khatu shyam story खाटू श्याम कौन हैं, क्या है खाटू श्याम की कहानी
khatu shyam ki kahani क्या आप भी जानना चाहते हैं कि खाटू श्याम कौन हैं और खाटू श्याम की कहानी क्या है तो यहाँ जानिए उनकी पूरी प्रामाणिक कथा…

खाटू श्याम की कथा : सुंदर चमकीली आंखें,घनी मूंछें और सजीला रौबदार चेहरा लेकिन सिर्फ चेहरा क्यों?? पूरा शरीर क्यों नहीं? खाटू श्याम को कलयुग का देवता क्यों कहते हैं? खाटू श्याम का धड़ कहाँ है? मार्च में उन्हें क्यों पूजा जाता है? आइए जानें पूरी कहानी….
खाटू श्याम कौन हैं
खाटू श्याम वास्तव में बर्बरीक हैं. खाटू श्याम के नाम से वे सुविख्यात हैं इसके पीछे गहरा राज है..श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया था कि वे कलयुग में उनके नाम से जाने जाएंगे और उनकी शक्तियां खाटू श्याम में अंतर्निहित होंगी. महाभारत के पांडवों में से एक अति बलशाली भीम और हिडिम्बा के पौत्र तथा घटोत्कच और मोरवी देवी के पुत्र हैं. उनका नाम बर्बरीक रखने की भी एक कहानी है. वे बचपन में बब्बर शेर की तरह सुनहले बालों वाले थे अत: उनका नाम बर्बरीक रखा गया. खाटू श्याम को हारे का सहारा भी कहा जाता है आगे की कहानी में आप जानेंगे कि इसका क्या कारण है.
श्री खाटू श्यामजी का मन्दिर राजस्थान के सीकर जिले में रिंगस कस्बे से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ साल भर दूर दूर से लोग अपनी मन्नत लेकर आते हैं और पूरी होने पर निशान ध्वज चढ़ाकर खुशियां व्यक्त करते हैं. मार्च माह में यहाँ बड़ा प्रसिद्ध फाल्गुन मेला लगता है.

श्री खाटू श्याम की कथा | श्याम बाबा कहानी | बर्बरीक संपूर्ण इतिहास
खाटू श्याम यानी बर्बरीक ने जब महाभारत युद्ध के बारे में सुना तो उनका मन भी युद्ध देखने का हुआ. वे बचपन से वीर थे. माता विजया और भगवान शिव की उपासना और साधना से उन्हें तीन विशेष बाण यानी तीर मिले थे. वे तीर इतने दिव्य थे कि अकेले ही महाभारत की सेना को समाप्त कर सकते थे. तो जब वे जाने को उद्यत हुए तो माता मोरवी ने यह सोचकर कि सभी योद्धा तो कौरवों की तरफ है पांडव कहीं हार न जाए बर्बरीक से कहा कि बेटा तुम इतने वीर और बलशाली हो और अभी तो तुम युद्ध देखने जा रहे हो लेकिन अगर तुम्हें किसी का साथ देना ही पड़े तो तुम ऐसा करना जो सेना हार रही हो उसकी तरफ से लड़ना. बर्बरीक ने मां को वचन दिया और चल पड़े युद्ध देखने…
कौरव-पांडव दलों के विशाल शिविर महाभारत युद्ध स्थल पर आमने-सामने थे। युद्ध नीति के अनुसार सूर्यास्त के पश्चात् दोनों पक्ष के लोग आपस में मिल-जुल सकते थे, अतः धर्मयुद्ध के इन शिविरों में भी सैनिक आपस में मिल-जुल रहे थे। शिविरों के बीच की भूमि वीरों के आवागमन से भरी हुई थी.
तभी सुसज्जित रथ पर सुंदर चमकते हुए तेजस्वी योद्धा बर्बरीक का प्रवेश हुआ. पीपल पेड़ के नीचे बर्बरीक ने अपना रथ रोका. घोड़ों को खोलकर घास चरने के लिए छोड़ दिया। शस्त्र आदि उतारकर जलपान किया और अपने रथ पर विश्राम करने के लिए बैठ गए. सुंदर सुगठित आकर्षक देह, जगमगाता चेहरा, बड़ी-बड़ी सजीली-पनीली आंखें,गुलाबी होंठ, कसी हुई मूंछें… मीठी मुस्कान के साथ उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को देखकर हर कोई सम्मोहित हो गया.
