हिंदी पत्रकारिता को नए आयाम देने वाले राजकुमार केसवानी
स्मरण आलेख- पत्रकारिता के हर पहलू पर हस्ताक्षर किए राजकुमार केसवानी ने
(प्रदत्त संकलन : डॉ. मिन्हाल हैदर, आलेखन – डॉ. सहबा जाफरी)
डिजिटल पत्रकारिता के इस दौर में भारतेन्दु युगीन मूल्य, निदा फ़ाज़ली वाली आला दर्जे की शब्द सभ्यता और इब्ने इन्शा वाली लेखन की तेहज़ीब अगर कहीं नज़र आती है तो वह है श्री राजकुमार केसवानी जी की पत्रकारिता वाले रंगों में. पत्रकारिता के गिरते स्तर, स्वार्थ की भावना और आत्म केन्द्रीकरण के मध्य केसवानी जी की पत्रकारिता जुनून भरी पत्रकारिता थी जिसमें सदैव कुछ अलग करने की चाह परिलक्षित होती है. पत्रकारिता के निष्पक्ष धर्म के रास्ते पर चलते चलते उन्होंने सदैव पूरा डूब कर कार्य किया, पगडंडियों को रास्ते की शक्ल दी पर दुर्भाग्य था कि सच के इस सफर में उनकी मुखालिफत अधिक हुई और मित्र कम बने किन्तु अपने पाठक वर्ग का मन जीत आप अपनी अनुपस्थिति के बावजूद भी उनके दिलों पर खुद को अंकित कर आकाशगंगा में विलीन हो गए.
राजकुमार केसवानी तेहज़ीब की उस ज़मीन की उपज थे जिसमें कभी अली सरदार जाफरी, कैफ भोपाली, जावेद अख्तर और बशीर बद्र साहब की पौध लहलहाई थी. इनका जन्म २६ नवम्बर १९५० में भोपाल के सुन्दर सुरम्य वातावरण में हुआ था. पत्रकारिता के तेवर उन्हें अपने पिता श्री लक्ष्मण राज केसवानी से विरासत में मिले थे जो पेशे से वकील किन्तु रुझान से पत्रकार थे. माँ श्रीमती कृष्णा केसवानी से धर्म और भाषा का मर्म संस्कारों में घुट्टी की तरह प्राप्त हुआ था जो अपने हिंदी संस्कारों में सिंध प्रांत की उर्दू की मिठास खुसरो की भाँति ही समेटे हुए थीं। पिता उर्दू , हिंदी और संस्कृत के ज्ञाता थे इसी से अपनी एकमात्र संतान को ” वासुदेव” नाम दिया था , तब क्या जानते थे कि जीवन रण में नीति निपुण यह अबोध पुत्र कभी पत्रकारिता के मैदान की महाभारत को अकेला लड़ेगा वह भी बिना किसी सुदर्शन चक्र के. सच भी है, अपनी सशक्त लेखनी और मीठी जुबान के दम पर आपने आधुनिक पत्रकारिता के मैदान को फतह कर लिया था वह भी बिल्कुल अकेले. भोपाल के सहज सुरम्य और साहित्यिक वातावरण ने शब्दों की तेहज़ीब तो जैसे विरासत में ही दे दी थी किन्तु सिंधी समाज के निर्मल मीरा हाई स्कूल की भाषा शिक्षिका का भी इसमें कम योगदान नहीं था. अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही वह साहित्य, सिनेमा और चलचित्रों की मीठी भाषा के मोहक वाकजाल में अक्सर उलझे रहते थे. अभिनेता राजकुमार के प्रति उनकी दीवानगी का आलम कुछ ऐसा था कि अपने करियर के आरम्भिक दिनों में ही स्वयं का नाम घोषित रूप से “राजकुमार” रख लिया था.
