June 21, 2025
देश दुनिया

1984 का एक गैर मामूली पन्ना

लेखक विवेक हिरदे की कलम से

‘द रेलवे मैन’ वेब सीरिज देख रहा था, और साथ-साथ मस्तिष्क में अतीत की एक संष्लिशिष्ट फिल्म भी चल रही थी. इक्कीस साल की उम्र में ‘मिक’ से मैं भी रूबरू हुआ था. ‘मिक’ (मिथाईल आईसोसाईनाईट) से मैं कितना करीब था, बस बता ही रहा हूँ, जरा 1984 के पन्ने खोल लूँ.

1984 का एक गैरमामूली पन्ना

बायोग्राफी जैसी कोई चीज मुझे तब तब विशेष पसंद नहीं है, जब तक यह किसी अतिविशिष्ट और गैरमामूली महामानव द्वारा या उस पर नहीं लिखी गई हो. इसीलिये मैं आपको बगैर किसी शर्त के साग्रह अपनी जिंदगी के उस पन्ने से तारुफ करा रहा हूँ जिसमें 1984 साल के अतीत की दस्तक है.

मैं तब भोपाल का 21 वर्षीय अस्थायी बाशिंदा था. एमवीएम कॉलेज का विद्यार्थी. घर की स्थिति ठीक-ठाक थी. 1974 में पापा को ब्रेन ट्यूमर होने के बावजूद भी वह श्रम के साथ प्रायवेट नौकरी कर रहे थे. जिंदादिल और मस्तमौला इंसान थे. मुझे 1984 में ही डायलेसिस उपकरण बनाने पर विज्ञान मेले में पहला पुरस्कार मिला था. यह पुरस्कार तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा मिला था. उन्हीं की पहल पर 28मार्च 1984 को मैं शासकीय नौकरी में आया. जुलाई 1984 में पापा की याददाश्त गड़बड़ाने लगी. घर का रास्ता भूलना, खुद को अपने जन्मस्थल पर महसूस करना जैसे अजीब से लक्षण थे. यह उनके मस्तिष्क के दूसरे ब्रेन ट्यूमर का उद्भव था, जो कैंसर का ही ट्यूमर था. इलाज चलता रहा पर इस बार उन्हें नही बचाया जा सका.

माँ इन्दौर में ही बड़ी बहन के पास रुक गई. वस्तुतः हमारे सभी सगे-संबंधी इन्दौर निवासी ही थे और पिताजी के गुजरने का दर्द ताजा होने से माँ को वहीं रखना मैंने उचित समझा. भोपाल में ताज- उल-मस्जिद के ठीक सामने नूर महल रोड के पीछे हमारा 150 रू. प्रतिमाह किराये पर डेढ़ कमरों का निवास था. पहली बार अकेले रहने का मौका मिला था. दिन नौकरी में गुजर जाता था, शाम दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में. लेकिन रात कहर ढाती थी. यदा-कदा रॉयल मार्केट के पास तार घर से फोन कर माँ से बतिया लेता था. रोज इतना खर्च उठाना मेरे बस के बाहर था.

दो दिसम्बर 1984 की रात मेरे साथ मेरा मित्र संजय शर्मा भी मेरे कमरे पर रुक गया था. वो मेरे लिये अपनी माँ के हाथ की बनी आलू- टमाटर की सब्जी और चांवल लाया था. शर्मा परिवार का मुझ पर अपार स्नेह था. रात को दुनियाभर की बातें बतियाते हुए और पास ही लक्ष्मी टॉकीज में अगले दिन कोई फिल्म देखने की योजना बनाने के बाद हम सो गए.
रात लगभग दो बजे हमारी नींदें एक दूसरे के खाँसने के साथ ही खुली. आँखों में हल्की सी जलन थी. हमारे घर के दाईं तरफ एक ट्रक ड्राईवर का मकान था. रात को वो अक्सर देर से लौटता था और उसकी नवेली बीवी उसके लिए तेज मिर्च-मसाले के बघारवाली दाल

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बनाती थी.

“सो जा यार, आर ड्राइवर साब की जोरू ने मसाले का तड़का ज्यादा तेज लगा दिया है.” संजय के कहने पर मैं फिर सोने का प्रयत्न करने लगा. लेकिन कुछ गड़बड़ तो थी, तभी तो मेरे खिड़की के टूटे शीशे से मुझे रोज रात साफ नजर आने वाली ताज-उल-मस्जिद के पास उस रात मुझे कुछ परछाइयाँ और कोलाहल सुनाई देने लगा. अब मैं और संजय जाग चुके थे, खाँस भी रहे थे और बाहर ताक भी रहे थे. हमने अपनी चप्पलें पहनी और ताज-उल-मस्जिद के पास जाकर वहाँ से भागते हुए लोगों में से एक को रोककर इस भगदड़ का सबब पूछा.अरे खां भागो… फेक्ट्री से जानलेवा गैस निकल रही है… मर जाओगे.” हम भी भागने लगे, लाल घाटी की ओर, इन्दौर रोड़ की तरफ.

एक बड़े मैदान पर काफी लोग इकट्ठे थे. हम सुबह छः बजे तक वहीं रुके और फिर घरों की ओर लौटने लगे. अन्य लोगों की तुलना में हम खुद को काफी ठीक महसूस कर रहे थे. धीरे-धीरे हमें पता चला कि औद्योगिक क्षेत्र में बनी युनियन कार्बाइड कंपनी से जहरीली मिक (मिथाइल आइसोसायनाइड) गैस का बड़ी मात्रा में रिसाव हुआ है. लगभग 45 टन गैस रिसकर 25,000 लोगों को लील गई थी और लाखों लोगों को बीमार कर गई थी.

