Census में जातियों का हिसाब और आगे की राहें
भारत में जातिगत जनगणना पहली बार किए जाने की घोषणा हुई हो ऐसा नहीं है लेकिन यह तय है कि पिछली जाति वाली जनगणना की बात काफी पुरानी हो चुकी है. 1931 में आखिरी बार जातीय जनगणना हुई थी और तब से लगातार यह वैचारिक द्वंद्व चल रहा है कि जातिगत जनगणना की सोच अच्छी है या बुरी, इसका समाज पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा या बुरा और यह भी कि इससे सरकारों को निर्णय लेने में आसानी होगी या मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी. इससे पहले कि इस बार होने जा रही जातिगत जनगणना के कुछ दूसर पहलू देखें, 1931 में हुए सेंसस का हिसाब देख लें. इस जनगणना में देश में रहने वालों की संख्या का आंकड़ा आया था 27.1 करोड़ यानी कुल आबादी. ये उन दिनों की बात है जब भारत में पाकिस्तान और बांगलादेश भी जुड़े हुए थे. इस समय देश की आबादी का 52 प्रतिशत अदर बैकवर्ड क्लास यानी ओबीसी में शामिल था. यदि जातियों की ही बात करें तो सबसे ज्यादा ब्राम्हण थे जिनकी आबादी 1.5 करोड़ थी, इसके बाद जाटवों का नंबर था जो एक करोड़ 21 लाख थे. राजपूत 1931 में 81 लाख थे. 52.4 फीसदी ओबीसी, 22.6 फीसदी अनुसूचित जाति/जनजाति, 17.6 फीसदी अगड़ी जातियां और 16.2 फीसदी अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे. साल 1901 की जनगणना में 1,646 और साल 1931 की जनगणना में कुल 4,147 जातियों की संख्या बताई गई थी. यूपीए सरकार ने 2011 में सामाजिक और आर्थिक नजरिये से जातियों की गणना हुई थी. चूंकि इसकी रिपोर्ट्स कभी पूरी तरह सामने नहीं आईं इसलिए जो छनकर बातें सामने आईं उनमें यह था कि सर्वे में लगभग 3,651 ओबीसी जातियों का विवरण है. इससे पहले मंडल कमीशन की रिपोर्ट अविभाजित भारत के 50 साल पुराने आंकड़ों पर आधारित थी, इसलिए इस सर्वे की बात सामने आना जरुरी था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. इसके बाद राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने अप्रैल 2021 में शेड्यूल्ड जनगणना में जातियों का डाटा इकट्ठा करने की बात सरकार से कही थी, लेकिन दो ही महीने बाद केंद्र सरकार ने संसद में मांग नकारते हुए कह दिया कि उसका जातिगत जनगणना कराने का इरादा नहीं है. नवंबर 2023 में संकल्प यात्रा में मोदी ने देश की चार जातियों का नया वर्गीकरण पेश करते हुए कहा कि गरीब, महिला, किसान और युवा ही हमारी जातियां हैं यानी तब भी सरकार जातिगत जनगणना पर नहीं सोच रही थी. अब जाति जनगणना के विपक्ष के मुद्दे को सरकार ने अचानक मानकर चौंका तो दिया ही है. कुछ लोग इसे बिहार चुनाव के पहले का मस्टर स्ट्रोक बताते हुए कह रहे हैं कि सरकार ने विपक्ष से बड़ा हथियार छीन लिया है जबकि विपक्ष इसे अपनी जीत बताते हुए कह रहा है कि हमें सरकार से अपनी मांगें मनवाते आती हैं, इसे अपनी जीत बताते हुए विपक्ष ने इसकी समयसीमा और जातिगत आरक्षण सीमा बढ़ाने की अगली मांगें भी सामने रख दी हैं.
देश की विकासशील से विकसित बनाने की समयसीमा में काम कर रहे मोदी ने जातिगत जनगणना को क्यों हरी झंडी दी है इसके अनुमान ही लगाए जा सकते हैं लेकिन यह तय है कि यह अच्छा या बुरा, एक बड़ा फैसला है. 2025 में शुरु होने वाली इस जनगणना में अब 29 कॉलम्स की जगह कुछ और जोड़ घटाव भी होंगे और इसके आकंड़ों से बनी तस्वीर हमारे सामने 2027 में ही आ सकेगी. तभी यह भी साफ होगा कि आज भारत में जातियों की क्या स्थिति है और इनके अनुसार अब आगे किस दिशा में सोचा जाए. आंबेडकर यह जानते थे कि हिंदुस्तान में जाति एक ऐसी विषय है जो खत्म नहीं हो सकता और यह तो अब एक आम जुमला है कि जाति है कि जाती नहीं.