पर्यावरण दिवस पर कविता : हम हत्यारे बने हैं
-हंसा मेहता, इंदौर
-कसमसाता मन हमारा
ढूंढता है तपिश में छाया
हम निर्दयी बने
बेरहम बन, वन उजाड़े।
घने आच्छादित वृक्षों की
छाया, फलों से इठलाते, मदमाते वृक्ष,
सुखद था नजारा
तृप्ति की परिभाषाएं भूले,
एक ही स्वार्थ रखी याद
धन के पेड़ थे लगाने.
नहीं सुनी आत्मा की आवाज
रुदन प्रकृति का भी रहा अनसुना,
कंक्रीट के बसा दिए
खो गया तभी से
जीवन का स्पंदन।
शुद्ध पर्यावरण का शोर
एक नारा बन रह गया है
फाइलों में जंगल घने है
नदियों, कुओं, बावड़ियां का जल
बोतलों में बंद हैं।
लहरें, हरियाली,छाया
आंखों से ओझल हुए हैं
तरसते हैं नज़ारों को
जीने के लिए,
ढूंढते हैं प्रकृति के सहारे
जिनके हम ही हत्यारे
उनके ही शरणागत हुए हैं।
त्राहि त्राहि करके भी क्या
हम विचार वान हुए हैं!
हंसा मेहता इंदौर
9827730677