June 21, 2025
साहित्य समाचार

Book Review ‘अब मैं बोलूंगी’ डायरीनुमा दस्तावेज

संवेदनशीलता को सहेजने की कोशिश

वो किताब, वो डायरी, वो पीड़ा, वो दस्तावेज जिसे पढ़कर यह अनुभूति होती है कि रीढ़ अभी बची है, मुझे लगता है मनुष्य में संवेदनशीलता कोई एक चीज़ होती है, जिसे सहेजा जाना चाहिए, चाहे आसपास अराजकता का कितना ही तांडव क्यों न मचा हो. घोर निराशा के दौर में भी मनुष्य की पहली कोशिश अपनी चेतना और संवेदनशीलता बचाना ही होना चाहिए, जिसकी पूरी कोशिश आपकी पुस्तक में की गई है, ज़ाहिर है कई बार खुद को बचाने की कीमत भी चुकाना पड़ती है, यह कीमत आर्थिक भी हो सकती है, मानसिक भी. लेखन, कहानी, और कविता हम जैसे लोगों की चेतना को बचाने का काम करती है. यह किताब खुद की चेतना बचाने के साथ साथ यह इशारा भी करती है कि इसके इर्द गिर्द के लोग कितना सतही हो चुके हैं. भले ही यह डायरी किसी पर सीधा हमला न करती हो, लेकिन बावजूद इसके उन तमाम ठेकेदारों को कठघरे में खड़ा करती है, जो यह सोचते हैं कि यह दुनिया उन्हीं से बनी है, और उन्हीं की वजह से चल रही है। किताब की भाषा अपनी सघन पीड़ा में भी पाठक को हंसाती है. पीड़ा में भी व्यंग्य है, किताब में यह साफ़ नज़र आता है. किताब में किसी पर आरोप नहीं है, वो सिर्फ अपनी पीड़ा की बात, अपनी ज़िंदगी के इर्दगिर्द का दर्द कहती है, और ऐसा करने पर वो सब लोग अपने आप आरोपी बन जाते हैं जिन्होंने यह दर्द दिया और उसका लुत्फ़ उठाया.

पत्रकारिता में काम करने वाले यह जानते हैं कि नाम उजागर करने का क्या अर्थ होता है, इसलिए कई बार वे नाम परिवर्तित कर ब्रैकेट में छद्म नाम लिखकर खबरें प्रकाशित करते हैं. जिससे की नाबालिग आरोपी या पीड़ित की इज्जत बचाई जा सके। लेकिन कुछ आरोपी इतने वयस्क हो चुके हैं कि उनके नाम दर्ज करने में गुरेज नहीं किया जाना चाहिए. साथ ही कई बार अपने पीछे पीछे आने वाले समाज को जागरूक करने के लिए यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे अपराधियों के नाम ब्रैकेट में न लिखे जाए, जो आने वाले लोगों को अपना शिकार बनाएंगे. बहरहाल, तमाम पीड़ा और त्रास के बावजूद इसे पूरी तरह से ब्लैक या पूरी तरह से व्हाइट किए जाने से बचना अच्छी बात भी है. कभी कभी ग्रे भी अच्छा होता है, अक्सर अच्छा ही होता है. नवीन