दोनों दलों के वीरों ने घेर लिया। सभी का एक ही सवाल था-‘आप किस ओर से युद्ध करेंगे?’
‘किसी भी दल की ओर से नहीं। अभी तो मैं एक दर्शक की भांति इस महायुद्ध को देखने आया हूं, बाद में अगर जरुरत हुई तो मैं उस पक्ष की तरफ से युद्ध करूंगा जो पराजित हो रहा होगा.’
सब विस्मय से उन्हें देख ही रहे थे.
उपस्थित सैनिकों में से एक ने पूछा- ‘लेकिन आपकी सेना कहां है ? क्या आपकी सेना पीछे आ रही है?’
‘नहीं, मुझे सेना की आवश्यकता नहीं है. मैं बिना सेना के ही आया हूं।’ बर्बरीक ने मुस्कुराकर आत्मविश्वास से कहा.
‘फिर आप पराजित दल की सहायता कैसे करेंगे?’
सजीली मुस्कान के धनी बर्बरीक बोले-‘मुझे सेना की आवश्यकता ही नहीं है। मुझे अपने इस धनुष और इन तीन बाणों पर पूरा विश्वास है। मैं एक ही बाण से सेना का संहार कर सकता हूँ, छूटने पर मेरा पहला बाण हर व्यक्ति पर निशान लगा देगा और दूसरा बाण उन्हें बींध देगा.
‘आपका नाम?’ बहुत से लोगों ने विस्मय से पूछा.
मैं भीमसेन का पौत्र, घटोत्कच का पुत्र महाबली बर्बरीक हूं’
आंधी की तरह कुछ ही क्षणों में यह बात दोनों शिविरों में फैल गई. हर किसी की जुबां पर बर्बरीक का ही नाम गूंज रहा था.
भगवान श्रीकृष्ण तक बात पहुंची तो वे चिंतित हो उठे…सोच-विचार करने लगे कि यदि वह वीर निर्बल पक्ष का साथ देगा तो पाण्डवों की विजय होते ही कौरव निर्बल हो जाएंगे। फिर वह वीर उनकी ओर से लड़कर पाण्डवों की विजय को पराजय में बदल देगा. ऐसे तो युद्ध कभी समाप्त ही नहीं होगा… बर्बरीक निसंदेह विलक्षण धनुर्धर है, वह सच में अपने बाणों से ही शत्रु सेना का संहार कर सकता है? क्यों न चलकर परीक्षा ली जाए.
वह उठे और बर्बरीक के पास पहुंचे। उन्हें आता देख सैनिकों ने जगह दी। बर्बरीक ने श्रीकृष्ण का अभिवादन किया। दोनों में परिचय हुआ. श्रीकृष्ण ने कूटनीति का आश्रय लेते हुए पूछा-‘तुम इन तीन बाणों के द्वारा सारी सेना का संहार कैसे कर सकते हो ?’
बर्बरीक ने स्वाभिमान मिश्रित मुस्कान से अपना सिर ऊपर उठाया, धनुष पर एक बाण चढ़ाकर कहा-‘देखिए, मैं इस प्रकार समस्त शत्रु-सेना का संहार कर सकता हूं. आप इस पीपल के पेड़ को देख रहे हैं। मेरा यह बाण इसके समस्त पत्तों को चिह्न लगा आएगा और दूसरा बाण उन्हें बींध देगा। आप चाहें तो मैं धरती पर बिखरे इन सूखे पत्तों को भी बींध सकता हूं’

श्रीकृष्ण के साथ सभी यह दृश्य देखने को उत्सुक हो उठे। लेकिन कान्हा ने दो पत्ते तोड़ लिए. एक को हाथ की मुट्ठी में बन्द कर लिया और दूसरे पांव के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने अभिमंत्रित कर बाण छोड़ा। सभी ने देखा कि पेड़ और धरती का प्रत्येक पत्ता चिन्हित था. फिर बाण सारे पत्तों को चिन्हित कर श्रीकृष्ण के चक्कर लगाने लगा. बर्बरीक बोल उठे – प्रभु आप अपने हाथ और पैरों के नीचे के पत्तों को छोड़ दीजिए. मैंने अपने बाणों को पत्ते बींधने का आदेश दिया है पैरों और हाथों को नहीं…. श्री कृष्ण चकित-विस्मित थे.
