साँझी सखियों का लोकपर्व… संजा …!
-ज्योति जैन
‘‘मम्मा…… वो देखो…….! काऊ की ’पोट्टी’…….
‘‘शिट्…… कहते कहे उस नन्हीं की बूची नाक ने मानो कुछ सूंघते हुए मुँह बनाया और नन्हीं सी हथेली अपनी नाक पर रख ली. उसकी युवा माँ ने भी नाक पर रूमाल रख लिया. ’CK.’ की खुशबु में सराबोर मां-बेटी का गाय के गोबर से शायद यही परिचय था. मुझे दोनों की मासूमियत पर हँसी भी आ रही थी और कुछ बुरा भी लग रहा था. बदले परिवेश ने कितना कुछ बदल दिया है.
वो नन्हा फरिश्ता और उसकी माँ दोनों ’ऑडी’ में बैठे और निकल गए – पीछे उड़ी धूल ने मुझे बचपन की गोधूलि बेला याद दिला दी. गोधूलि कहते ही इसलिये थे कि जब गायें घर लौटती तो धूल उड़ाती आती थीं (अब तो वो कच्ची पगडंडियों की धूल भी कहाँ) रंभाती गायों के साथ माँऽऽ माँऽऽ के स्वर में रंभाते उनके बछड़े…… और टुन-टन के मधुर स्वर में बजती उनके गले की घंटियाँ……. ओह ……. कितना आनन्दमयी नजारा हुआ करता था और बस…….. यही वो वक्त था जब हम सब बाल सखा/ सखियाँ उस झुण्ड के दायें-बायें चलते थे. जी हाँ…. भादों माह की प्रतिपदा से सम्पूर्ण पितृपक्ष में सोलह दिन तक चलने वाले वे दिन संजा बनाने के होते थे.
संजा, यानी हर कुंवारी के दिल में बसी एक सखी. संजा… जिसे कभी देखा नहीं लेकिन किशोरावस्था तक उसके गीत गाए. यह सिलसिला कब से शुरू हुआ… क्यों हुआ…. यह सब तो नहीं पता,लेकिन जैसे ही संजा के दिन आते,ताजा गोबर, फूल पत्तियां,चमकीली पन्नियां ,इन सब की जुगाड़ दिमाग में चलने लगती थी.
गायों के ताजे नर्म गोबर के लिए हम सब गायों के झुण्ड के साथ-साथ भागते. जैसे-जैसे गायें पूँछ. उठाती और धप से गोबर जमीन पर गिरता कि अपनी-अपनी टोकरी में सब उठा लेते थे.
तीन बड़े भाइयों की इकलौती छोटी बहन होने के खटके क्या होते हैं, ये तब सबको पता चलता था. राजू दादा ऐसे कामों में बड़ा माहिर…… वो गायों के पीछे-पीछे चलता और जैसे ही कोई गाय पूँछ उठाती वो गोबर को टोकनी में ही झेल लेता था. यानि साफ-सुथरा गोबर…….. बिना मिट्टी, कंकड़ व कचरे वाला………
यहीं से संजा की तैयारी शुरू हो जाती थी, क्योंकि संजा की मुख्य आवश्यता गोबर व फूल ही होते थे. मालवा और राजस्थान के मिलेजुले परिवेश में कुआँरी कन्याओं का अनुष्ठानिक पर्व था संजा….. संजा के स्वागत में पूरी गुवाड़ी की हमारी सब सखियाँ 4-5 दिन पहले ही जुट जाती थीं.
घर के मुख्य द्वार के बाजू वाली दीवार पर थोड़ी पीली मिट्टी में खुब सारा गोबर मिलाकर पहले चौकोर शेप में लीप लिया जाता था. फिर चौकोर वर्गाकार आकृति के ऊपर व दायें-बायें समाकार वर्ग बनाये जाते थे. निचला हिस्सा खुला रहता था, मानों द्वार हो. ये संजा बनाने के लिए पृष्ठभूमि तैयार होती थी.
और फिर हर दिन के हिसाब से तय आकृति गोबर द्वारा बनाई जाती थी.
एकम – पाटला
दूज – पंखा
तीज – विजोरा
चार – चौपड़
पंचमी – पाँछ कुँवारे कुँवारी
छठ – छाबड़ी
सप्तमी – सातिया
अष्टमी – आठ कली का फूल

इस तरह हर तिथिवार अलग डिजाइन व आखरी दिन यानि अमावस को किलाकोट बनता था. जिसमें जाड़ी जसौदा, पतली पेमा, सोन चिरैया, ढोली आदि पहले बनते और फिर संजाबाई के गहने कपड़े भंडार आदि बनाये जाते थे और हाँ उस वर्गाकार आकृति में ऊपर दायें-बायें चाँद-सूरज तो हर दिन बनते थे. संजा दिन छते ही बना ली जाती थी यानि सूरज ढलने से पहले……. और सूरज ढलने के बाद पूजा का सिलसिला शुरू होता था, जो रात तक चलता था.
यहाँ एक बात बता दूं कि दूसरे दिन दोपहर बाद संजा को बड़े जतन के साथ लोहे के खुरपे से धीरे-धीरे एहतियात के साथ उखाड़ा जाता था और एकत्र करके एक छाबड़ी में डाल दिया जाता था. इस प्रकार सारे दिनों की संजा को एकत्र कर किला कोट के बाद धूमधाम से विदा कर शिवना में बेवा (बहा) दिया जाता था.
अपनी परम्पराओं से हृदय व श्रद्धा से जुड़े कन्याएँ क्रमवार तिथि की हर डिजाइन को याद रखती व पूरे जतन के साथ इस पर्व को सजाती थी.
