ताना-बाना रिश्तों का
– शुचि कर्णिक (स्वतंत्र पत्रकार/ब्लाॅगर)
-अगर कोई कहे कि अब रिश्तों में वो गर्माहट नहीं रही,
या कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या,
तो क्या आप सहमत होंगे?
किसी हद तक सच भी है,
पर ये तथ्य स्वीकारना भी ज़रूरी है कि समय के साथ बदलाव आते हैं.
हर रिश्ते में कुछ न कुछ घटा है…. शायद भरोसा
और कुछ बढ़ा है….. शायद उम्मीदें.
किन्तु कुछ ऐसे नाते भी होते हैं जिन पर आंख मूंद कर विश्वास किया जा सकता है.
क्योंकि इनमें आपसी स्वार्थ नहीं टकराते.ये निस्वार्थ संबंध अब कम ही बचे हैं.
लेकिन मेरा ये सौभाग्य है कि मुझे ईश्वर प्रदत्त जो भी रिश्ते मिले बेहतरीन ही मिले.
मां और पिताजी के बाद भाई का रिश्ता ही एकमात्र ऐसा नाता है जिसमें अपनापन, भरोसा और नोंक-झोंक सही अनुपात में हो तो जीवन में आंनद बना रहता है.
ख़ैर, ये बातें आज अचानक ही क्यों करने लगी मैं.
रक्षाबंधन का त्योहार आसपास ही है. कुछ ही दिनों में बाज़ार रंग-बिरंगे रक्षा सूत्रों से सज जाएगा.
दुकानों में मिठाई की आमद और सजावट बढ़ जाएगी.पर इस मिठास के साथ आज कुछ ऐसी बातें भी कर ही ली जाएं जो शायद फीकी लगें या सपाट हों पर काफी समय से मेरे मन में ये बात खटकती आ रही है. सोचा कभी कभी कुछ बातें अभिव्यक्त हो जाना चाहिए.
दरअसल इस नेह सूत्र से बंधे रिश्ते में आपसी स्नेह बहुत ज़रूरी है. इसमें औपचारिकता की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए.
उपहार देना जरूरी नहीं,
रक्षा का वचन भी ज़रूरी नहीं,
पर कई बार बिना वचन दिए भी बहुत कुछ किया जा सकता है.
भावना ही महत्वपूर्ण है.एक बड़े भाई के नाते मेरे भाई ने मुझे हमेशा ही कुछ ना कुछ दिया है.
चाहे वह भरोसा हो, सहारा हो, सलाह हो या साथ हो.
एक भाई अपनी बहन को पूरी जिंदगी सिर्फ उपहार ही नहीं देता बल्कि ऐसी कई चीजे हैं जो उपहार से भी बढ़कर हैं.
जैसे मेरे भाई ने अपने छोटे से खजाने में से एक पीतल की बिल्ली मुझे सिर्फ इसलिए निकाल कर दे दी थी कि मैं उनकी शिकायत पापा से ना करूं. या वह छोटी सी शरारत जो उन्होंने हम बच्चों के साथ की. शायद पांच-छः साल के रहे होंगे हम . हम कुछ लड़कियां रोटा भाजी खेल रहे थे. किचन में खाना बनाकर छोटे-छोटे बर्तनों में रखकर उन्हें अलमारी में सजा देते थे. थोड़ी देर बाद खाना गायब हो जाता था. पता चला कि भाई साहब आए और सब कुछ खा गए .थोड़ा रोना पीटना जरूर मचता था पर फिर से हम एक हो जाया करते. यह बातें छोटी जरूर थी पर इनमें नसीहतें और आनंद दोनों मिल जाते थे.
स्कूली दिनों में जब भाईसाहब कभी भाऊ का हॉटडॉग चोरी छिपे घर पर लाते थे तब पापा के आने से पहले ही इसके नामोनिशान मिटाने का काम करना होता था.तब भी कभी पकड़ में आ गए तो भाई ने ही पैरवी कर के बचाव किया.
जीवन में पहली और शायद आखरी बार रिश्वत अगर दी है तो वह अपने भाई को. सिर्फ इस बात के लिए कि जब शाम को पापा ऑफिस से घर लौटेंगे तब उन्हें मत बताना कि हमारे आपसी झगड़े में आपको चोट लगी है वरना पापा मेरी पिटाई कर देंगे. रिश्वत की रकम थी शायद 100 रू. और यह उस ज़माने के हिसाब से बहुत बड़ी रकम थी.
यह तो हुई बचपन की बातें बड़े होने पर भी जब मेरे लिए कोई रिश्ता आता तो उसका पूरा एनालिसिस भाई साहब ही करते.
घर में जब मेरे कमरे में चोर घुस आया था तब उसके पीछे नंगे पैर दौड़ने वाले मेरे भाई साहब ही थे.

ऐसे कितने ही अवसर रहे जब मेरे भाई ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मेरी तन मन धन से सहायता की.
जब छोटे थे तब समझ नहीं पाते थे पर जैसे जैसे बढ़ते गए ये समझ आया कि घर में चाहे हम एक दूसरे से दिन भर झगड़ते रहें पर घर के बाहर मजाल है कोई मुझे कुछ कह दे.
मेरी नौकरी लगने पर पहला दोपहिया वाहन और मेरा पहला मोबाइल फोन दोनों ही मेरे भाई ने दिलवाए थे.
कुछ परिवारों में भाई के साथ भाभी को भी राखी बांधी जाती है यह अच्छी परंपरा है. मैंने कभी भाभी को राखी तो नहीं बांधी पर उन्होंने मुझे हर संभव सहयोग हमेशा दिया.
जब मेरी जुड़वां बेटियां पैदा हुईं तब मेरे अकेले के बस में था ही नहीं कि दोनों बेटियों को संभाल पाती.
जुड़वां बच्चों को बड़ा करना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. मेरे मम्मी -पापा भाई- भाभी और मैं हम सबने मिलकर इस चुनौती को टीम वर्क की तरह किया.
एक बच्ची को पूरी तरह से भाभी ने ही संभाला. यहां तक कि मैं निश्चिंत रहती कि दूसरी बच्ची पर ही फोकस करना है.
इस दौरान मायके में सभी ने तन मन और धन से जितना संभव रहा सब किया. पर कभी जताया नहीं. ख़ास तौर पर भाई ने घर और बाहर के बीच पूरा संतुलन बनाए रखते हुए सब संभाला.
इस बात को मैं कभी भूल नहीं सकती.
मेरे भाई अब तक मेरे लिए इतना कुछ कर चुके हैं कि अब उनसे किसी तरह का उपहार लेना मुझे ठीक नहीं लगता.
बहन भी तो भाई को भेंटस्वरूप कुछ दे सकती है,वो जरूरी नहीं कि कोई वस्तु या धन हो.
सम्मान प्रेम और रिश्तों में ईमानदारी भी आज के युग में किसी उपहार से कम नहीं.
उन्होंने जो कुछ किया है उपहार से बढ़कर है.
ये मुझसे जुड़ी बातें हैं पर हर बहन के अनुभव इसी तरह होंगे.
हर बहन इन बातों से अपना जुड़ाव महसूस कर सकेगी.
बल्कि इस राखी पर मुझे लगता है कि एक अलग किस्म की परम्परा शुरू होना चाहिए. जैसे एक विज्ञापन की टैगलाइन है ना,
Why should boys have all the fun??
बस उसी तर्ज पर राखी के त्योहार पर सिर्फ भाई ही क्यों उपहार दें. बहनें भी चाहें तो बहुत कुछ दे सकती हैं.