June 21, 2025
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ये उन दिनों की बात है…

शुचि कर्णिक, स्वतंत्र पत्रकार, ब्लॉगर

किसी भी किस्से या कहानी में दो बातें ख़ास होती हैं, एक किरदार और दूसरी कहन.
किरदार मजे़दार हों तो कहन अपने आप आसान और दिलचस्प हो जाती है. ज़िन्दगी के हर दौर की अपनी तासीर होती है. कई किरदार और अनगिनत यादें.
हम चाहे उम्र के किसी भी पायदान पर हों जवान,प्रौढ़ या बूढ़े, पर जब भी दोस्ती की बात छिडे़ और बचपन का ज़िक्र हो तब स्कूली दिनों के दोस्त ही याद आते हैं. कॉलेज के दौरान दोस्ती अमूमन गहरी नहीं हो पाती.
बचपन के दोस्त चाहे लंबे समय तक ना मिलें पर उनमें संबंधों की ऊष्मा कायम रहती है. भला हो वाट्सअप और फेसबुक का, जिसने पुरानी दोस्तियों को फिर ज़िन्दा किया.
तो फिर चलिए इन यादों की टाइम मशीन के ज़रिए वक्त में कुछ पीछे की सैर करते हैं.
ये उन दिनों की बात है जब पढ़ने और खेलने के अलावा बचपन का कोई और अर्थ नहीं होता था. हमारी मंजिल तो रोज़ स्कूल ही होती थी, पर रास्ते की हर दिन एक नई कहानी. रास्ते भर मुआयना करते जाते. सबसे पहले वे बातें जो लगभग रोज ही पेश आती थीं;

सफेद साड़ी वाली वह दुबली पतली सी महिला जो अपने घर के बाहर सीढ़ियों पर लगभग रोज बैठी दिखती थी. छोटे शहरों में ज़्यादा कुछ करने को होता नहीं इसीलिए यह ओटला संस्कृति पनप जाती है.उसने मुझे कभी नुकसान नहीं पहुॅंचाया, फिर भी जाने क्यों उसकी भेदक आंखों से मुझे बहुत डर लगता था.

कई बार मेरे सपनों में वह औरत मेरा पीछा करने की कोशिश करती दिखाई देती थी. छोटे बच्चों को जब मां-बाप कहते हैं कि अजनबियों से ज्यादा घुलना मिलना नहीं है तब बच्चों के अवचेतन में ज़रूर कोई न कोई चेहरा रहता होगा. जैसे वह औरत मेरे मन में आज भी ज़िन्दा है, अलबत्ता डर अब नहीं लगता.

उसी रास्ते पर एक मानसिक रूप से विक्षिप्त आदमी अक्सर लोगों पर पत्थर फेंकता था. शैतान बच्चे उसे सताते और सैडिस्टिक प्लेज़र प्राप्त करते.रास्ते के उस हिस्से को हम बहुत सावधानी से पार करते थे. कई बार दो लड़ती हुई गायें अचानक ज़िन्दगी में आने वाली अनपेक्षित चुनौतियों की तरह सामने से आ जाती थीं. यूं गायों को सींग लड़ाते और बकरियों को भिट्टी मारते देखना रोमांचक होता था.पर जबसे गाय ने पेट में सींग घुसा दिया तबसे रोमांच गया भाड़ में. चोट तो नहीं लगी पर डर मन में गहरा बैठ गया था. आज भी गाय-भैंसों को देखकर दूर से ही अपना रास्ता बदल लेती हूं.

स्कूल पहुंचते ही प्रार्थना की औपचारिकता और क्लास रूम में प्रवेश. मेरी तरह मेरे कई सहपाठियों के मन मस्तिष्क में भी दर्ज होगा वो माहौल.

प्रिंसिपल के कैबिन से सटा होने की वजह से हम सभी बच्चों को बाक़ी क्लासों की तुलना में ज्यादा अनुशासित रहना होता था. शोर करना यानी मैडम के आते ही कुछ बच्चों को मुर्गा बन कर बाहर के कॉरीडोर को सुशोभित करना होता था. और मजे़ की बात कि बच्चों पर इस सज़ा का कोई गहरा असर होता दिखता नहीं था. बल्कि वे कुछ देर पढ़ाई से मुक्ति मिलने और बाहर के खुलेपन को इंजॉय करने की खुशियां मनाते पाए जाते थे. कभी कभी मेरी भी इच्छा होती कि काश मैं भी बाहर जा पाती.

जब भी क्लास में टीचर ना होती तब एक सहपाठी चॉक उठाकर ब्लैक बोर्ड पर हमेशा ड्राइंग करता, उसकी चित्रकारी का प्रमुख हीरो होती थी एक लूना, क्यों….. नहीं पता.

एक बंदा था जिसे हमारी मैडम कहती थीं “दिखने में हीरो, पढ़ने में ज़ीरो”वो बेचारा जुगल हंसराज से भी ज़्यादा मासूम चेहरे पर कुछ देर तक मुस्कान सजाये रहता.उसे समझ ही नहीं आता कि क्या प्रतिक्रिया दे. अब वो कहां है,नहीं पता.

एक और क्लासमेट थे जिन्होंने अपनी सहायक वाचन की कॉपी मुझे दी थी जो मैंने उन्हें परीक्षा आने तक नहीं लौटाई.उनकी सदाशयता कह लें या पढ़ाई के प्रति अनिच्छा जो उन्होंने मुझसे वो कॉपी कभी मांगी भी नहीं. शायद उन्हें ये सब याद भी न हो.

