July 18, 2025
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‘कॉपी-कैट’ कहीं आप भी तो नहीं??


डॉ.छाया मंगल मिश्र
-जब से उन्होंने होश सम्हाला वे हमेशा दूसरों से होड़ करने में रहीं. पता नहीं ये उनकी परवरिश का दोष था, पारिवारिक पृष्ठभूमि का असर या उनकी फितरत, कमतरी की कुंठा. घर-बाहर, नौकरी-साथी सभी की बराबरी करना उनकी आदत बनता चला गया. यही नहीं उन्हें चाल-ढ़ाल, पहरने-ओढने, सजने-संवरने में भी कॉपी करने की आदत होने लगी. जूनून इस हद तक बढ़ा कि आदत कब जलन और द्वेष में बदल गई वे जान ही न सकीं. उन्हें सबके जैसा होना है बस खुद के लिए खुद के जैसे हो कर जीने का कोई समय या मौका नहीं.

बचपन तो ठीक है. स्कूल,कॉलेज टाइम भी चलेगा पर जैसे जैसे उम्र बढ़ती रही हर सफल औरत उनकी टारगेट हो जाती. सबसे पहले तो उसे चरित्रहीन घोषित करतीं. फिर उसके परिवार की बदनामी करतीं. फिर मनगढ़ंत कहानियां बना कर अपने मन का मैला बाहर फैलातीं. उन्हें सबके बारे में सब कुछ पता होता है बस खुद से ही अनजान रहती हैं. कभी खुद को शिक्षाविद्, कभी समाजसेविका, कभी लेखिका, मोटीवेशनल स्पीकर, पर्यावरण विद, विषय विशेषज्ञ, नेत्री, प्रोफेसर, प्रिंसिपल, डॉक्टर, कवियित्री आदि सब, सब कुछ हो जाना है. जो भी कोई महिला यदि इन्हें कहीं अतिथि, निर्णायक, वक्ता या मंच पर दिखीं इन्हें भी अब अगली बार वहीं जाना है इसके लिए वे कुछ भी कर लेंगी. नामी-गिरामियों के साथ फोटो उतरवाने हैं, उनका महिमामंडन कर स्तुति लिखनी है, झांकी जमानी है.

आयोजकों का फोन कर कर के जीना हराम किये देतीं हैं. उन्हें हर अवार्ड चाहिये, पेपर में रोज फोटो और छपास चाहिए, हर मंच पर उन्हें चढ़ना है, हर सम्मान उन्हें लेना है. हद तो तब हो गई जब उनकी एक पुरानी साथी को सभी छात्र-छात्राएं मां संबोधित करते तो उन्हें भी वही चाहिए. सो वे अपने मजबूर मातहतों को खुद अपने बारे में लिख कर पोस्ट करने को कहतीं. बराबरी का रोग जो इतना बढ़ चुका. वे इतनी समझदार बनतीं हैं तो ये क्यों नहीं जान पातीं कि दूसरों की कॉपी सिर्फ उतनी ही करनी चाहिए जितनी शोभा दे. चरित्र निखारे. उन्हें कौन बताये कि कॉपी करने के चक्कर में वे अपनी शक्लो सूरत भी खोए जा रहीं. नकल में वे ओमानंद हो चलीं हैं. बिना बात के बेमेल झेले-झुमके, हार-मालाओं, बिखरे बालों में किसी तांत्रिक सी दिखने लगतीं हैं.

ऐसे लोग ये क्यों नहीं समझते की ईश्वर ने सभी को कुछ अनोखा बनाया है. अपने जैसे जीने के लिए. नकलची जीवन के लिए नहीं. अपनी चमक खुद के गुणों से ही बनती है. खुद को जानें पहचाने और दूसरों को स्वीकारें अपने को संवारें. प्रतियोगी नहीं सहयोगी बन के जीने में आनंद है क्योंकि कोई भी कभी भी सबकुछ नहीं हो सकता. वरना इसके पहले कि ये आदत हवस में बदले, पहचान ही न खो जाए कहीं, इतने चेहरे न बदलें थोड़ी सी शोहरत के लिए…