May 23, 2025
प्रदेश

नईदुनिया की वह विरासत मालवा और प्रदेश की थी

नईदुनिया का ढाँचा भी ढह गया
– विजयमनोहर तिवारी
हिंदी के पाठकों और पत्रकारों के लिए यह एक ब्रेकिंग न्यूज ही है. इंदौर के बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग पर नईदुनिया का भव्य भवन ढहा दिया गया है. हिंदी पत्रकारिता की यह शक्तिपीठ 13 साल पहले ही शक्तिहीन हो चुकी थी. एक ढाँचा भर था, जो उसके स्मारक की तरह अब तक खड़ा था. विनय छजलानी इन दिनों विदेश में हैं. अब वह भवन कांक्रीट के ढेर के रूप में सामने है. वे लौटकर आएँगे तब तक उन्हें नश्वर संपत्ति की नई इबारत लिखने के लिए मैदान साफ मिलेगा. साल 2012 में उत्तरप्रदेश के दैनिक जागरण समूह के हाथों बिकने के बाद पुरानी नईदुनिया का यह तेरहवाँ साल है. यह संपत्ति छजलानी परिवार के पास थी, जहाँ पत्रकारिता की एक महान विरासत फली-फूली थी. मध्यप्रदेश और मालवा की उर्वर भूमि से इस विरासत का कोई उत्तराधिकारी नहीं निकला. संपत्ति के मालिकों ने अपनी निजी संपत्ति के बारे में वही निर्णय लिया, जो लाभ कमाने के लिए कोई भी समझदार कारोबारी करता है.
महीना भर पहले ही इंदौर प्रेस क्लब में मैंने नईदुनिया के दुखद अवसान पर कहा था कि वह संपत्ति भले ही सेठिया और छजलानी परिवार की रही होगी मगर वह विरासत मालवा और मध्यप्रदेश की थी. वह विरासत हिंदी पत्रकारिता की थी. वह समाज की धरोहर थी, जिसे उसकी पुरानी सुगंध के साथ सहेजा जाना चाहिए था. मगर आर्थिक संकट उस स्तर पर पहुंचा दिए गए कि बिकना ही एकमात्र विकल्प रहा गया. और एक दिन वह बिक गया. जैसे हर दिन हजारों मकान, दुकान और प्लॉट बिकते हैं, नईदुनिया भी बिक गया. हर साल धार्मिक और सामाजिक उत्सवों पर दो-चार सौ करोड़ फूँकने वाले प्रदेश के सबसे कमाऊ इंदौर शहर में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा. इंदौर की पहचान का सौदा हो चुका था और देर रात सराफ की चाट खाकर सोए शहर के जागृतजन अगली सुबह बड़े आराम से उठे और अपने काम में लग गए.

मैं कोविड के ठीक पहले इसी भव्य भवन के पीछे स्थित आवास पर आदरणीय अभयजी से मिलने पहुँचा था. यह वही प्रांगण था, जहाँ मुझ जैसे अनेक युवाओं को पत्रकारिता में आगे बढ़ने के आरंभिक अवसर मिले थे. इसी आँगन में हमने अपने नन्हें कदमों से संभलकर खड़े होना और चलना सीखा था. नवंबर 1994 में जब मेरा चयन हुआ तब इंदौर के प्रिय बाबा यानी राहुल बारपुते जीवित थे. संपादकीय विभाग में उनकी मेज-कुर्सी हॉल के बिल्कुल बीचों बीच किसी मंदिर के गर्भगृह जैसी थी. वे अकेले थे, जो सिगरेट सुलगा सकते थे. उनकी सिगरेट किसी धूनी के धुएँ जैसी थी. बाबा अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में थे. दो साल बाद ही चल बसे. उनकी उपस्थिति नईदुनिया की महान संपादकीय परंपरा की अंतिम कड़ी थी. फ्रंट पेज की डेस्क पर ठाकुर जयसिंह पुराने संपादकीय सहयोगियों में थे. मैं शाम चार से छह तक उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठता था. एक दिन सेव-परमल की शाम की नियमित दावत में उन्होंने कहा कि विजय एक समय प्रभाष जोशी इसी डेस्क पर बैठते थे. यह सुनते ही मैं संभलकर बैठ गया था. इस परिसर से राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जैसे हिंदी के शिखर संपादक निकले थे. शरद जोशी जैसे प्रसिद्ध व्यंग्यकार का गहरा नाता नईदुनिया से रहा था. वेदप्रताप वैदिक बाबा से मिलने आया करते थे. उन चमकदार दशकों में इंदौर आने वाली विविध क्षेत्रों की शिखर विभूतियाँ नईदुनिया की परिक्रमा किया करती थीं.

जून 1997 में नईदुनिया 50 साल का हुआ. इसके ठीक एक साल पहले एक सुबह सराफे की चाट खाकर सोए इंदौरवासियों ने शहर के चौराहों पर एक आकर्षक होर्डिंग देखा था. दैनिक भास्कर की ओर से लगे इस होर्डिंग पर लिखा था-“एक लाख प्रतियाँ समारंभ.’ दैनिक भास्कर ने भोपाल से इंदौर जाकर बारह साल की मेहनत के बाद यह दावा किया कि अब वह एक लाख की संख्या में छपने लगा है. कई दिन चले भास्कर के उत्सव में शाहरुख खान और ऐश्वर्या राय की शोभायात्रा निकली थी. सयाजी होटल में टीएन शेषन जैसी विभूतियाँ व्याख्यान देने आईं थीं. नईदुनिया ने अपने पचास साल का जलसा लालबाग पैलेस में सजाया, जिसमें तत्कालीन राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा आए थे. इस अवसर पर आदरणीय अभयजी ने एक दस्तावेज लिखा था- “प्रतिबद्धता की आधी शती.’ इन पचास सालों में नईदुनिया ने प्रसार की दृष्टि से 77 गुना बढ़ोतरी दर्ज की थी. छह पैसे में चार पेज का नईदुनिया 1947 में केवल डेढ़ हजार कॉपियाँ छापता था, जो अब एक लाख 15 हजार हो गई थीं. मगर प्रसार संख्या ही नईदुनिया की ताकत नहीं थी. लोग हिंदी सीखने के लिए नईदुनिया पढ़ते थे. नईदुनिया पढ़े बगैर दिन के होने का विश्वास नहीं होता था. पाठकों का यह विश्वास नईदुनिया की ताकत थी, जिसमें अनेक ऋषियों की साधना का बल लगा था.