इम्तिहान के दौरान मैंने अपने एक सहपाठी को नकल करते हुए देखा उनका तरीका इतना अनोखा था कि अपनी एग्जा़म छोड़कर उनकी तरफ ध्यान से देखने लगी, जो शायद उन्हें नागवार गुज़रा. उन्होंने मोजों के आसपास काली पट्टी में फंसाई गई अपनी चिटों को देखना जारी रखा. एकबारगी लगा टीचर से कह दूं पर फिर सोचा अपने ही मोहल्ले का है, कौन पंगा ले.

स्कूल से संबंधित कोई भी किस्सा नाथ जी सर के ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं हो सकता. हल्का गुलाबी रंग का कुर्ता पायजामा और सब बच्चों को प्यार से राजा बेटा कहकर पुकारना बहुत अच्छा लगता. खास तौर पर इसलिए भी कि उनसे पहले लगभग सभी टीचरों की डांट हम खा चुके होते थे. नाथ जी सर हमें डांस और पीटी की प्रैक्टिस करवाते थे बच्चे प्यार से उन्हें नाज्जी सर ही कहते थे. स्काउट और गाइड वाले दुर्गाशंकर पंडित सर भी बच्चों के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे. उनके साथ शंकरगढ़ ट्रैक पर जाना और टिफिन में मम्मी के हाथ के परांठे और आलू की सब्जी का स्वाद कभी ना भूलने वाला अनुभव है.

स्कूल की बात हो और प्लेग्राउंड का ज़िक्र न हो तो दास्तां अधूरी होगी. ठंड के दिनों में अक्सर हम मैडमों से ग्राउंड में क्लास लेने की ज़िद करते, सभी बच्चों का संयुक्त आग्रह टाल नहीं पातीं टीचर्स. ठंड के दौरान जिस दिन अच्छी धूप निकलती तब किस्मत से कोई टीचर बच्चों से पूछती क्यों ना आज मैदान में बैठकर पढ़ाई की जाए तब बच्चे इतने खुश हो जाया करते लगता जैसे सब्जी मंडी लगी हो. फिर पढ़ाई कितनी होती ईश्वर ही जाने.

जो मैम हमें संस्कृत और इंग्लिश पढ़ाती थीं उनसे तो अक्सर खुले मैदान में क्लास लेने की ज़िद करते. इसका सीधा सा अर्थ होता कि हमारा पढ़ने का कोई मूड नहीं है. क्योंकि पीरियड का आधा समय तो कतार बनाकर जाने और आने में ही खर्च हो जाता. बचते सिर्फ दस मिनट,वह बच्चों का शोर बंद करने में ही लग जाते थे.गणित की मैम तो किसी भी हालत में बाहर नहीं जा सकतीं. और उनके सख़्त मिजाज़ को देखते हुए किसी भी विद्यार्थी में उतने दम गुर्दे नहीं थे जो उनसे यह रिक्वेस्ट कर पाता. क्योंकि लगभग सबने( खास तौर पर लड़कों ने) उनकी खड़ी स्केल का स्वाद चखा था.

आखिर में हमारे स्कूल की डायरेक्टर मैडम, मिसेस पटवर्धन की भव्य एंट्री का जिक्र करना भी जरूरी है. उन दिनों वह एक बग्घी में बैठकर स्कूल आती थीं. उनका रौबदार व्यक्तित्व, गोरा रंग और सब कुछ मुआयना करती आंखें एक अलग ही मंजर होता था.

उन दिनों गोरा और काला दो ही रंग जानते थे हम. उन्हें देखकर मुझे लगता कि ये विदेशी हैंऔर हम काले भारतीय. अपनी बग्घी से जब वह उतरतीं तो लगता जैसे क्वीन एलिजाबेथ हों. सभी उनकी अगवानी में तत्पर हो जाते, टीचर्स और स्टूडेंट्स, सारा स्टाफ यानी पूरे कैंपस में सख्त डिसिप्लिन नज़र आता.
जब मैम बगीचे का मुआयना करतीं हमारे माली बाबा उनके सामने विलोमअर्थी शब्द की तरह पूरा कॉन्ट्रास्ट क्रिएट करते. धूप में दिन भर बागवानी करते करते उनका रंग काला हो चुका था. रंग बिरंगे फूलों और हरी घास के लॉन के बीच वे एकदम अलग ही चमकते थे.कहते हैं आग में तपकर सोना कुंदन बन जाता है, पर हमारे माली बाबा धूप में तपकर कोयले की तरह काले हो चुके थे.
हम उनकी नज़र बचाकर कई बार गार्डन में प्रवेश करने की हिमाकत करते थे. उनकी केली और गुलतेवड़ी फूलों की बहार हमें बहुत ललचाती. कभी उनकी नज़र बचाकर दो तीन छोटे गुलतेवड़ी के फूल तोड़ भी लिया करते थे. बाकायदा ग्रुप बनाकर स्ट्रेटजी बनाते, चार पांच लड़कियों का ग्रुप इस चौर्य कार्य को संपादित करता. एक टीचर्स पर नजर रखने के लिए, दूसरी माली बाबा की गोलमटोल पत्नी को देखने के लिए तीसरी फूल तोड़ने वाली और चौथी फूलों को अपने पास संभालने वाली.वो सबको खतरे की चेतावनी देने और चौकन्ना रहने की हिदायत देती.

कोरोना के दौर में बच्चों का स्कूल एक दस बारह इंची स्क्रीन पर सिमटा देख मन यादों के गलियारों में भटकते भटकते खुद के स्कूली दिनों में पहुंच गया. जहां पढ़ाई के अलावा सब कुछ करना अच्छा लगता था. शायद कुछ और लोग भी मेरे विचारों से इतेफाक रखते हों.