सैफिया विज्ञान महाविद्यालय भोपाल उन दिनों ज्ञान , शिक्षा एवं तेहज़ीब का मर्क़ज़ था. यह भोपाल का लघु नालंदा था जिसने अदब की दुनिया को एक पूरी पीढ़ी का तोहफा दिया था; जिसकी अमराई की घनी छाँह में बशीर बद्र साहब की ग़ज़ल नौका के बादबान खुले थे; जिसकी बौनी बौनी बेरियों के तले कभी जावेद अख़्तर साहब के गीतों के ज़खीरे महके थे, और जिसके सज्जाद हॉल में कभी शहर के नामचीन पॉलिटिशियन मध्य प्रदेश की तक़दीर का फैसला लिया करते थे बस उसी सैफिया के पानी के साथ उनमें एक साहित्यिक पत्रकार आकार लेने लगा था. राजकुमार जी ने अपने बी ए, एम ए और एल एल बी के तवील सफर के उतार चढ़ाव के साथ ज़िंदगी के उतार चढ़ाव भी यहीं तय कर लिए थे. यहीं इसी कॉलेज के तंग कॉरिडोर के भीतर उन्हें सही गलत का फैसला लेना आया था और अच्छे को अच्छा कहना और बुरे को बुरा कहने की तमीज़ आई थी.लकड़ी की नक़्क़ाशी वाली मेहराबदार गैलेरियों से सजी सैफिया कॉलेज की लाइब्रेरी में ही शायद कहीं इन्होने पहली दफ़े इक़बाल साहब की पहली ग़ज़ल पढ़ी हो और किसी एक रात तकिये के नीचे ग़ालिब का दीवान रख कर सोने का दुस्साहस किया हो तब कहीं साहित्यिक जगत को एक जाग्रत, विद्वान और आधुनिक प्रेमचंद के रूप में केसवानी जी मिले हों, वरना कहा जाता है, ” कागज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के, दीवाना बेपढ़े लिखे मशहूर हो गया”. पुराने भोपाल की किमामी खुश्बू ने जहां एक ओर उर्दू के संस्कार दिए तो वहीं दूसरी ओर खिरनी वाले मैदान की धूप की हिद्दतों ने गंगा जमुनी हिन्दोस्तानी तेहज़ीब को चाय के प्यालों के साथ ज़िन्दगी के मैयार में ढाला। यही कारण था कि इनका पाठक वर्ग हर मज़हब में जन्मा। यह मुस्लिमों को ‘अपने बेटे’ लगे और हिन्दुओं को ‘अपने लाल’. इनकी हर रचना को मज़हब के बंधन तोड़ कर मोहब्बत मिली और ” बॉम्बे टॉकी” से “कश्कोल” तक इनके चाहने वाले भटकने लगे। ट्राइबल म्यूज़ियम की लिखंदरा हो या सेन्ट्रल लाइब्रेरी की सीढ़ियां,रविंद्र भवन का कैफेटेरिया हो या हिंदी भवन की सीमेण्टेड बैंच! भोपाली इन्हें हजारहां आँखों में अपनापन लिए तलाशने लगे.
महाविद्यालय का सफर समाप्त हुआ तो जीवन संगिनी के चयन का दबाव करियर के दबाव से भी पहले आ गया. फ्री लांसिंग के ज़रिये गुज़र बसर हो जाती थी और इधर केसवानी जी के राजकुमार हो जाने की घटना भी न घटी थी कि इंदौर के एक सुशिक्षित, प्रतिष्ठित घराने की सुन्दर, सुशील पुत्री के साथ इनका विवाह पक्का हो गया था. पिता जी ने एक कुलीन कन्या के रूप में ” दमयंति जी को इनकी जीवन संगिनी चुना था. जब नियति राजकुमार जी को पत्रकार बनाने हेतु चुन रही थी इनकी पत्नी स्वयं को निर्भीक एवं साहसी पत्रकार की पत्नी बनने हेतु तराश रही थीं. वह एक चुनौती पूर्ण समय था जब पिता द्वारा तलाशे गए वर से बंधन बाँध दमयंति जी “सुनीता” बन राजकुमार जी के सुख-दुःख की सदा-सदा की साथी हो गईं थीं. सुनीता बनने के बाद का सफर आसान नहीं था. वे प्राणपण से परछाई बन अपने पति के साथ खड़ीं रहीं। जहां उन्हें धूप लगी ये छाया बनीं; जहां यह थके वे साया बनीं। राजकुमार जी की निश्छल मुस्कराहट की चंचल प्रेरणा बन जीवन कहां निकल गया उन्हें एहसास भी नहीं हुआ. सुनीता जी, राजकुमार जी के जीवन में सफल पुरुष के पीछे सशक्त स्त्री साबित हुईं और परिणाम के रूप में पाठकों को “आपस की बात” वाले सहज साहित्यिक पत्रकार के रूप में राजकुमार जी प्राप्त हुए.