मैं और संजय उसके घर पर सूचित किये बिना ही घटना क्षेत्र के पास गए तो कई लोगों को हाँफते और बदहवास अवस्था में तो कुछ लोगों को सड़कों पर बेहोश अवस्था में पड़े हुए देखा. संभवतः वे मर गए थे.
हमने उस दिन और अगले दिन अपने स्तर पर उन्हें स्थानीय हमीदिया और अन्य अस्पतालों तक पहुँचाने में मदद की साथ ही हमने हमारी नाम-मात्र की बचत से ब्रेड खरीद कर उन पालतू श्वानों को खिलाई जो अपने मालिकों को खोज रहे थे. बस हमारी इतनी ही हैसियत थी. दिन गुजरते गए, मैं अपने पैतृक शहर इंदौर सभी को अपने स्वस्थ होने की सूचनाएँ नियमित देता रहा और दो बार अठारह रुपये के विशेष रियायत बस द्वारा इंदौर माँ से मिलकर भी आया.धीरे-धीरे हमें कुछ खबरें मिलती रही, जैसे यूनियन कार्बाइड के चीफ वारेन एंडरसन अमेरिका भाग गए हैं. आज भोपाल गैस काण्ड के विरोध में बंद रहेगा, पीड़ितों को पैसा मिलेगा आदि.

17 जून 1985, इस हादसे के सात माह बाद मेरे विभाग की एक सहृदय वरिष्ठ महिला अधिकारी रीना वर्मा के प्रयासों से मेरा तबादलाइंदौर हो गया. मुझे यह खबरें मिलती रही कि, भोपाल आ जाओ, मुआवजा मिल रहा है. जो मर गए हैं उन्हें लाखों में और जो मामूली प्रभावित हुए हैं उन्हें भी पच्चीस हजार.

मैं भी आईने में खुद को देखता था, खुद को स्वस्थ महसूस करता था. ‘मिक’ मुझे मात्र छूकर निकल गई थी.

म.प्र. क्रोनिकल अखबार में नवम्बर 1984 की 12वीं तारीख को मुझ पर पहला लेख प्रकाशित हुआ ‘ए साइंटिस्ट इन मेकिंग’. इसी माह अखबार में मेरी पहली कविता ‘श्रद्धांजलि टू गीतांजली’ प्रकाशित हुई जो मैंने ब्लड कैंसर से गुजर चुकी लड़की गीतांजली अय्यर की पुस्तक पर लिखी थी.

मुझे पता लगा कि भोपाल गैस कांड के बाद पीड़ित-अपीड़ित लोगों की मुआवजा लेने के लिए जी तोड़ मेहनत शुरू हो गई है और मुआवजा भी खूब बाँटा गया था, पर मैं पूर्ण स्वस्थ था इसलिये मित्रों के आग्रह पर भी मैंने सरकार से कोई भी मुआवजा नहीं लिया था.

उस ईश्वर की कृपा थी जो मैं ‘मिक’ के जानलेवा आगोश से मुक्त था. ठीक नौ वर्ष पश्चात् 1993 में टाटा हॉस्पिटल की मेरी कैंसर फाईल बी एफ-14773 पर डॉ. आर. एस. राव ने सम्पूर्ण इतिहास जानने के बाद लिखा था ‘विक्टिम ऑफ भोपाल गैस ट्रेजडी-84’टाटा हॉस्पिटल की फाईल पर मुझे भोपाल गैस काण्ड का शिकार जरूर बताया था, पर यह पूरा सच नहीं है. मुझे सिगरेट पीने की आदत थी. 1990 से 1993 तक मैं धूम्रपान करता रहा, इसलिये मेरे कैंसर का दोष भोपाल गैस काण्ड पर मढ़ना मुझे कुछ तकलीफ भी देता रहा. तब मैं लगभग 29 साल का था, जब अपने पहले कैंसर से

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मुलाकात हुई. जी, दूसरा भी आया था वर्ष 2012 में.

यादों का क्लोरोफार्म भी गजब असर करता है. 1984 की 31 अक्टूबर को श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या को कैसे भूला जा सकता है. उनकी हत्या उनके अपने सिख अंगरक्षकों ने ही की थी, इसलिए देशभर में सिख नागरिकों के साथ ढेरों हिंसक घटनाएं होने लगी. एक हत्या की एवज में निर्दोषों को असमय काल कवलित होना पड़ा. यह एक भयावह दौर था.

कैंसर को मेरा गला खासा पसंद था, मैं ढेरों बातें जो किया करता हूँ. पहले वह बंदा खाकसार के स्वरयंत्र पर आकर बैठा और बाद में अर्थात 2012 में उसने थाईराईड पर डेरा डाला. इस बार मेरा यार जाते-जाते थायराईड भी लेकर गया. तब मैं अपने जीवन कीगोल्डन जुबली मना रहा था. मौका था इकलौती बेटी पूजा की शादी का. उर्जा से तो मैं भरा था पर कम्बख्त आवाज इस बार काफी कमजोर पड़ गई थी. पर शुक्र है ईश्वर ने जिंदा रखा है और बहुत अच्छा भी रखा है. शो मजे में चल रहा है, इंशाअल्ला आगे भी चलेगा जब तक उपरवाले की नजरे इनायत है.

तो पन्ना पूरा हुआ और कहानी भी, जो इस वेब सीरीज से ताजा हो गई है.