July 18, 2025
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Chanderi कपड़े का ताना बाना और धागे धागे का हिसाब

चंदेरी के बुनकरों ने जो विरासत संजोई और आगे बढ़ाई

डॉ.शिवा श्रीवास्तव

हैंडलूम पार्क के एक हिस्से में घुसते ही बाहर रखे दो गांधी चरखे, रंग बिरंगे बारीक ढेर सारे धागे, धागों के गुम सिरे, अड्डे पर लयबद्ध, बुनकरों के चलते हुए पैर, उनकी एकाग्रता और क्रमवार धागों को चुनने का हुनर, दंग कर देने वाला था. हाथ से तैयार किया गया कपड़ा, उसकी महीन बुनावट, तिस पर उसमें अलग अलग तरह की आकृतियां किसी साधना से कम नहीं. जिन अड्डों पर बुनाई हो रही है वे पांचवीं पीढ़ी तक पहुंच गये हैं. अब इनमें डिजाइन सेट करनी होती है, तब देखने से लगता है कि कैसे बना पा रहे हैं ये सब? इससे पहले की पीढ़ियों में यह सुविधा नहीं थी, पहली पीढ़ी में तो कल्पना भी नहीं की होगी . तब यह काम कैसे संभव‌ हुआ होगा, सोचकर ही हैरान हूं.

बुनकरों की भी पीढ़ियां काम कर रही हैं, उन्होंने अपने पुरखों की परंपरा जीवित रखने में विश्वास जताया है. चार अलग अलग बुनकरों से बात हुई. हालांकि उनको, काम रोककर बात करना मुश्किल सा हो रहा था. फिर भी थोड़ी थोड़ी बात से पता लगा कि दिनभर काम करते हैं, तब जाकर थोड़ा सा काम दिखता है. और काम पूरा होने पर ही उनके दाम निश्चित हो पाते हैं. वहां बरबस ही मुझे सुप्रसिद्ध समाजवादी श्री विजयदेवनारायण साही याद हो उठे. जिन्होंने कालीन बुनकरों की खूब लड़ाईयां लड़ी. विशेष रुप से महिला कालीन बुनकरों की.

चंदेरी और ताना-बाना एक दूसरे के पूरक हैं. यूं चंदेरी का इतिहास बहुत से राजवंशों की उठा-पटक का साक्षी रहा है, किंतु उसने बुनना कभी बंद नहीं किया. वहां धर्म भी धागों के ताने-बाने में कसा हुआ मिला. बताते हैं कि दोनों धर्मों की बराबर संख्या हैं. चंदेरी में अपराध अभी तक न के बराबर है, बल्कि कहना चाहिए शून्य है. चंदेरी कपड़े की खास बात यह है कि इसका धागा माइक्रो मोटाई का होता है, बहुत ही बारीक. डिजाइन डालने के लिए उपयोग किये जाने वाले रंगीन धागों को पानी के कटोरों में डुबा के रखते हैं, जिससे कि धागा गर्मी पाकर चटकने न लगे. बताते हैं कि पहले इसमें सोने और चांदी के तारों का उपयोग किया जाता था. उपयोग के बाद कपड़े को जलाकर सोने चांदी को रख लेते थे. शताब्दियों पूर्व कश्मीर की महारानी इसे अपने गालों पर छुआ के इसके मुलायम और महीन होने का जायज़ा लेती थी. पंद्रहवीं , सोलहवीं शताब्दी के आसपास एक साड़ी की कीमत करीब 800 रुपये थी, जो अब शायद करोड़ों में हो. अर्थात यह सिर्फ कपड़ा नहीं बल्कि विरासत हुआ करता था. जिससे संपन्नता आंकी जाती थी. आज भी चंदेरी साड़ियों का अलग ही स्थान है.

उस दिन कबीर जयंती थी, अच्छा लगा कि कबीर को याद किया जा रहा था,एक बड़ा जुलूस जिसमें कबीर की वाणी गाई जा रही थी, स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी थे. एक किस्सा जो वहां सुनने को मिला कि फिल्मी दुनिया के सर्वोच्च कलाकार वहां पहुंचे और इस उम्मीद से कि लोग टूट पड़ेंगे उनपर. पर‌ वहां उन्हें न पहिंचाने जाने पर बहुत निराशा हुई. तब खुद ही उन्हें अपना परिचय देना पड़ा. वहां अक्सर घरों में बुनाई का काम ही होता है. लोग सुबह से शाम तक धागों के ताने बाने में सिर झुकाए व्यस्त रहते हैं. उन्हें कहां फुरसत कि किसी सितारे की ओर ताक सकें.

कबीर कह गए हैं –
पाहण पूजें हरि मिलें, तौ मैं पूजूं पहाड़
जासै तो चाकी भली, पीस खाय संसार….