April 19, 2025
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बहुत कठिन है औरत का ‘औरत’ बन जाना…

डॉ.छाया मंगल मिश्र
बात सिर्फ शहीद अंशुमन की पत्नी की नहीं है…
पिछले दिनों अंशुमन की पत्नी का सम्माननिधि व चक्र पर कब्जा कर लेने और पीहर चले जाने मामले पर हल्ला मचा था. ध्यान से सम्मान ग्रहण करते समय के सास-बहू के फोटो और वीडियो देखें तो वो भी बहुत कुछ कहते हैं. दूरियां, चेहरे के भाव, दूर से हाथ लगाना और एक दूसरे के पास खड़े होने बाद भी संवदनाओं और दुःख से कोसों दूर अनजान जबकि दोनों के दुःख की कोई भी भरपाई नहीं. ये सम्मान भी नहीं.
पर हम हैं की तुरंत अपनी राय बनाते हैं, जज बनते हैं, निर्णय लेते हैं, सोचे समझे बगैर सोशल मीडिया पर पहले मैं पहले मैं की कॉम्पिटिशन में ज्ञान उंडेलते रहते हैं. मुद्दा संवेदना और दुःख की साझेदारी का है. एक परिवार ने बेटे को खोया, एक ने दामाद. पर पत्नी की मासूमियत पर माता-पिता का दर्द कमजोर नजर आया. दिखावे की दुनिया ने दुःख को भी आवरण में नापना शुरू कर दिया. बेटी हितैषियों को पत्नी सही लगी, माता-पिता के लिए भी अपना पक्ष रखना जरुरी लगा. दुःख का कोई तराजू नहीं होता. पर ये चलन पुराना है कि कैसे भी करके लड़के के परिजनों को क्रूर सिद्ध किया जाये. भलेही वे सज्जन और सद्भावी हों. यदि केवल सास-बहू एक औरत बन दर्द को समझतीं साझा करतीं तो शायद शहादत की इतनी फजीती नहीं होती. सम्मान का इतना बखेड़ा नहीं होता.
शादी दो परिवारों का मेल है. दोनों के सुख-दुःख के साझेदारी की जिम्मेदारी. केवल दामाद या बेटी से सम्बन्ध रखने वाले लोग बेटी के ससुराल वालों का कभी निजी तो कभी सार्वजनिक रूप से अपमान करने का कोई मौका आजकल नहीं छोड़ते. कारण कोई भी हो सकते हैं. बेटियां भी पीहर वालों का भरपूर साथ देतीं हैं. मेरे कई परिचित हैं जिनके बेटों के ससुराल पक्ष में खासकर औरतें, बेटियों की सासु, ननदें, जेठानी देरानी का सरे आम गाहे बगाहे, प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष बेइज्जती करते देखती हूं वे बेचारे खून का घूंट पी कर रह जाते हैं क्योंकि वे इतने निचले स्तर पर गिर के नीचता नहीं कर सकते.
संपन्न होने के बावजूद वे घटिया से घटिया सामान तोहफे या रीति-रिवाज की वस्तुएं टिकाते हैं. सासु नन्द को बेकार कपडे. इस्तेमाल न की जा सकने वाले साजो सामान दिए जाते हैं. और वहीँ बेटी के लिए भव्य तैय्यारी होती है. केवल बेटी का राज हो. बाकी जितने ससुराल पक्ष की औरतें हैं वे बेटी के दुश्मन नजर आते हैं. कुछ बोलो तो वे गरीबी का रोना रोने लगते हैं बजट नहीं है हमारा का राग अलापते हैं जबकि वे लगातार जमीन, जेवरों, और मकान दुकान में धड़ल्ले से कंकू-कन्या ब्याहते ही ऐशो आराम पैसों की झड़ी लगातें है, दुनिया की सैर को निकल पड़ते हैं. और ये सब मैंने अधिकतर वहां देखा है जहां घर की मुख्तियार औरतें बनी बैठीं है. छल-कपट से सज्जित.
हम अपना औरतपना, उसकी खूबसूरती जो संवेदनशीलता से ही है, को रिश्तों के आडम्बर और गुरुर से खो बैठते हैं. रिश्ते समाज के बनाये हैं. उसको निभाने के उसूल भी. कहीं बेटी दुखी, कहीं बहु दुखी. बदलते समय और आधुनिकता ने इन्हें कड़वा किया है, रिश्तों के अर्थ बदलने लगे. स्वार्थ और अहंकार इन्हें निगल रहा. ऐसे समय जबकि एक-दूसरे का सहारा बनना चाहिए अलगाव कैसे मृतात्मा को शांति दे सकता है? ऐसा सम्मान जो शहीद और परिवार को शर्मिंदा करने का कारन बन जाये कैसे श्रद्धा उत्पन्न कर पायेगा? ऐसी कई बातें हैं जो समाज में अराजकता और वैमनस्यता को बढ़ावा दे रही है. औरतों को ही इसमें पहल करनी होगी परिवार की दुर्गति न हो. उसकी इज्जत, सम्मान को बनाये रखने में वे किसी भाई रिश्ते को निभाने के पूर्व केवल और केवल अपने अंदर की संवेदन शील औरत को जागृत कर एक दूसरे की भावनाओं को महसूस करना शुरू करदें तो समाज और परिवार की कई सारी समस्याओं का समाधान हो सकेगा. जानती हूं, बहुत कठिन तपस्या है…पर यदि श्राप मुक्ति के लिए गंगा चाहिए तो भागीरथी ताप भी करना ही होगा…

(लेखिका शिक्षाविद व समाजसेवी हैं)