नईदुनिया में क्षमता थी कि वह देश में सौ संस्करणों का समाचार पत्र बनता. वह कई भारतीय भाषाओं में छपता. नईदुनिया का अपना टीवी चैनल होता. एफएम के दौर में अपने रेडियो चैनल होते. अपना फिल्म प्रोडक्शन हाऊस होता. अपनी विज्ञापन एजेंसी होती. कम्युनिकेशन का कोई माध्यम अछूता नहीं छूटना चाहिए था. नईदुनिया ऐसा ब्रांड बनने की शक्ति रखता था. मगर स्वतंत्र संपादकों का दौर समाप्त होते ही पूरी ताकत आदरणीय अभयजी के हाथों में आ गई और उनके लिए इंदौर की पूरी दुनिया थी. नईदुनिया का मतलब अभय छजलानी था. खेल प्रशाल बनाने में उन्होंने वह सारी ऊर्जा लगा दी, जो नईदुनिया को एक देशव्यापी ब्रांड बनाने में लग सकती थी. दूसरा दुर्भाग्य यह रहा कि दैनिक भास्कर के श्रीमान् रमेशचंद्र अग्रवाल की तरह अभयजी के परिवार में परमात्मा ने एक सुधीर अग्रवाल नहीं दिया. विनय छजलानी उनके सुपुत्र थे, मगर उनकी कोई रुचि अखबार में नहीं थी. हमने उन्हें कभी अखबार में देखा तक नहीं. उनके अपने कारोबार थे. वे अपनी जगह सफल थे. एक आयु के बाद अभयजी के आगे नईदुनिया का डेड एंड था.

अभयजी से मेरी आखिरी मुलाकात के समय नईदुनिया को बिके हुए आठ साल हो चुके थे. अभयजी की स्मृतियाँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही थीं. नईदुनिया के पतन के प्रश्न पर श्रीमती पुष्पा छजलानी ने मुझसे कहा था कि इन्होंने गलत लोगों पर भरोसा किया. लोगों ने इन्हें धोखे दिए. इन्हें सही आदमी की पहचान नहीं थी. कभी इस पर अवश्य लिखना. अभयजी खामोशी से सुन रहे थे. मुझे नहीं पता कि वे उस समय क्या विचार कर रहे होंगे. जब नईदुनिया को चलाने के लिए विनय छजलानी ने सारे सूत्र अपने हाथों में लिए तब सबने देखा कि अभयजी उपेक्षित कर दिए गए हैं. पुष्पा छजलानी ने तब अपने सुपुत्र विनय छजलानी को एक पत्र के जरिए यह पीड़ा व्यक्त की थी. नईदुनिया के महान योगदान और दुखद अंत पर प्रामाणिक दस्तावेज लिखे जाने चाहिए.

मुझे याद है कि 2008 में विनय जी ने मुझे भी बुलाया था और कहा था कि लोग नईदुनिया से इस कारण छोड़कर जाते रहे कि यहाँ आगे बढ़ने के कोई अवसर नहीं हैं. मैं अवसर दे रहा हूँ. लौटिए. वह एक अच्छा ऑफर था. मगर तब मुझे दैनिक भास्कर में आए दो ही साल हुए थे. कुछ करके दिखाया नहीं था. मैंने यही उन्हें कहा कि अगर मैं वापस आता हूँ तो लोग कहेंगे कि चार पैसे ज्यादा मिले और मैंने भास्कर छोड़ दिया. इसलिए वहाँ कुछ करने दीजिए. नईदुनिया मेरे लिए घर जैसा है. कभी भी आ जाऊंगा. मैं उन्हें धन्यवाद देकर लौट आया था. मगर जाने का योग बना नहीं. विनयजी की परवरिश अखबार के माहौल में हुई नहीं थी. बहुत देर से वे नईदुनिया के फलक पर आए. उन्होंने एक बूस्टर डोज अवश्य देने की कोशिश की मगर बीमारी लाइलाज हो चुकी थी. कोई भी अपनी विरासत को क्यों नष्ट होने देगा. बेचने के पहले वे भी शायद बहुत मजबूर होकर ही अंतिम निर्णय पर पहुंचे होंगे.

नईदुनिया से मेरा भावनात्मक लगाव रहा है. 2003 में छोड़ने के बाद भी मैं वहाँ बड़े अधिकार से जाता रहा. अभयजी के साथ मेरा संबंध आखिर तक रहा. मैंने अपने पत्रकारीय जीवन के आरंभिक वर्षों की पूरी ऊर्जा गहरी निष्ठा के साथ बाबू लाभचंद छजलानी मार्ग के उस पवित्र परिसर में अर्पित की थी. आज जब उस भवन के गिरने की तस्वीरें मिलीं तो लगा कि मेरे भीतर का ही एक हिस्सा ढह गया है!