July 11, 2025
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Revisit – हाथीखाना और भोपाल

शुचि कर्णिक- भारत का हृदय मध्य प्रदेश और भोपाल इसकी राजधानी

मेरा ह्रदय देवास और भोपाल मेरी ग्रीष्म कालीन राजधानी.मेरे लिए भोपाल यानी सपनों- सा सुंदर एक शहर,जो संयोग से मेरा ननिहाल भी है. कहा जाता है ताल तो भोपाल ताल बाकी सब तलैया.और ये सच भी है. बचपन में जब हम भोपाल जाया करते थे तब पहली बार इतनी जलराशि देख कर मम्मी से पूछा था कि क्या यह समंदर है, मम्मी ने हल्की सी हंसी के साथ बताया यह तालाब है. समंदर में तो लहरें होती हैं.

यह बचपन था और मन में था जिज्ञासाओं का समंदर, प्रश्नों की लहरें. पर उन तालाबों को जी भर कर देखने में आज भी उतना ही आनंद मिलता है. ख़ैर जहां अथाह जलराशि वाले तालाब हों, पूरे शहर में सघन हरियाली बिछी हो, इससे भी ज़्यादा दिलचस्प ये कि तालाबों की तरह असीमित ज्ञान के भंडार मेरे नानाजी वहां रहते हों. वो शहर प्यारा तो होगा ही.

उनसे मिलना यानी किसी किताब के पन्ने पलटना. हर पन्ना दिलचस्प.यूं भी बुजुर्गों के सानिध्य में हम ज़िन्दगी के कई सबक बिना कोशिश के ही सीख जाते हैं. नानाजी और इस घर से जुड़ी यादें भी एक कहानी की तरह ही हैं. लगभग हर बरस गर्मी की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए भोपाल जाना होता ही था. उम्र के दसवें साल से मेरी शादी के कुछ साल पहले तक लगभग हर साल भोपाल की एक यात्रा अनिवार्यतः होती ही थी.

दस बरस की उम्र से पहले की कोई स्पष्ट याद मेरे मस्तिष्क पटल पर नहीं है. भोपाल की यात्रा को लेकर मैं हमेशा उत्साहित रहा करती थी. हर बार ये सफर कुछ नये किस्से हमारे हिस्से में जोड़ता जाता था. देवास से भोपाल के रास्ते के बीच कई ऐसी चीजें थीं जो इस यात्रा को पूर्णता प्रदान करती थीं ,जैसे पापा सोनकच्छ में कचौरी खिलवाते. वहां से मावाबाटी भी खरीदी जाती. आष्टा पहुंचते पहुंचते अमरूद उदरस्थ किए जाते.ये सब मेंडेटरी होता था .और फिर आता सीहोर से भोपाल के रास्ते के बीच का वो हिस्सा जहां बांस के झुरमुट में कहीं मेरा दिल अटक कर रह जाता. बैरागढ़ में सभी दुकानों के बोर्ड और बैनर पढ़ते हुए गुज़रना भी एक शगल ही था. उस वक्त हम बचपन के उस दौर में थे जब मां बाप का कहा सर आंखों पर होता था.और ये जो रास्ते के दोनों तरफ़ की पट्टिकाएं हमसे पढ़वाई जातीं थीं उससे भाषा के ज्ञान के साथ ही मनोरंजन भी हो जाता और रास्ता भी कट जाता सो अलग.

इसके बाद लाल घाटी और मस्जिद के सामने से गुज़रते हुए शहर में प्रवेश करते.बाद के सालों में वीआईपी रोड से होकर गुज़रने लगे. शहर से गुज़रते हुए एम एल बी कॉलेज के रास्ते पर सीधे हाथ की तरफ मुड़ते ही आप हाथीखाना में प्रवेश कर जाते हैं. हाथीखाने में प्रवेश के लिए एक द्वार है. बीचों-बीच एक चबूतरे पर पीपल का घना और बड़ा पेड़ है जिसकी छांव में कई लोग गर्मियों में अपनी खटिया डाल कर सोने का आनंद उठाया करते थे. इस छोटी सी कॉलोनी (या मुहल्ला कह लें) में चारों तरफ मकान हैं जो सभी लगभग एक जैसे ही हैं. यहां घरों का आकार और कमरों में छत की ऊंचाई भी सामान्य से काफी ज़्यादा थी.कहा जाता है पहले यहां हाथी बांधे जाते थे. इसीलिए इसे हाथीखाना कहा जाता है.