श्रीकृष्ण ने मुट्ठी खोली तब हाथ का पत्ता भी चिन्हित था और पांव के नीचे का पत्ता भी। बर्बरीक के बाण से पीपल का प्रत्येक पत्ता बीच में से बिंधा हुआ था. श्रीकृष्ण अकुला उठे और गहरी सोच में पड़ गए कि किस प्रकार से बर्बरीक को युद्ध में भाग लेने से रोका जाए.
सोच-विचार के बाद उन्हें एक हल सूझ ही गया. प्रातःकाल वह उठे और ब्राह्मण का रूप धर कर बर्बरीक के पास पहुंचे. वह संध्यावन्दन कर रहे थे। संध्यावन्दन के उपरांत बर्बरीक ने ब्राह्मण से कहा- आज्ञा कीजिए ब्राह्मण देवता, मैं आपके क्या काम आ सकता हूँ?
-कुछ दान पाने की इच्छा है महाराज! -ब्राह्मण रूपधारी श्रीकृष्ण ने कहा.
-यहां तो मेरे पास विशेष धन नहीं है, परदेश में हूं। ये बहुमूल्य वस्त्राभूषण हैं, इनकी इच्छा हो तो कहो। मेरे पास में जो कुछ भी होगा, वह मैं दान में अवश्य दूंगा’
-‘वस्तु तो वही मांगूगा जो आपके वश में है’
-‘तब मुझे कोई इंकार नहीं, चाहे तो मेरे प्राण मांग लो’
-‘प्राण!!!! इतना अभिमान अच्छा नहीं है, महाबली। अच्छा, ऐसा है तो मुझे अपना शीश काटकर दे दीजिए’
बर्बरीक यह सुनकर हतप्रभ रह गए। इतना कठोर दान भी कहीं मांगा जा सकता है. उन्होंने क्रोध मिश्रित आश्चर्य को दबाकर कहा- ‘मुझे विश्वास ही नहीं होता कि आप ब्राह्मण हो। आपने दान प्रथा को कलंकित किया है। कोई ब्राह्मण यह दान मांग ही नहीं सकता आप अवश्य ही कोई कूटनीतिज्ञ हो। जो वचन मैंने दिया है, उसे मैं अवश्य पूरा करूंगा। किन्तु अब आप यह बता दो कि वास्तव में आप हो कौन ?’
श्रीकृष्ण ने अपना रूप बदलते हुए कहा-‘मैं कृष्ण हूं बर्बरीक! मैं नहीं चाहता कि तुम इस महायुद्ध में भाग लो और तुम्हारे कारण दोनों पक्षों को विनाश हो जाए.
बर्बरीक सच जानकर निर्विकार भाव से बोले- मैं अपने वचन को पूरा करूंगा, परन्तु मेरी इच्छा मेरे साथ ही मिट जाएगी’
निःसंकोच कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है?
-मैं। इस महाभारत के महायुद्ध को देखना चाहता था. सृष्टि के सभी महारथी इसमें सम्मिलित हुए हैं। मैं देखना चाहता था कि वास्तव में कौन कितना बली ह।’
श्रीकृष्ण ने कहा- यह इच्छा अवश्य पूरी होगी.’
बर्बरीक ने अपने शीश का दान दे दिया इसीलिए उन्हें शीश दानी के नाम से भी जाना जाता है. ॐ श्री शीशदानेश्वराय नमः के मंत्र से भक्त उन्हें प्रसन्न करते हैं और मनचाहा वरदान मांगते हैं.
तब भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के सिर को 14 देवियों के मंत्र और दिव्य औषधि के सहारे जीवंत रखते हुए व उन्हें पीपल की सबसे ऊंची शाख पर टांग दिया, जिससे वह भलीभांति युद्ध देख सके. बर्बरीक ने उस धर्मयुद्ध को भलीभांति देखा। 18 दिन तक महाभारत का महायुद्ध हुआ.
अन्त में दुर्योधन की मृत्यु के साथ इस महायुद्ध का अन्त हुआ। पाण्डव विजयी हुए, कौरव पराजित ! इस महायुद्ध से दोनों पक्षों में केवल 10 व्यक्ति ही जीवित बचे थे- पाण्डव पक्ष में 5 पाण्डव, श्रीकृष्ण व सात्यकि और कौरव पक्ष में अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा.
