BRTS ‘बेशकीमती’ गलती और अब भी संभलने की सीख
एक प्रोजेक्ट जो न सोच के साथ बना और न समझ के साथ चल सका
– आदित्य पांडे
भोपाल के बाद अब इंदौर का बीआरटीएस हट रहा है और सवाल उठ रहा है कि इसके फेर में जनता का जो 250-300 करोड़ रुपया बर्बाद हुआ है उसका जवाब किससे लें. यकीन मानिए यह बहुत कम राशि है यदि इससे हम अब भी सबक ले लें और यदि जरा सा धरातल समझ कर काम करने की शुरुआत भर कर दें. पिछले पंद्रह सालों से यानी बनने से पहले से जिस बीआरटीरएस को महाउपयोगी बताने में शासन प्रशासन जी जान से जुटा हुआ था अब उसी वही प्रशासन तोड़ रहा है. सच कहें तो जब यह बन रहा था तभी यह सवाल था कि यह योजना किसे ध्यान में रखकर बनाई गई है. फिर एक दशक से ज्यादा तक इसकी उपयोगिता साबित करने की बारी आती तो अफसरों के चेहरे पसीना पसीना हो जाते. जब इसे तोड़ने की बात आई तब भी एक बार ऐसा मौका याद नहीं पड़ता जिसमें जमीन पर सोच कर या समझ कर बात की गई हो.
बनाने की योजना से लेकर तोड़ने की बेतरतीबी तक अफसरों की हवाई समझ ने जो बर्बादी की है उस पर जरा बारीकी से ध्यान दीजिए. बनाते समय लोगों पर जमीन लेने के लिए जिस तरह से दबाव बनाया गया था वह जितना बुरा था उससे भी ज्यादा बुरी बात यह थी कि सरकारी जमीनों की अड़चनें ही प्रोजेक्ट बनने से लेकर उजड़ने तक वैसी ही बनी रहीं. शिवाजी वाटिका पर जो मिक्स लेन में जाम लगता था उसमें यदि सीजीओ कॉम्प्लेक्स की जरा सी जमीन मिला ली जाती तो क्या हालात अलग नहीं होते? आज भी यदि ये सरकारी दिमाग जो आईएएस पास कर एक तयशुदा ट्रेनिंग लेकर आते हैं. इस ट्रेनिंग में जमीनी हकीकत से रुबरु होना शायद सिखाया ही नहीं जाता बल्कि प्रोजेक्ट रिपोर्ट, स्लाइड शो और फंडिंग झटकने के ही लटके झटके शामिल होते हैं. अब तो खैर अदालत ने हटाने को कह दिया है और इस पर काम भी शुरु हो गया है लेकिन एक विकल्प पर गौर कर ही आप समझ जाएंगे कि हमारी अफसरशाही किस तरह सोचती है. आज यदि पूरा बीआरटीएस हटाने के बजाए इस बात पर जोर दिया जाता कि मुश्किलों वाली जगहों को आसान बनायया जाए तो क्या ज्यादा बेहतर रास्ते नहीं निकल आते? ज्यादा कुछ नहीं करें, हर चौराहे से बीस बीस मीटर तक की ही रेलिंग हटा दें तो लगने वाले जाम से मुक्ति मिलने की संभावना कई गुना बढ़ जाती. आई बसों के लिए जो वीआईपी सिगनल व्यवस्था की गई थी उसे ही हटा दें तो हालात बदल जाना तय था. जिन मोड़ों और खतरनाक जगहों पर मिक्स लेन की चौड़ाई बहुत कम रही वहां पर थोड़ी सी ढ़ील देकर भी मामला ठीक किया जा सकता था. इस पूरे प्रोजेक्ट के लिए जो पेड़ काटे गए जो कमीशन की बंदरबांट हुई, बसों के ठेके जिस तरह हुए, जिस तरह इसे बचाने के लिए अदालतों में जमकर वकीलों पर पैसा बहाया गया वह सब तो इस आंकड़े में शामिल ही नहीं है जो बताया जा रहा है. इतनी भारी कीमत के बाद भी यदि हम समझ लें कि हमारे लिए निर्णय लेने वाले गलत भी हो सकते हैं, हम हजार पांच सौ की बचत करने वालों के करोड़ों ऐसे गलत निर्णयों से यूं ही जाया हो जाते हैं और यह कि अगली किसी भी योजना के लिए हमें कम से कम इतना तो पूछना ही चाहिए कि इसकी उपयोगिता कितनी होगी. यदि हम इस तीन एक सौ करोड़ के नुकसान पर इतना भी सतर्क हो जाएं तो शायद हमने कीमत कम ही चुकाई है कि एक दशक तक गलत निर्णयों को झेला और अब हमारे आकाओं ने माना कि उन्होंने एक ‘बेशकीमती गलती’ की थी