बस यूं ही… मेरी पत्नी (नहीं) सताती है
- व्यंग्य- प्रकाश पुरोहित
जब पत्नी सहयोग करती है तो पति… लेखक बनता है… और जब असहयोग करती है तो… महान लेखक बनता है. यदि मैं आज तक महान लेखकों में शामिल नहीं हूं तो इसकी वजह मेरी पत्नी का सहयोग है. मैं लिखने में जितना ‘नकद’ रहता हूं… वह सहयोग के लिए उतनी ही ‘उधार’ रहती है. मजाल कि कहीं चूक हो जाए. उसका रवैया मचान पर बैठे शिकारी की तरह होता है कि शिकार सामने आया नहीं कि चला दी बंदूक.
और और
लेखन में जो चाहूं मैं कर सकता हूं, लेकिन पत्नी के मामले में मेरी मर्जी नहीं चलती! अगर पत्नी अड़गे डाल रही है तो फिर भी आप शिकायत कर सकते हैं कि भई, लिखने दो, मेरी जान खाना बंद करो, मगर जब पत्नी सहयोग वाली पर उतर आए तो यह कहने से रहे… कि भई ऐसी भी क्या मेहरबानी. जरा तो असहयोग करो… ताकि कोई कालजयी रचना लिख सकूं. थोड़ा-बहुत तो दर्द आने दो मेरे जीवन में, ताकि तड़प कर मैं कुछ महान लिख सकूं.
कालिदास से लेकर बर्नार्ड शॉ तक के किस्से उसे ना जाने कितनी बार सुना चुका हूं… कि कहीं यह समझ आ जाए कि लेखन के लिए बादाम, काजू के अलावा भी कोई गिजा चाहिए होती है. बता चुका हूं कि रत्नावली रूठ कर मायके नहीं जाती तो तुलसीदासजी कभी रामचरित मानस नहीं लिखते. हड़काने से पति का लेखक आहत होता है और वह कालजयी रचना को जन्म देता है, मगर यहां तो चिकनी मटकी पर पानी की बूंदें ठहरती ही नहीं हैं.
जब-जब सताए हुए पति और महान लेखक का किस्सा सुनाया है, पत्नी और सेवा भाव से सहयोग करने लग पड़ती है. यही गनीमत है कि अभी तक उसने यह नहीं कहा कि ‘लाओ, मैं ही लिख देती हूं… तुम तो आराम करो.’ मोहल्ले के घरों का न्यूज पेपर… यानी कामवाली बाई से जब वह खबर सुन रही होती है तो चूल्हे पर चढ़ी सब्जी जल जाए, उसका ध्यान भंग नहीं होता.
इधर मैंने कुर्सी खिसकाई नहीं कि वह फौरन आ धमकती है- ‘चाय ला दूं…! खसखस का शरबत ! तरबूज काट के रखा है फ्रिज में. खिड़की बंद कर दूं… आवाजें आ रही होंगी. पंखा झल देती हूं… जब तक लाइट नहीं आती. तकिया लगा लो पीछे, वरना गर्दन अकड़ जाएगी.’ ऐसा और भी ना जाने कितना-कितना सहयोग. मुझे लगता है अंग्रेजों के खिलाफ जो असहयोग आंदोलन शुरू हुआ था ना, उसका
प्रायश्चित मुझे करना पड़ रहा है. विनम्रता की वजह से मैं खुद को आम लेखक भी नहीं समझता… मगर वह मुझे महानतम से नीचे तो समझने को तैयार ही नहीं है, लेखकों की श्रेष्ठ रचनाओं की तरह. कैसी भी हो, छपी है तो श्रेष्ठ ही है, क्योंकि इसी टाइटल के साथ जो छपी है. लेखक पीड़ा, दर्द, तकलीफ, कष्ट, अभाव उधार तो नहीं ले सकता ना. उसे तो खुद ही महसूसना पड़ता है ना. फ्रिज भरा हुआ हो… तो खाली पेट पर लेखक क्या-खाकर लिखेगा. दर्द बाजार में तो बिकता नहीं है. अपने आसपास से ही समेटना होता है और जब घर पत्नी ही कन्नी काटने लगे तो बाहर से क्या उम्मीद करें!
कह सकते हैं कि पत्नी असहयोग नहीं करती है, यह भी तो लेखक का दर्द हो सकता है, लेकिन खाने से बदहजमी हो जाए तो उसे भूख तो नहीं कहा जा सकता. यही कह सकते हैं कि पथ्य पर चल रहे हैं. बहकाने की गरज से उसके मायके साल में दो-चार बार अकेला हो आता हूं, मगर वह हिलने को तैयार नहीं होती है… ‘मैं नहीं रहूंगी तो आप कैसे लिखोगे.’ यह तो मैं कहने से रहा कि तुम नहीं… गम नहीं… (शराब मैं पीता नहीं) ! आसपास की सन्नारियों के रूप का बखान भी मन मार कर करता रहता हूं, लेकिन उस पर इस ब्रह्मास्त्र का भी असर नहीं होता है… कि लेखक में इस तरह की
खसलत आम तौर पर पाई जाती है. लेखन का यही छायावाद लेखक को महान बनाता है. गालिब अगर इश्क नहीं करते तो ऐसे-ऐसे शेर लिख पाते क्या! मंटों की कहानियां कोई घर बैठे थोड़े ही तैयार हो गई थीं, यह बात उसे पता है! इसलिए छूट ही नहीं देती है… छुट्टा छोड़ रखती है! एक दिन शुभ-मूड देख कर पूछ लिया कि सहयोग करने के लिए तुम उतारू क्यों रहती हो…? तो लजाते हुए कहा कि जब तुम्हारी किताब आएगी… तो उसके विमोचन में क्या तुम यह नहीं कहोगे… कि मेरी पत्नी का भरपूर सहयोग मिला है! तुम्हें झूट ना बोलना पड़े… बस, इसीलिए मैं ऐसा करती हूं.
अब मैं उसे क्या बताऊं कि किताब के लिए सबसे जरूरी तत्व यानी असहयोग की मुझे सख्त जरूरत है. किताब ही नहीं होगी तो पत्नी के सहयोग का आभार कैसे मानूंगा. मुझे यकीन है कि मैं महान लेखक भले ही नहीं बन पाऊं… वह महान पत्नी का दर्जा जरूर हासिल कर लेगी, क्योंकि मैं उसे कोई सहयोग नहीं करता. सहयोग इसलिए भी नहीं करता कि फिर ऐसा ही करने न लगूं और लिखना-पढ़ना ही भूल जाऊं ! सहयोगी पति भी कहीं लेखक हुए हैं… हां, पत्नी जरूर लेखक हो जाती है इस चक्कर में !
व्यंग्य चित्र-साभार-मुसव्विर