जब युद्ध समाप्त हुआ तो श्रीकृष्ण ने अनुभव किया कि पांडव अपनी विजय के अभिमान में चूर-चूर हैं। वे उन्हें लेकर वहाँ पहुंचे जहाँ बर्बरीक को विराजित किया था. बर्बरीक का मुखमंडल अनूठी आभा से दमक रहा था. कुशल समाचार जानने के लिए बर्बरीक ने उत्सुकता से सब की तरफ देखा. श्रीकृष्ण ने कहा कि पांडवों में से हर एक को लग रहा है कि उनके पराक्रम की वजह से महाभारत का युद्ध जीता गया है. आपने तो पूरा महायुद्ध देखा है.आप ही बताइए की यह युद्ध किसके कारण जीता गया.
तभी अर्जुन ने गर्वयुक्त वाणी से कहा – यह युद्ध मैंने अपने बाहुबल से जीता है. 18 दिन निरन्तर गांडीव की टंकार से 10 दिशाएं गूंजती रहीं। भीष्म पितामह को मारना कोई हंसी-खेल नहीं था.’
भीमसेन के पौत्र बर्बरीक के मुख पर रहस्यमयी मुस्कान खिल गई. अर्जुन कहने लगे-मैंने भगदत्त जैसे महाबली को मार गिराया। द्रोण को निस्तेज कर दिया था और कर्ण, जिसके भय से धर्मराज युधिष्ठिर को रातभर नींद नहीं आती थी, उसका वध भी मेरे ही हाथों हुआ. बाद में अश्वत्थामा को मणिरहित भी मैंने ही किया. क्यों बर्बरीक अब तो तुम मेरी और मेरे गांडीव की प्रशंसा करोगे?’
बर्बरीक ने अट्टाहास किया और कहा सबकी बातें सुन लेने दो फिर मैं अपनी कहता हूँ.
अब भीम की बारी थी – मेरी इस पर्वत-सी विशाल गदा के विषय में क्या विचार है बर्बरीक ? तुमने देखा होगा कि इसी गदा के सहारे मैंने दुष्ट दुशासन का रक्त पिया। इसी गदा से मैंने अद्वितीय गदाधारी दुर्योधन का वध किया। हिडिम्ब, बकासुर और कीचक के वध की कहानियां भी तुमने सुनी होंगी। अब तुम मेरी वीरता के बारे में कुछ कहो।
बर्बरीक ने फिर अपनी हंसी से आकाश गुंजित कर दिया- मैं सबका जवाब एक साथ दूंगा।
नकुल-सहदेव ने अपनी-अपनी विशाल तलवारों की प्रशंसा की.
धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा- बर्बरीक, यह युद्ध मैंने सत्य के बल पर जीता।
बर्बरीक ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- श्रीकृष्ण, क्या आपको अपने विषय में कुछ नहीं कहना है?’
श्रीकृष्ण मुस्कुराकर बोले- मुझे कुछ नहीं कहना बर्बरीक ! मैंने योद्धा के रूप में तो इस युद्ध में भाग लिया ही नहीं। मैं तो मात्र सारथी था। रथ चलाता रहा, युद्ध देखता रहा, बस इससे अधिक कुछ नहीं किया मैंने।
इस बार बर्बरीक के अट्टहास से दसों दिशाएं गूंज उठीं.

फिर बर्बरीक बोले-अच्छा किया श्रीकृष्ण आपने सारथी के रूप में ही इस युद्ध में भाग लिया योद्धा के रूप में नहीं। शस्त्र धारण करके भाग लेते तो निश्चित रूप से पांडवों की पराजय होती। नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर को तो मैं महावीरों की श्रेणी में गिनता ही नहीं. रहे अर्जुन और भीम, ये महाबली अवश्य हैं किन्तु कौरव पक्ष के धनुर्धरों के सम्मुख ये दोनों भी अनाड़ी थे। अकेले भीष्म ने ही समस्त पांडव सेना और पांडव वीरों का बुरा हाल कर दिया था. भीष्म को तो इच्छा-मृत्यु का वरदान प्राप्त था। भला इनके मारे वे क्या मरते। इस वृद्धावस्था में भी कितना तेज था उनमें मुख पर.
