May 8, 2025
इंदौर

पत्थरों पर रंग और खंडहर में सरस्वती की खोज

  • आदित्य पांडे पत्थरों पर आकृतियां कह रही कला छात्रों की व्यथा
    कला के विश्वप्रसिद्ध नाम देने वाले इंदौर फाइन आर्ट कॉलेज से दिल का नाता रखने वाले पूर्व छात्रों और नामी कलाकारों ने एक ऐसा अनूठा काम कर दिखाया है कि उनकी पीड़ा भी बेहद रचनात्मक तरीके से सामने आती है. दरअसल ज्यादा अरसा नहीं हुआ जब देवलालीकर कला वीथिका से सटे इस कॉलेज में विश्व कला समझाती क्लासेस होती थीं, दुनिया भर के बड़े कलाकारों की कला की चर्चा होती थी और नए आने वाले कलाकारों को सिखाने के लिए हुसैन जैसे नाम नंगे पैर दौड़े चले आते थे लेकिन फिर इस जगह को ग्रहण लगना शुरु हुआ और पूरा कॉलेज एक दिन खंडहर में बदल दिया गया.

वह कॉलेज जो कला की बारीकियां सिखाता था, यहां से बेदखल हो गया. जो छात्र कभी यहां पढ़े थे और जिनका इस जगह से दिल का रिश्ता रहा है उन्होंने कमोबेश हर उस जगह इस धरोहर को बचाने के लिए गुहार लगाई जो इसे बचा सकते थे. आखिर इस कॉलेज को चाहने वालों ने उन लोगों तक अपनी बात पहुंचाने की नई राह निकाली. खंडहर के बीच ही कला को सजा कर अपनी बात कहने का प्रयास इस मायने में अनूठा है कि इसके लिए कहीं अलग से कैनवास नहीं लाए गए बल्कि उस कॉलेज की नींव से लेकर दीवारों तक के हर ईंट पत्थर को ही अपनी कला रचने का जरिया बना लिया. तीन दिन तक बीसियों वर्तमान और पूर्व छात्रों ने इस जगह रंग लिए, ब्रश लिए और इस जगह से अपने प्यार को उन्हीं पत्थरों पर अंकित कर दिया जो पत्थ्यर सालहा साल कला, कलाकर्म और कलाकारों की ही बात कहते, सुनते गुनते आए थे. तीन दिन एक ऐसा रंग भरा माहौल रच दिया इन कलाकारों ने कि इस जगह का कोना कोना अपने हाल की कहानी सुनाने लगा. जब आप इन पत्थरों के बीच जाते हैं तो एक बार भीमबेटका जरुर दिमाग में कौंधता है क्योंकि वह भी तो पत्थरों पर अपनी बात कहने का अंदाज ही था. जहां आज रंगों की यह दुनिया बिखरी पड़ी है, वहीं एक गुम हुई सरस्वती भी हैं. गुम इसलिए क्योंकि कॉलेज की दीवार पर बेहद खूबसूरत सी पेंटिंग थी मां वीणापाणि की. सीढ़ियां चढ़ते ही सामने नजर आने वाला यह भित्तिचित्र. जब कॉलेज को खंडहर कर ही दिया गया तब भी उसके अंश तलाशने की कोशिश कलाकार करते रहे. जिस अंदाज में यहां पहुंच कर कॉलेज के पूर्व छात्रों ने अपना जुड़ाव इस जगह से दिखाया है वह भी भावना का एक अलग ही प्रवाह है. रंगों की भाषा कहने वाले इन कलाकारों ने कॉलेज के अवशेषों पर जो रचा है वह एक ऐसी दुनिया में ले जाता है जहां कला न आर्ट गैलरियों की मोहताज है, न कॉकटेल पार्टी के बीच भुने काजू खाते हुए कला समझने का दिखावा करने की.

यहां तो कॉलेज के बिखर चुके पत्थरों पर कही गई बात खुद ब खुद आपके दिल तक उतरती जाती है. एक ऐसी ओपन आर्ट गैलेरी जिसमें कला के प्रति उदासीनता की एक कहानी तो सामने आती ही है साथ ही न जाने कितने दर्द के पहलू भी उभर आते हैं. एक कलाकार ने यदि अपने कॉलेज को उसके शानदार अतीत की तरह याद किया है तो दूसरे ने इसके भविष्य को लेकर संजाए सपनों को उकेर दिया है. रंगों की दुनिया से पहले भी वास्ता रहा है, देवलालीकर वीथिका से लेकर जहांगीर तक में रंगों की अलग अलग दुनिया के बीच यह अनुभव सबसे जुदा है. जब आप एक बड़ी जगह में खंडहर के बीच जगह जगह बिखरे रंगों को देखते हैं और फिर उसके पीछे की टीस को समझते हैं तो यकीनन आप महसूस करते हैं कि धरोहरों को मिटा देने में हम सबसे बुरे रिकॉर्ड वाले हैं. जो शहर हुसैन, बेंद्रे, देवलालीकर, डीजे जोशी जैसों की धरोहर के साथ इतना बुरा सुलूक कर सकता है उसे ठहर कर सोचना चाहिए कि उसकी दिशा कितनी सही है और ये जो मुट्‌ठीभर कलाकार जान सुखा देने वाली गर्मी में कॉलेज के अवशेष बचे पत्थरों को रंग रहे हैं, वे बस इतना ही करना और कहना चाहते हैं कि शहर ठहर कर एक बार सोचे तो कि वह आखिर अपनी धरोहरों के साथ कर क्या रहा है.