June 14, 2025
देश दुनिया

National Herald कितना अखबार, कितना व्यापार

*आदित्य पांडे

स्वतंत्रता के दीवानों का सपना था लेकिन बाद में वसूली तक के आरोपों से घिरा रहा

हंगामा नेशनल हेराल्ड के मामले पर है लेकिन हकीकत यह है कि बात सिर्फ राहुल गांधी या सोनिया गांधी की नहीं है बल्कि इसमें हमें पत्रकारिता का भी एक आईना देखना चाहिए. 9 सितंबर 1938 को शुरु हुए इस अखबार के लिए काफी जोश था, देश को आजादी दिलाने का जज्बा था और यही वजह थी कि स्वतंत्रता सेनानियों ने इसके लिए जमकर योगदान दिया. इसे शुरु करने के लिए यूं तो पांच हजार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अपने अपने तरह से योगदान दे रहे थे लेकिन जैसे ही इसमें नेहरु की एक बार इंट्री हुई तो वो इसके मुखिया बन गए. चूंकि इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को साथ बनाए रखना था इसलिए कुछ ऐसे लेख भी छपे जो अंग्रेजों को पसंद नहीं आने थे हालांकि इनमें से कोई लेख खुद नेहरु का नहीं था. अंग्रेजों को लगा कि यदि अखबार बंद कर दिया जाए तो जो थोड़ा बहुत विरोध यह अखबार करता है वह भी नहीं होगा लिहाजा उन्होंने 1942 से 1945 तक इस अखबार को नहीं निकलने दिया. 1945 से 47 तक यह अखबार कैसे निकला यह भी अपने आप में एक कहानी है. 1947 में भारत आजाद हुआ और ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ के साथ नेहरु प्रधानमंत्री बन गए तो इस अखबार के मुखिया पद से वे हटे लेकिन हटे उतना ही जितना जरुरी था यानी उन्होंने इसमें मैनेजिंग डायरेक्टर बना दिया अपने दामाद फीरोज गांधी को. पहचान तो आप गए ही होंगे, जी हां… राजीव के पिता और राहुल के दादाजी. फीरोज काफी दमदार व्यक्ति थे, अच्छे सांसद और वक्ता थे लेकिन अखबार चला पाना उनके बस का मसला नहीं था और इसके चलते अखबार घाटे में जाने लगा. घाटे में जाते अखबार को अपने आप को बचाने के लिए पत्रकारिता से इतर जो जो करना होता है वह सब नेशनल हेराल्ड ही नहीं उसके हिंदी साथी नवजीवन और उर्दू साथी कौमी आवाज ने भी किया यानी कारपोरेट से पैसा लेना, विज्ञापन का दबाव बनाना और फिर फिरौती की तरह पैसा वसूलना तक. फीरोज से अखबार नहीं चल रहा था तो ट्रस्ट बनाकर उसे एसोसिएट जर्नल नाम दिया गया और इसके ट्रस्ट में भी इंदिरा सहित नेहरुजी के सभी पसंदीदा व्यक्ति रख दिए गए यानी परिवार का दखल तब भी इसमें बदस्तूर था. 1962 तक आते आते नेहरु जी को लगा कि ट्रस्ट में तो यूं भी सभी अपने लोग हैं और अखबार ने पीएम बनने से लेकर विरोधियों को निपटाने तक में इतनी मदद की है तो इसे जमीन दी जानी चाहिए. दिल्ली के महंगे और व्यस्त इलाके में पंद्रह हजार वर्गफीट के करीब जगह नेशनल हेराल्ड को 1962 में अखबार के नाम पर दे दी गई और बाद में इस जगह पर अखबार तो नाम के लिए चला लेकिन इसका व्यावसायिक फायदा खूब उठाया गया, आज भी इस जगह का किराया ही करोड़ों में है. बात नेहरु से फीरोज और फिर अब राहुल तक आई लेकिन तीनों अखबार पर कब्जा परिवार का ही बना रहा.

अखबार ने पचास के दशक में एक एक साल में कारपोरेट घरानों से इतना पैसा वसूला कि आज यह राशि करोड़ों में हो लेकिन अखबार का मिशन तो खत्म हो चुका था इसलिए अब सीधा मामला पैसा बनाने का हो गया था और बात यहां तक पहुंच गई कि बड़ौदा के राजा प्रताप सिंह से 2 लाख रिश्वत की बात कई जगह फैल गई और उड़ते उड़ते सरदार वल्लभ भाई पटेल तक पहुंच गई. पटेल ने इस बारे में सीधी शिकायत नेहरू से की लेकिन बात आई गई कर दी गई और महाराजा को उनका पैसा भी कभी वापस नहीं मिला जो आज के हिसाब से करोड़ों रुपए के बराबार था. पटेल ने नेशनल हेराल्ड पर तब भी तीखी टिप्पणियां की थीं और कहा कि वे इसे चैरिटी का विषय नहीं मानते और इस अखबार में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का तो योगदान खत्म ही हो गया है. जब अखबार को जमीन दी गई तब भी इसका सर्कुलेशन इतना नहीं था कि करोड़ों की जमीन इसे दे दी जाए और इसे यूं भर भर कर विज्ञापन मिल जाएं लेकिन अखबार कभी नुकसान तो कभी थोड़ा बहुत फायदा दिखा कर चलता रहा और फिर आया यह घोटाला जिस मामले में राहुल और सोनिया जमानत पर हैं. महज कुछ लाख रुपए में ऐसा सौदा हुआ कि दो हजार करोड़ की संपत्ति एक ऐसी कंपनी को मिल गई जिसमें सोनिया और राहुल सहित उनके कुछ दरबारियों का पूरा हिस्सा था. इसमें जो घोटाला बताया जा रहा है वह हजार करोड़ से कुछ ही कम का है जबकि दिल्ली और लखनऊ सहित कुछ जगहों पर संपत्ति और इनसे हो रही आय के अलावा ‘वसूली’ वाले मामले करोड़ों करोड़ के हैं. नेशनल हेराल्ड मामले में देशभर में कांग्रेस प्रदर्शन कर कह रही है कि मौजूदा सरकार राजनीतिक भावना से काम कर रही है लेकिन हकीकत यह है कि नेशनल हेराल्ड के पास तीन साल अंग्रेजों द्वारा इसका प्रकाशन बंद किए जाने को ही एक तमगा कहा जा सकता है. इससे इतर तो इस अखबार ने 1938 से अब 2025 तक सिवा गड़बड़ियों के और भी कुछ देखा हो कहा नहीं जा सकता.