किसी के जैसा होने की जरुरत ही क्यों है
डॉ.छाया मंगल मिश्र (शिक्षाविद, लेखक)
मुझे हमेशा से ही ऐसे लोगों की नीयत पर शक होने लगता है जो सीधे सीधे रिश्तों के अस्तित्व से खिलवाड़ करते हैं. खास कर बहू-बेटी के मामले में. जैसे-हमारी बेटी बिलकुल बेटे की कमी महसूस नहीं होने देती. अरे बेटा है वो तो हमारा बेटा. बेटे को भी मात करती है. ‘हमारी छोरियां छोरों से कम है के?’
बात यहीं ख़त्म नहीं होती, आगे भी देखिये ‘हम बहू को बेटी जैसे रखेंगे’ हमें तो बहू के रूप में बेटी मिल गयी है. हमारे लिए बहू-बेटी एक ही हैं. हम दोनों में कोई अंतर नहीं समझते/रखते.
उन्हे किसी के “जैसा” होने की जरूरत नहीं है जब हम किसी के जैसा होना चाहते हैं तो अपने अस्तित्व पर ही प्रहार कर देते हैं बेटी बेटे जैसी, बहू बेटी जैसी होनी चाहिए, यह वाक्य बेटी,बहू की पहचान पर प्रश्न उठाता है, क्या बेटी,बहू होने मे अपनी कोई खासियत नहीं है जो बेटे/बेटी जैसा होने का प्रमाण चाहिए? बहू/बेटी होना क्या इतना बुरा है? बेटी को बेटे जैसे के बाद फिर इन्हें बहू बेटी के रूप में चाहिए.
कितना हास्यास्पद है न ये सब खेल. कई घरों में बेटियों को बेटे मान कर परवरिश करने वाले तो उस नन्हीं सी बच्ची पर ऐसी लड़का होने की छाप लगा देते हैं की उसकी बोल-चाल, रहन-सहन सभी कुछ प्रभावित हो जाता है. सत्यता से दूर एक छद्म वातावरण में उसे जीने की आदत हो जाती है. प्राकृतिक जीवन के आनंद से वंचित उसका जीवन “जैसे” को जीने को मजबूर होता है. बेटी को सच्चा जीवन दें, वे घर की शक्ति स्वरूप हैं. यदि ऐसा नहीं है तो इसका मतलब बेटी को बेटी जैसे बहू को बहू जैसा प्यार या तो होता ही नहीं या फिर देने लायक नहीं होता. बहू बहू होती है और बेटी बेटी इनकी तुलना करना बेबुनियाद है. बेटी घर मे जन्म लेती है, बहू पराए घर से आती है, अपना बचपन कहीं पीछे छोड़ आती है, वो बेटी जैसी कैसे हो सकती है?
हमारे धर्म में भी बहू बेटे लक्ष्मी-नारायण का रूप मने जाते है. दूसरे- यदि आप उसे बेटी के रूप में देख रहे तो वो तो आपके बेटे की भी बहिन हुई न? हमारे यहां तो ऐसे सम्बन्ध वर्जित हैं. और क्यों हो वो बेटी जैसी? बहुत हैरत होती है जब लोग अचानक रिश्तों के मायने बदल उनकी गंभीरता को तोड़ने-मरोड़ने लगते हैं. उन्हें नहीं होना किसी के जैसा, वे जैसी भी हैं स्वयं मे ही सम्पूर्ण हैं. अगर हो सके तो उनके बुरे वक्त मे साथ खड़े रहें, उनकी स्वाभाविक गुणों/कमजोरियों को सहर्ष स्वीकारें, कोसें नहीं, उनके मातृत्व पर सवाल मत खड़े करो, बेटी को बेटी, बहू को बहू के हिस्से का प्यार देना, सम्मान देना. यदि ऐसा नहीं है तो हम कहीं न कहीं अपनी कुंठाओं की विकृति को पाल रहे हैं जिन्हें रिश्तों के झूठ से पल्लवित करते जा रहे हैं.