सावधान! क्या आप भी बेटी के ससुराल में जमे हुए हैं??
चाय से केतली ज्यादा गरम…
डॉ.छाया मंगल मिश्र
-जब से देश में लड़कियों/महिलाओं के सुरक्षा /अधिकारों के कानून बने हैं कइयों के जीवन संवरे और बर्बाद हुए. कानून बनाने वाले भी हम पालने वाले भी हम और उल्लंघन करने वाले भी. सबसे ज्यादा फर्क पड़ा युवापीढ़ी को. उनके दाम्पत्य को. लगातार अलगाव के मामले बढ़ते जा रहे हैं. इंदौर की फैमिली कोर्ट में फिलहाल लगभग 8400 केस पेंडिंग हैं. इनमें से करीब 5500 केस तलाक के हैं. इनमें से 3000 से ज्यादा ऐसे हैं जिनमें शादी के बाद महज 2 दिन से लेकर एक साल के भीतर ही अलगाव हो गया था.
नए केसों में करीब 40 फीसदी इसी श्रेणी के हैं. सहनशीलता की कमी, अविश्वास, इगो के साथ मोबाइल व सोशल मीडिया और अवांछित पारिवारिक हस्तक्षेप भी बड़ी वजह है. हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार शादी भले ही दो दिन चली हो, केस एक साल बाद ही लगाया जा सकता है.
आजकल बेटे का ब्याह गुनाह हो जाता है. लाड़प्यार से पली बढ़ी बेटियां आँखों का तारा हो जातीं हैं. इसमें कोई गलत नहीं हैं. आत्म निर्भर करना भी बढ़िया है. पर उनकी जिंदगी में परछाई बन के डोलना और ससुराल वालों की छाती पर मूंग दलना कहां का न्याय है? एक समय रहा जब बेटी के घर का पानी हराम था. समय बदला तो दाना-पानी, घर-बार, जीवन-मरण कहीं कोई निजता नहीं छूटती.
पूरे समय बेटी के घर में उसके सास-ससुर, भरा पूरा परिवार होते हुए भी बार बार उनके घर में डेरा डाल के पड़े रहने का क्या कोई तुक बनता है. हां यदि परिस्थितियां प्रतिकूल हों, अनिवार्यता हो, इकलौती संतान हो, कोई आगा पीछा न हो तो हक़ और दायित्व दोनों बनते हैं. पर बार बार हमेशा तो उचित नहीं. किसी के घर अकारण बहू की मां जमी हुई है, कहीं पिताजी रुक गए, भाई बहन तो रिफ्रेशमेंट सेंटर बना लेते हैं.

मैंने कई ऐसे लोगों को देखा है जो खुद के घर के बहू बेटों को उनके हाल पर छोड़ कर अपनी बेटियों के यहां पड़े रहते हैं. और यदि बेटी का ससुराल पक्ष संपन्न है तो फिर देखो आप इनका जलवा, पूरे घर पर इनका राज होना चाहिए. ये महारानी इनकी बेटी रानी. खुद के घर में बेटी भले ही दिन में सत्तर बार ठीकरे घिसती रही हो जूते खाती हो. ये सब खुद उसकी खूब लानत-मलानत करते रहे हों पर ससुराल में नौकर चाकर चाहिए. प्रॉपर्टी, जंवाई इनकी मुट्ठी में होना. खुद के घर में बंटाढार हो रखा हो कोई फर्क नहीं पड़ता पर बेटी के घर की राजनीति में कोई कसर नहीं रहने पाए.
बेटी चाहे तो भी कुछ कह नहीं पाती. बेटी को उसकी सम्पन्नता का ताना दे कर कोसती. अपनी गरीबी को ट्रम्प कार्ड बनाते. बेचारी चुप, उसके कारण जंवाई भी मन मसोस कर रहता. क्योंकि सबको इज्जत प्यारी होती है, कानून जो अधिकारों की सुरक्षा का था जान का दुश्मन हो गया.
ये परजीवी पहले से ही प्लानिंग किये होते हैं. यदि बेटी कमाऊ है तो उसके पैसे तो इनके हैं ही, जंवाई के पैसों से भी इन्हें ऐश करना है. बेटी को सक्षम भले ही ससुराल वालों की मेहनत ने बनाया हो पर उन्हें उस पर डाका डालना है. यही नहीं घर के सारे सदस्यों के जीवन में इनको लगाई बुझाई करने का शौक. बेटियों को उल्टी पट्टी पढाने का हुनर इन्हें खूब आता है. अच्छा तो यह है कि सभी इस भागती दौड़ती जिंदगी और आपाधापी भरी दुनिया में अपने बेटों और बेटियों को जिम्मेदार, परिवार जोड़ने का महत्व, स्वविवेक से परिवार चलाने का मौका दें. बिना बात हस्तक्षेप और अवांछित दखलंदाजी से बचें.
आप अपनी जिंदगी के अनुभवों से उन्हें परामर्श मांगने पर दें, साक्षर बनाने के साथ शिक्षित भी करें. पर अपने काले कारनामों की गोटियों से इन बच्चों की जिंदगी को शतरंज न बनाएं…हंसी ख़ुशी के राजा रानी से शह-मात का खेल महंगा साबित होगा.
