मचान : नटखट बचपन की जगमग यादें
-छुटके बचपन, बड़की यादें…
टांड पर जमा बचपन, याद आता है हर पल
-डॉ. छाया मंगल मिश्र (लेखिका जानी मानी शिक्षाविद हैं)
-बात जब की है जब मकान नहीं घर हुआ करते थे. छोटे या बड़े आकार ज्यादा मायने नहीं रखते थे. वहां हुआ करते थे ‘मचान’.जो बाद में पक्के मकानों में दीवारों के ऊपर छतों से नीचे की तरफ बनाये जाते हैं. मचान/टांड घर के सामानों को रखने के काम आते हैं. पर बात यहां हमारे घर के मचान की.
कच्चा होने के बावजूद दो मंजिला मकान जिसे हमने घर बना दिया. बीच से छत का हिस्सा ऊंचा और फिर ढलवां था. हम बाई बाबूजी सहित दो भाई चार बहनें और रिश्ते के भाई बहनों का आना जाना लगातार रहता. कमरे केवल दो, रसोई एक, दूसरा कमरा. बस. एक गेलरी, पीछे पतरे पर एक मोहरी, रसोई में एक छोटी सी मोहरी. बाथरूम नाम की चीज से कोई पहचान नहीं. शौकीन बड़े भाई ने उस पतरे पर भी बगिया सजा रखी थी. बेहद खूबसूरत. मिर्च,, नींबू,पोदीने के साथ कई प्रजाति के गुलाब. पहले लोग सृजनात्मक और मितव्ययता के साथ साथ सदुपयोगी हुआ करते.
सदस्य ज्यादा, सामान भी बढ़ता. मौसम के हिसाब से अवेरना रखना पड़ता. बस घर में मचान बांध दिया गया. छत को बांट दिया बीच से. बांस बल्ली को मजबूती से जोड़ा, बढ़िया प्लास्टिक संटीयों की बिछ्त करी और घर के ट्रंक, कोठियां, पेटियां, बिस्तर, डब्बे और ऐसे ही अन्य कई सामान मचान पर रखे रहते.
लकड़ी के बक्से में बोनचाइना का क्रीम कलर बेस पर काले ज़िक्ज़ेक लाइनों से बनी चोकड़ी का फुल डिनर सेट होना हमें खूब अमीर होने का अहसास कराता. ये बात अलग है कि टूटने के डर से घरेलू इस्तेमाल कभी न हो पाया. बाई की मधुर यादों भरा कांसे पीतल ताम्बे का दहेज़ का सामान जो नानाजी ने दिया के साथ भाइयों के रेनकोट स्वेटर, गोदड़ी, गाड़ी, रजाई, छाते बर्तन सब उस टांड पर आराम से रहते. छोटे/बड़े हुए कपड़ों को इस आस में कि कभी काम आयेंगे टांड पर भर देते.
अब हमारे यहां एक निसर्नी(सीढ़ी) हुआ करती थी. टांड पर चढ़ने. केवल तीन आड़े डंडे बंधे थे रस्सी से. टेढ़े मेढ़े. जैसे तैसे संतुलन बना के आप उप्पर आठ फीट ऊंची मचान पर छलांग मार कर बंदर जैसे चढ़ जाओ. घुसने की जगह भी लगभग चार / तीन फुट रहती. घर कच्ची जुड़ाई का था सो उसमें ‘खड्डे’भी थे. ‘गड्ढे’नहीं. उनमें पैर जमा कर उछाल मारते और मचान में घुस जाते’एक बल्ब तार के सहारे लटकाया हुआ था. सबसे ऊंचे पाट से उसे जिधर उजाला देखना हो हाथ से पकड़ो और घुमा दो. वो जो निसर्नी थी वो घर के पीछे के हिस्से में टंगी रहती; आड़ी. उस पर कपड़े सुखा दिए जाते. उसे निकालने में बड़ा आलस आता. ऐसे में घर के छोटे सदस्य बड़े काम आते.

होता ये कि हमारे बड़े भैया की लम्बाई शानदार रही. पर्सनाल्टी भी शानदार. पहले बिना जिम जाए घरों के सभी सदस्य मेहनती होने से ताकतवर हुआ करते. सारे काम हाथों से किया करते. चाहे वो कारीगरी का हो, मिस्त्री का या बिजली का प्लंबर का. हर तरह का काम सभी सदस्य अपनी योग्यता कुशलता के अनुसार किया करते. यहां भी निसर्नी उतारने रखने के आलस से बड़े भैया की ताकत काम आती. हम दो बहने जो छोटी थीं उनको वो अपनी हथेली पर खड़े कर के एक हाथ से कमर से उठा कर सीधे ऊपर उठा देते जहां मचान का अंदर जाने का रास्ता था. सर्कस की तरह हवा में. हम लपक कर टांड के कोर पर लटक के खड्डों में पैर जमा कर टांड में अंदर घुस जाते. मजा आ जाता.
वो टांड, वो सामान, वो टूटी निसर्नी, उससे भी बढ़ कर घर की सीमित साधनों में ‘अय्याशी’,कच्चे मकान के पक्के रिश्तों के जोड़ कैसे बड़े मकानों में गुम हो गए. बड़े होते गए भैय्या के हाथों की मजबूती जो हमारी पगतली में पूरी गर्मी के साथ अटूट विश्वास पैदा करती थी कि ये कभी हमें गिरने नहीं देंगे, समय ने कब खरोंच फेंकी मालूम न चला. छोटे से घर की बड़ी बड़ी यादें अब दिलों के अलबम में सजी हैं. जिसे केवल खुद ही देखते हैं…
शरीर उम्र की सीढ़ियां चढ़ता रहा हज़ार पर मन बचपन की देहरी कर ना पाया पार…
और बातें यादें बांटते चलेंगे…