बात पर खुश हो जाते कि सीमापार जो आतंकी शिविर हैं वो ही खत्म कर दिए जाएं तो पर्याप्त है. यदि इन मरकजों के मुखिया मार दिए जाएं तो यह बोनस होगा और यदि सारे ऐसे मरकजों का ढ़ांचा खत्म कर दिया जाए तब तो बल्ले बल्ले.जितना कुछ भारतीय सेना ने किया है उसकी तो हम उम्मीद भी नहीं करते.

अब सोशल मीडिया को देखिए जहां संघर्ष विराम की घोषणा के बाद से भारतीयों के नैराश्य की बातें नजर आ रही हैं, नेतृत्व का मजाक बनाया जा रहा है, सेना तक पर सवाल उठाए जा रहे हैं और मोदी की तो शायद खुराक में ही अपशब्दों को सहना लिखा हुआ है. माना कि जिस अंदाज में ऑपरेशन संदूर शुरु हुआ था उसके बाद हमारी उम्मीदें आसमान में थीं, माना कि हम पाकिस्तान के टुकड़े होने की खबरें सुनने को बेताब हो रहे थे, माना कि हम चाहते थे कि बलूचिस्तान खुद को पूरा देश घोषित कर दे, अफगानिस्तान दूसरी तरफ से पाकिस्तान को बर्बाद करना शुरु करे और मुनीर एंड कंपपनी भाग कर किसी बिल में छुप जाएं. माना कि हम चाहते थे कि नेशनल टीवी पर पाकिस्तान के पीएम हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते नजर आते तो ही हमारे दिलों को ठंडक मिलती लेकिन क्या ये सब आपकी लगाई उम्मीदें थीं. समय के साथ परवान चढ़ती गई उम्मीदें. उम्मीदों के साथ यही होता है कि उनमें जोड़ वाला गणित काम नहीं करता बल्कि उसमें सीधे गुणा होता है. कंपनी टारगेट ऐसे ही सेट करती हैं, पिछले साल जो मुनाफा हुआ था उससे इतना प्रतिशत ज्यादा चाहिए और कर्मचारी को भी टारगेट इसी हिसाब से दिया जाता है. उम्मीदें बेहिसाब हो सकती हैं, उम्मीदें नहीं जानतीं कि धरातल पर क्या समस्याएं हो सकती हैं, उम्मीदों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि परमाणु विकल्प पर सोचने की बात आ जाए तो किस विध्वंस की संभावना बन रही हैं. उम्मीदें टूटती भी तभी हैं जब उनका पहाड़ इसी ‘मल्टीपल टेंडेंसी’ के चलते हिमालय की ऊंचाई भी पार कर जाए. माना कि उम्मीद पर ही दुनिया कायम है, माना कि उम्मीद हमेशा बनी रहनी चाहिए, माना कि उम्मीदें हम नहीं करते, वो खुद बढ़ती हैं लेकिन यह भी याद रखिए कि कैंसर सेल भी इसी तरह मल्टीपल होने की टेंडेंसी रखते हैं जो इंसान के लिए घातक बीमारी में बदल जाते हैं और यही बात उम्मीदों पर भी लागू होती है.
फै़ज़ ने उम्मीदों के लिए कहा है
‘एक उम्मीद से दिल बहलता रहा, एक तमन्ना सताती रही रात भर’ लेकिन उम्मीदों की लिमिट और एक्सपायरी दोनों तय कर लें तो दिल बहलाना भी आसान रहे…