बर्बरीक ने फिर अर्जुन की ओर देखकर कहा-मैं तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा हूँ अर्जुन ! जिस गाण्डीव की तुम इतनी प्रशंसा कर रहे हो, वह उस वक्त कहां गया था अब भीष्म ने तुम्हारी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया था, रथ तोड़ दिया था, कपिध्वज धरती पर पड़ा था, तुम मूर्च्छित हो गए थे और श्रीकृष्ण को अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर तुम्हारी रक्षा करनी पड़ी थी. फिर तुम श्रीकृष्ण की सलाह पर भीष्म से यह पूछने गए थे कि उनकी मृत्यु कैसे होगी। तब तुम लोगों को लाज नहीं आई थी? शिखण्डी के पीछे से भी निहत्थे भीष्म पर मैंने तुम्हारे शस्त्रों को चलते देखा था. वह तुम्हारी वीरता की चरमसीमा थी। जयद्रथ वध के दिन भी मैं तुम्हारी वीरता को देख चुका हूं। श्रीकृष्ण की माया यदि साथ न देती तो एक क्या सैकड़ों अर्जुन भी जयद्रथ की परछाईं नहीं पा सकते थे.
तेजस्वी वृद्ध आचार्य द्रोण ने तुम्हारी और तुम्हारी सेना की जो दुर्दशा की थी वह भी किसी से छिपी नहीं है. तब तुम्हारा बल-तेज कहाँ गया था? युधिष्ठिर कितने सत्यवादी धर्मनिष्ठ हैं, मैंने यह भी इसी युद्ध में देखा। श्रीकृष्ण की सलाह पर अपने गुरु के सम्मुख जाकर उन्होंने झूठ बोला. जीवित अश्वत्थामा को मृत बताया, क्योंकि पुत्र शोक ही उनकी मृत्यु का कारण हो सकता था.
यह सुनते ही युधिष्ठिर बोल उठे-भूलते हो बर्बरीक ! मैंने कहा था, अश्वत्थामा मर गया है, किन्तु नर नहीं हाथी.
बर्बरीक उत्तेजित हो उठे, क्रोध से बोले- ‘नर नहीं हाथी, यह धीमे स्वर में कहा था। मन में कहा होगा। द्रोण केवल यह सुन सके कि अश्वत्थामा मर गया है। उसके बाद श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने शंख बजाने शुरू कर दिए। क्यों, यह सब पहले से ही निश्चित था न?
बर्बरीक ने आगे कहा-सुनो अर्जुन। कर्ण के बाणों के सामने तुम्हारे दिव्यास्त्र कहां गए थे ? उन बाणों को विफल करने के लिए उन्हें चलाया तो था पर असफल रहे, क्यों सचाई यही है न ? श्रीकृष्ण ने उस वक्त घोड़ों को बैठाकर अपनी और तुम्हारी रक्षा की, फिर भी तुम्हारा मुकुट कट गया था और सुनो, निहत्थे कर्ण को मारते हुए तुमको लाज न आई होगी’
अर्जुन हतप्रभ होकर बोले-मैं तो रूक गया था, लेकिन श्रीकृष्ण की मुझे आज्ञा मिली थी कि यही समय है जब कर्ण को मार सकते हो. यदि कर्ण रथ का पहिया कीचड़ से निकालकर रथ पर बैठ गया तो एक क्या अनेक अर्जुन भी उसे मार नहीं पाएंगे’
बर्बरीक की बाणी में व्यंग्य उभर आया- ठीक ही तो किया श्रीकृष्ण ने, तुम्हें युद्ध जो जिताना था। मुझे ब्राह्मण बनकर ठग लिया। बली भगदत्त की प्रचण्ड शक्ति को श्रीकृष्ण ने अपनी छाती पर सहा, क्योंकि तुम्हारे शरीर के वह शत खण्ड कर देता। हाँ, पितामह भीम अब आप भी सुनिए यह तो सच ही है कि आप अतुल बल के स्वामी हैं, आपने निश्चित ही हिडिम्ब, बकासुर और कीचक को मारा। पर यह युद्ध तो गदा से नहीं जीता जा सकता था, क्योंकि इस युद्ध में इस युग के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सम्मिलित हुए थे। धनुर्धर कर्ण के सम्मुख आपकी गदा को क्या हो गया था, जो आप जान बचाने के लिए हाथियों के झुण्ड के पीछे जा छिपे थे. कर्ण ने अपने धनुष की डोरी गले में डालकर बाहर खींच लिया था। वह चाहता तो वध कर सकता था। किंतु उसने छोड़ दिया और उसने नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर को भी छोड़ दिया था. आज तो तुम सब अपनी वीरता की प्रशंसा में मदमस्त हो रहे हो, लेकिन यह भूल गए कि तुम उस महारथी से प्राण दान लेकर लौटे थे. अपनी मां को दिया वचन उसने निभाया था. वास्तव में वही सच्चा दानी था.