इस घर का आर्कीटेक्चर एक अलग ही शैली का था. एक ही कतार में चार कमरे और उतना ही लम्बा कॉरिडोर. बाजू में छोटा-सा किचन और बागी़चे से लगा हुआ एक छोटा कमरा. काॅरिडोर और बागी़चे को अलग करती दीवार नुमा जाफरी. मैंने समय बीतने के साथ यह महसूस किया कि हर घर की अपनी एक तासीर होती है. कहीं कहीं हमें बहुत अच्छा महसूस होता है मन में बहुत सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होता है. इस घर की वाइब्स भी कुछ ऐसी ही थीं.
इस घर में सुबह से ही चहल पहल का माहौल रहता था. पंछियों का कलरव, नानी जी की पूजा, उनके मंत्रोच्चार और अगरबत्ती की खुशबू सब मिलकर वातावरण को बहुत ही दिव्य बना देते थे.वो और उनकी माताजी( मेरी परनानी)अल सुबह उठकर स्नान ध्यान के बाद तानपुरे पर रियाज़ किया करतीं. किसी दिन किस्मत से मैं जल्दी सोकर उठी होती तो इन स्वरों में खो जाती.वो पूजा पाठ के बाद ही रसोई का रुख़ करतीं.और बहुत ही स्वादिष्ट भोजन बनाती थीं.मैं हमेशा से उनके सुस्वादु भोजन,क्रिस्टल क्लियर आवाज़ और भाषा शैली की मुरीद रही हूं. उनकी पूजा के बाद मन्दिर इतना चैतन्य लगता मानो सच में भगवान वहां बिराजे हैं. इस घर के दालान में एक छोटा झूला था. जैसे निवार वाली खटिया उन दिनों अक्सर हर घर में हुआ करती थी,बस उसी को झूला बनाकर टांग दिया था. सुबह के दूध से लेकर शाम के भोजन तक सब कुछ इसी झूले पर बैठ कर ग्रहण करने की कोशिश रहती.पर मम्मी डांटती और कहतीं चलकर चुपचाप रसोई में बैठ कर सबके साथ खाना खाया करो. नाना जी के कमरे के सामने होने से कभी कभी वे भी झूले पर आकर बैठ जाते थे.फिर धीमे धीमे झूला चलता और दुनिया भर की बातें होतीं.वो हर विषय पर साधिकार और रोचक अंदाज में बात करते थे.वे पत्रकार थे इसलिए अखबारों और पत्रिकाओं से अलमारियां भरी रहती थीं. तब मुझे पढ़ने का शौक ज्यादा नहीं था पर अपनी चित्रकारी और पेंटिंग्स के लिए कुछ रंग-बिरंगे चित्र साप्ताहिक हिंदुस्तान में से काट लिया करती थी. इसके लिए बाकायदा नानाजी से इजाज़त ली जाती थी. उनके कमरे की खिड़की की मुंडेर काफी चौड़ी थी जिस पर दो लोग आराम से बैठ सकते थे. मैं अक्सर वहां बैठकर घर के पीछे रहने वाले हमारे पड़ोसी के घर में चलने वाली गतिविधियों को ध्यान से देखा करती थी. उनके घर के बाहर मैदान में मुर्गी के चूजे दाना चुगते रहते थे.

इसी घर के बगल से एमएलबी कॉलेज का रास्ता गुजरता था. कॉलेज तालाब के किनारे थोड़ी ढलान पर स्थित था. हमारे घर से लगभग 25 -30 फीट नीचे यह कॉलेज था . हालांकि नाना जी के कमरे की खिड़की से तालाब बहुत आसानी से दिखाई देता था. इस बड़े से घर का बाग़ीचा भी बहुत बड़ा था जिसमें लंगड़ा आम के दो पेड़ थे.इसी वजह से आंगन में काले बड़े चींटे घूमते रहते थे.एक दिन एक बड़े से चींटे ने पैर का अंगूठा बुरी तरह से जकड़ लिया. लाख कोशिश के बाद भी अंगूठे से उसकी पकड़ नहीं छुटी. हालांकि उसकी गर्दन और धड़ अलग हो गये. एक बार अपने लहूलुहान पैर को और फिर चींटे को देख कर सिहरन सी हुई पर अगले दिन सब सामान्य हो गया, यही बचपन है. मुझे इस घर से इतना लगाव था कि मैं अपनी सहेलियों और कजिन्स को भी अपने साथ भोपाल लेकर जाया करती थी. उस दौर में मोबाइल फोन्स का प्रचलन शुरू नहीं हुआ था इसलिए वो दृश्य और घटनाएं सिर्फ सुनहरी यादों के रुप में मन के किसी कोमल से कोने में महफूज हैं. अब नाना नानी तो नहीं रहे पर मेरी यादों की किताब में आज भी इसी घर की तस्वीर चस्पां है.
अभी पिक्चर बाकी है दोस्तों….. अगली किस्त का इंतजार कीजिए…