इन दिनों प्रकृति भी अपने पूरे शबाब पर होती थी. संजा के फूल (गुलताउड़ी) सफेद चाँदनी के फूल, पीली-केसरी करदली और केसरिया डंडी वाले हरसिंगार संजा सजाने के लिये प्रमुखता से होते थे. उस नासमझी की उम्र में भी हम जानते थे कि सूरज पीले व चाँद सफेद रंग से सजाना है.
पहले दिन धूमधाम से संजा बाई विराजती और पहले शुरुआत होती थी आरती से –
पेली (पहली का अपभ्रंश) जो आरती रई रमजो……. भई ने भतीजा
अब सब सखियाँ……..
माता ……थने पूंजू सौ सौ कलियाँ………
इसी प्रकार दूसरे नम्बर…….. तीसरे नम्बर पर दूसरी जो आरती…… तीजी जो आरती….. इस तरह हर संजा की आरती होती और फिर प्रसाद खा-पीकर संजा के गीत शुरु होते. वहीं कच्चे ओटलों सब कन्याएँ बैठकर शुरू हो जाती. फिर प्रसाद बंटता. सब अपनी सामर्थ के अनुसार प्रसाद रखते पर एक प्रसाद फिक्स था. केले के छिलके सहित गोल-गोल गट्टे.
मुझे ठीक-ठाक तो ध्यान नहीं पर गुवाड़ी की काकियाँ, ताई, भाभी वगैरह (ये सब रक्त संबंध नहीं होते थे) बताती थी कि इन दिनों संजाबाई पीहर आती है, इसलिये ये त्यौहार मनाने की परम्परा है. तो संजा बाई को छेड़ते हुए गीत गाया जाता था –
‘‘संजाबाई का लाड़ा जी
लुगड़ो लाया जाड़ा जी
असो कई लाया दारी का
लाता गोट किनारी का……’’
फिर संजा बाई को भोजन करने की बारी आती. आज के डिजीटल युग में सारी सुविधाएँ हैं, पर तब माँ सरीखे लाड़ से कहना –
संजा तू जीम ले के चूठ ले
चिरा में चिरई ले….
चटक चाँदनी सी रात
फूका भरी रे परात….
मन को छू लेता था.
गीतों में भी सास का स्वरूप सास जैसा ही बताया जाता था –
म्हारे आंगन राई उबी, राई खई गय्या ने
गय्या ने दिया दूधा, दूध की बनाई खीर.
खीर खिलाई मामा को, मामा ने दिया पैसा
पैसे की लाई नाड़ी, नाड़ी डाली चोटी में
चोटी दिखाई सास को, सास ने मारा टल्ला
टल्ले से आए आँसू, आंसू पोंछे मखलम से
मखमल दिया धोबी को, धोबी ने दी चिन्दी
चिन्दी दी दर्जी को, दर्जी ने बनाए गुड्डा गुड्डी
थे खेलो संजा बाई गुड्डा-गुड्डी……..
गीत गाते गाते सास ने मारा टल्ला……
गाते तो हम सब सखियाँ एक-दूसरे को टल्ला मारती हँसती थी.
सास यदि परेशान करे तो इस पर ही एक और गीत होता था….”असो दूंगा दारी के चमचा के..
काम करऊंगा धमका के…
मे बेठूंगा गादी पे..उके बिठऊंगा खूंटी पे…
ऐसा माना जाता था कि संजा बाई बड़े घर की बेटी थी व ससुराल से भी सम्पन्न परिवार से थी तो गीत गाते – संजा……… तू बड़ा बाप की बेटी.
तू खाए खाजा-रोटी……..
और जब ससुराल से आती भी तो ठाठ से सब अच्छे से पेर-ओढ़ के……..और गीत रहता –
छोटी से गाड़ी गुडकती जाए
जिम संजाबाई बेठ्या जाए
घाघरो घमकाता जाए
चूड़लो चमकाता जाए
बाई जी की नथली झोला खाए…….
गीतों के क्रम में आखरी गीत होता था –
‘‘ संजा – तू थारे घरे जा कि थारी बाई
मारेगा के कूटेगा…….. डेली में डचोकेगा
चाँद गयो गुजरात…..वे हिरणी का
बड़ा-बड़ा दाँत……..
के छोरा-छोटी डरपेगा……..
और बस उसके बाद हम सब अपनी रंगबिरंगी फाकें मटकाती अपने-अपने घर लौट जाती.
संजा को लेकर आस्थाएँ प्रगाढ़ होती थी. उखड़ी हुई संजा को, पैर में नहीं आने देते थे. संजा के गीतों के कई शब्दों के अर्थ समझ नहीं आते थे, लेकिन भावनाएँ समझने को कहाँ शब्दों की आवश्यकता होती है ना……..!
लोक कला का ये पर्व संजा एक अलग ही सौंधी महक लिये आता था व सच्ची में बेटी की सी भावना लिये हम भावी माताओं का विदाई वाले दिन आँखें नम व हृदय भारी कर जाता था.
गाय का गोबर भले ही आज की कन्याओं को दूर से भी बदबू देता है, लेकिन उस दौर में हाथों में लपड़-चपड़ करते हुए भी गोबर गाय जितना ही पवित्र था. और वही पवित्रता बेटी यानि संजा बाई से भी जुड़ी रहती थी.
अब बेटियाँ ऊँची उड़ान भर रही है…… कार्य के प्रति समर्पित है…….. बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ संभाल रही है……… सो उनके पास वक्त नहीं…… पर संजा को याद कर माताएँ आज भी बेटियों की बाट जोहती है