यूं तो इनका अघोषित करियर ” स्पोर्ट्स टाइम्स” के सहसंपादक के रूप में प्रारम्भ हो गया था किन्तु इनके अंदर के पत्रकार ने कईं छोटे छोटे स्थानीय अखबारों में आकार लिया. ” द इलस्ट्रेटेड वीकली , न्यूयॉर्क टाइम्स, द सन्डे आब्जर्वर, इंडिया टूडे इंडियन एक्सप्रेस, इकोनॉमिक वीकली, पोलिटिकल वीकली, जनसत्ता और साहित्यिक दिनमान जैसे बड़े अखबारों को अपनी सेवाएं दे केसवानी जी ने न केवल प्रिंट मीडिया के पाठक समूह का इज़ाफ़ा किया बल्कि डिजिटल युग में प्रवेश करती पत्रकारिता के स्वरूप को निखारने में भी महती भूमिका निभाई। प्रिंट मीडिया में एक प्रबुद्ध पाठक वर्ग में अपनी पैठ बनाने के पश्चात १९९८ से २००३ तक NDTV के मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के ब्युरो चीफ रहे. २००४ से २००९ तक दैनिक भास्कर जैसे बड़े समुह को अपनी सेवाएं प्रदान की.
१९८४ में भीषण भोपाल गैस त्रासदी के दौरान इनके भीतर का खोजी पत्रकार लगातार सिर उठाकर चेतावनी देता रहा इसी से इन्हे बी डी गोयनका सम्मान से नवाज़ा गया। २०१० में पर्यावरण रक्षा हेतु इन्हें प्रेम भाटिया पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वाइट पाइन पिक्चर्स तथा कनैडियन ब्राडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने इनके द्वारा “भोपाल द सर्च फॉर जस्टिस” नामक वृत्त चित्र का आलेखन कर भोपाल के इतिहास के नए पृष्ठ को खोला तो जहांन ए रूमी, कश्कोल, सातवां दरवाज़ा जैसी असंख्य और बेजोड़ पुस्तकों ने पर्त दर पर्त इनके व्यक्तित्व के एक-एक पहलू में बसे खांटी पत्रकार को हर ज़ाविये से उजागर कर के रख दिया।
राजकुमार जी एक साहित्यिक पत्रकार होने के साथ-साथ अच्छे वक्ता और बेशकीमती किताबों के बेहतरीन पाठक रहे. उनकी निजी लाइब्रेरी बेहतरीन हिंदी, उर्दू,, सूफी और सिनेमाई साहित्य का खज़ाना ही रही. उनमें किसी सम्प्रदाय विशेष का साहित्यकार न होकर पुराने भोपाल का वह नवाबी बांका शायर बसता रहा कि जो काफियों की मिठास में सोचता था, शायराना अंदाज़ में खुद को बयान करने की खूबी रखता था और मज़हब से ऊपर उठ मानवता की बात करता था. जो राजनैतिक दृष्टिकोण से कम्यूनिस्ट और तहज़ीबी ज़ाविये से निरा देशप्रेमी था; जिसने अपने इकलौते पुत्र रौनक केसवानी जी को भी ठोंक पीट कर कुम्हार के कुम्भ की भाँति ही पत्रकार बनाया था. और पत्रकार भी ऐसा कि पिता ही की तरह पुराने भोपाल की गलियों में जिसके अपनों के मुस्लिम आँगन भी हैं कि जिन पर दीवाली के धूप दीप और रंगोली रोशन रहते हैं कि इनकी अस्थि मज्जा में खालिस पत्रकारिता संस्कारों का लहू दौड़ रहा है जिसने इन्हें पिता ही तरह देश व् समाज की कुरीतियों से लड़ना सिखाया है.
सुपुत्र रौनक केसवानी जी का सफ़र एच आर बनने की दिशा मे प्रारम्भ हुआ और इस सफ़र की दिशा जब पत्रकार बनने की जानिब मुड़ी तब अंग्रेज़ी के महाकवि टी. एस. इलियट का कथन अक्षरश: सत्य होता हुआ प्रतीत हुआ जिसमें वह कहते हैँ, ” डेस्टिनी, वैट्स इन द हैंड्स ऑफ़ गॉड” यानि भाग्य हमेशा परमेश्वर के हाथों में प्रतीक्षा करता है.
कोरोना की दूसरी लहर ने जो कुछ मूल्यवान निगला उनमें से एक क़ीमती हीरा राजकुमार जी भी थे कि हृदय गति रुक जाने से वे असमय ही हमसे छिन गए. कुल मिला कर राजकुमार जी अपने उसूलों और आदर्शों की राह पर चलने वाले वह व्यक्ति थे कि अगर जिनकी सौ संतान भी होती तो वे पत्रकारिता को समर्पित थीं. उनके साथ पत्रकारिता के एकयुग का अंत हुआ , उस लुप्तप्राय प्रजाति का अंत कि जो पत्रकारिता से पैसा नहीं बनाया करते बल्कि पत्रकारिता पर अपने सशक्त हस्ताक्षर छोड़ जाया करते हैं.