बर्बरीक अनवरत बोलते रहे-उसने अवसर मिलने पर भी तुम्हें क्यों नही मारा, यह वास्तव में अद्भुत रहस्य है. जयद्रथ के सामने तुम्हारी वीरता कहां गई थी. उसने तुम्हें चक्रव्यूह में घुसने नहीं दिया था। पितामह भीम ! आपके और दुर्योधन के बीच हुए गदायुद्ध में आप अपनी महानता प्रकट कर सकते थे, किन्तु वहां पर भी आपने निम्नस्तरीय प्रदर्शन किया. श्रीकृष्ण ही के इशारे पर गदायुद्ध के नियमों का उल्लंघन करके आपने दुर्याधन की जांघ पर गदा मारी। धिक्कार ऐसी वीरता पर.
धन्य था दुर्योधन ! वीरता की लाज रखनी उसे आती थी। युधिष्ठिर के यह कहने पर भी हम पांचों में किसी को भी द्वन्द्व युद्ध के लिये चुन लो, उसने अपने से बली को चुना। यदि बाकी चारों में से वह किसी एक को चुन लेता तो क्या होता? गदा-युद्ध व मल्ल-युद्ध में सब उनके सामने खिलौने जैसे थे। वैसे युद्ध में आपकी भी मृत्यु निश्चित थी। क्योंकि दुर्योधन गदा-युद्ध का श्रेष्ठ ज्ञाता और बहुत फुर्तीला था.
फिर बर्बरीक ने शांत स्वर में कहा-श्रीकृष्ण की नीति पराजित कैसे हो सकती थी. मुझसे यदि कोई पूछे तो मैं यही कहूंगा कि इस युद्ध के वास्तविक विजेता श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने अपनी युक्ति और नीति के सहारे इस युद्ध को जीता। मुझे तो इस युद्ध में चारों ओर श्रीकृष्ण ही श्रीकृष्ण नजर आते थे. श्रीकृष्ण नीति की जय हो.
इतना कहकर बर्बरीक मौन हो गए। पांडवों के सिर झुक गए थे. श्रीकृष्ण ने शीश दानी महाबली को खुश होकर यह वरदान दिया कि बर्बरीक कलियुग में तुम मेरे नाम से पूजे जाओगे और जो तुम्हें सच्चे मन से चाहेंगे और पूजेंगे वे मनोवांछित फल पाएंगे। आपको मां से मिला वचन कलियुग में निभाना है… यानी जो भक्त तन,मन और धन से हार रहा होगा, हालात, रिश्ते,आजीविका और जीवन से हार रहा होगा आपको उनका सहारा बनना होगा. आज से आप खाटू नरेश और खाटू श्याम के नाम से जाने जाएंगे.
यह सच है कि उस काल के बर्बरीक ही आज के बाबा श्याम हैं. आज सारा विश्व उन्हें शीश के दानी व हारे के सहारा के रूप में जानता है और जो भी सच्चे मन से खाटू श्याम जी जाता है, उसके हर काम को प्रभु श्री श्याम अवश्य पूर्ण करते हैं और जीवन को सुख, सम्पदा व खुशियों से भर देते हैं.
शीश के दानी की जय, खाटू नरेश की जय।
खाटू श्याम जी के मंत्र

.*. ॐ श्याम देवाय बर्बरीकाय हरये परमात्मने ।। प्रणतः क्लेशनाशाय सुह्र्दयाय नमो नमः।।
.*.महा धनुर्धर वीर बर्बरीकाय नमः ।।
.*. श्री मोर्वये नमः ।।
.*. श्री मोर्वी नन्दनाय नमः ।।
.*. ॐ सुह्र्दयाय नमो नमः ।।
.*. श्री खाटूनाथाय नमः ।।
.*. श्री मोर्वये नमः ।।
.*. श्री शीशदानेश्वराय नमः ।।
.*.ॐ श्री श्याम शरणम् मम: ।।
श्याम गायत्री मंत्र
.*.ॐ मोर्वी नन्दनाय विद् महे श्याम देवाय धीमहि तन्नो बर्बरीक प्रचोदयात्।
श्री खाटू श्यामाय नमः