साहित्य का वह मंथन जो सार्थकता का अहसास करा गया
हर सत्र और हर विषय में अनूठापन रखने की कोशिश रही कारगर
इंदौर में वसंत का मौसम एक और भी रंग साथ लाया और वह रंग रहा नर्मदा साहित्य मंथन का. तीन दिन का यह आयोजन यूं तो चौथा सालाना जलसा था लेकिन 31 जनवरी, एक और दो फरवरी को जिस तरह से इसने जिस तरह विभिन्न विषयों को अपने में समेटा वह अनूठा था. जब शुरुआत में 31 जनवरी को सुरेश सोनी को विचार खंडन मंडन की भारतीय परंपरा पर बालते सुना, जगदीश जोशीला जैसे साहित्यकार को खुलकर बात कहते पाया तो यह तो उम्मीद बंधी थी कि आयोजन अच्छा होगा लेकिन इसमें इतने रंग जुड़ते जाएंगे और हर प्रहर सोच की एक नई बयार लेकर आएगा यह कल्पना तब तक नहीं हुई थी. कई विषयों पर पकड़ रखने वाले यतींद्र मिश्र नहीं आ सके तो भी कहीं हड़बड़ाहट नहीं दिखी क्योंकि श्याम मनावत ने उतनी ही खूबसूरती से लोगों को रामायण, आख्यानों और अपनी शैली से बांधे रखा.
अहिल्या की नगरी में हो रहे ऐसे सारस्वत आयोजन में मां अहिल्या से जुड़ा प्रसंग जरुरी भी था और सहज स्वाभाविक भी. इसके बाद क्षमा कौल हिंदू विस्थापन की पीड़ा पर बोलने जब मंच पर पहुंचीं तो एक पल को भी कोई श्रोता उन अनुभवों से खुद को अलग नहीं रख सका जो कश्मीरी पंडित होने के नाते उन्होंने ही नहीं ख् उनके साथ एक बड़ी आबादी ने झेले हैं. क्षमा कौल ने दिल खोलकर अपनी बात कही और अच्छा यह रहा कि सभागार ने भी उन भावनाओं को उसी स्वरूप में लिया जिसमें उसे लिया जाना चाहिए था. राजस्थान से आए गिरधरदास रत्नू ने हिंदू संस्कृति में मातृ शक्ति का योगदान विषय पर कुछ काव्य और कुछ उदाहरणों के साथ अपनी बात प्रभावी तरीके से रखी. एक फरवरी को कल्चरल मार्क्सवाद का परिवारों पर प्रभाव, पर्यावरण स्थिरता और संरक्षण में नदियों का महत्व और राष्ट्र पुनर्निर्माण में युवाओं के कर्तव्य जैसे वि्षयों के बाद उदय माहुरकर ने ओटीटी को लेकर सांस्क्तिक विकृति वाले विषय पर प्रभावी तरीके से न सिर्फ विचार रखे बल्कि इसके लिए अपने प्रयासों का जिक्र कर राहें भी सुझाईं. दो फरवरी को पत्रकारिता के विभिन्न आयामों पर बात करने जुटे जयदीप कर्णिक और अमिताभ अग्निहोत्री पत्रकारिता के भारतीय तत्वों पर बेहतर वक्ता रहे. बाद के सत्र में नर्मदा परिक्रमा को लेकर जिस अंदाज में अशोक जमनानी ने अपनी बात रखी उससे यह तो तय था कि इतना सूक्ष्म विषय भी कितने व्यापक प्रभावों का विश्लेषण सामने ला सकता है. इतिहास लेखन के इतिहास को बताते श्रीकृष्ण श्रीवास्तव ने ऐतिहासक कलई खोलने से भी परहेज नहीं किया. तीन दिन के इस आयोजन के प्रारंभ से समापन तक जिस तरह इंदौर ही नहीं प्रदेश भर से लोगों ने जुटकर सहभागिता की है वह बता रही है कि यदि विषय सटीक चुने जाएं और बोलने वालों पर सुनने वालों का भरोसा हो तो कितना कुछ हो सकता है.