Vivekanand Smriti Diwas प्रेरणा का अखंड स्तोत्र हैं जिनके विचार
स्वामी जिसने पश्चिम में लहरा दिया भारतीय मेधा का परचम
महज 39 साल की उम्र में 4 जुलाई, 1902 को स्वामी विवेकानंद ने वेल्लूर मठ में ध्यानावस्था में अपनी आखिरी सांस ली, वे दुनिया से विदा तो हो गए लेकिन अपने पीछे विचारेां की एक ऐसी श्रंखला छोड़ गए जो दिलो-दिमाग को उद्वेलित कर दे और युवाओं को एक सकारात्मक दिशा दे सकें. देश के युवाओं के लिए तो उनके विचार अनंत काल तक प्रेरणा की ज्योत बने रहेंगे. दिनकर ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा था, “विवेकानंद वो समुद्र हैं जिसमें धर्म और राजनीति, राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता तथा उपनिषद् और विज्ञान सब समाहित होते हैं.” विवेकानंद ऐसे ऋषि थे जिनके विचारक और दार्शनिक पक्ष ने दुनिया को सबसे ज्यादा प्रभावित किया. पश्चिम के स्वयंभू बुद्धिजीवियों को उनकी ही सरजमीं पर भारतीय मेधा का जो लोहा विवेकानंद जी ने मनवाया वह अद्भुत था.
स्वामी विवेकानंद को हिन्दू नेपोलियन की संज्ञा दी गई थी क्योंकि उनके विचार पूरी दुनिया को प्रभावित करने में सक्षम थे. विवेकानंद के दर्शन में वेद- वेदान्त, रामकृष्ण का सानिध्य और स्वयं के जीवन के अनुभवों का जो मेल था वह उनके विचारों को सर्वग्राह्य बनाता था. उनके एक ही वाक्य को देखिए कि ‘मैं उस ईश्वर का उपासक हूं. जिसे अज्ञानी लोग मनुष्य कहते हैं.” क्या यह वाक्य उनकी मानवता में प्रबल आस्था को नहीं दर्शाता है. विवेकानंद कहते थे जिनके लिए धर्म एक व्यापार है. उनमें धार्मिक प्रतिस्पर्धा का विष आ ही जाता है. उनका साफ मत था कि साम्प्रदायिक हठधर्मिता और धर्मान्धता लंबे समय राज कर चुकी है. यदि वे वीभत्स और दानवी न होती. तो मानव समाज कहीं अधिक उन्नत होता. विवेकानंद के विचार नित आधुनिक हैं. विवेकानंद ने पश्चिम के भी कुछ स्वस्थ्य मूल्यों की तारीफ़ करते हुए उन्हें अपनाए जाने की बात तक कही. वे विज्ञान को निरपेक्ष मानकर उससे भारत के भ्ज्ञले की बात कहते रहे, कई बार उनके विचार सामान्य विचारों की प्रतिधारा की तरह लगते हैं. उन्होंने हर प्रचलित और पारम्परिक विचारधाराओं का तर्क के आधार पर विरोध या समर्थन किया. समाज की कुरीतियों और जातिवाद को खत्म करना उनके आवाहनों में शामिल रहा. पूरे चार दशक का भी जीवन न जी सकने वाले इस स्वामी के विचारों में आज देखी जा रही कई समस्याओं के जवाब छुपे हुए हैं.