Book Review ‘अब मैं बोलूंगी’ एक खरी और जरुरी किताब
-शैली बक्षी खड़कोतकर
स्मृति आदित्य, मीडिया और साहित्य का सुपरिचित नाम, जब कहती हैं ‘अब मैं बोलूँगी’ तो सुनने वालों को सजग, सतर्क होकर सुनना होगा. शिवना प्रकाशन से प्रकाशित और हाल ही में पुस्तक मेले में विमोचित उनकी किताब ‘अब मैं बोलूँगी’ उन तमाम आवाजों की गूंज है, जो अव्वल उठाई नहीं जातीं या फिर दबा दी जाती हैं. इस किताब को पढ़ते हुए दुष्यंत कुमार बहुत याद आए-
तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं.
मीठे लेकिन झूठे ख्वाब से झकझोरकर उठाने का एहसास कड़वा हो सकता है, लेकिन उतना ही जरुरी भी. पत्रकारिता जगत में लंबी और उल्लेखनीय पारी के बाद अपने अनुभवों को स्मृति ने इस किताब में संजोया है. नहीं…शायद संजोना कहना गलत होगा| सलीके से, करीने से सजा संवार कर जो भी किया या कहा जाता है, उसमें कहीं बनावटीपन या दिखावा आ ही जाता है. जबकि यहाँ एक ईमानदार, मेहनती पत्रकार का सच्चा, अनगढ़, भावपूर्ण आवेग है, जो पाठक को बहा ले जाता है. इस किताब की पढ़ना साहित्य के राजपथ पर चलना नहीं है, उस पथरीली पगडंडी से गुजरना है, जहाँ से हम में से बहुत से लोग गुजरे हैं. उन खुरदुरे रास्तों के कांटों और पांवों के छालों से कभी न कभी वास्ता पड़ा है|
डायरी विधा में लिखी यह किताब शुरू होती है, लगभग पंद्रह साल तन-मन से एक संस्थान से जुड़े रहने के बाद हुए मोहभंग और इस्तीफे से.| फिर फ़्लैश बैक में पच्चीस साल पहले पत्रकारिता की शुरुआत के संघर्ष से होते हुए मीडिया संस्थानों के वर्क कल्चर पर आती है. उनके अनुभव इतने खरे और सच्चे हैं कि पाठक संवेदनाओं के साथ शुरू से अंत तक जुड़ा रहता है. जैसे 31 जुलाई वाले दिन, जो नौकरी का आखरी दिन था, वे लिखती हैं कि इतना हल्का महसूस कर रही थीं कि घर पंहुचकर ‘कैडबरी गर्ल’ की तरह नाची. इसमें पीड़ा और आक्रोश का जो अंडर करंट है, वह छू जाता है और पढ़ते हुए आँखों में अनायास नमी उतर आती है. बाई-लाइन और क्रेडिट के लिए जूझना, संपादकीय को हमेशा विज्ञापन और मार्केटिंग से कमतर आंकना, रिपोर्टिंग में आने वाले खतरे, इन स्थितियों का सामना लगभग सभी मीडियाकर्मी करते हैं. पर महत्वपूर्ण यह कि कार्यस्थल पर जिस प्रतिस्पर्धा, इर्ष्या, असुरक्षा और शोषण की बात उठाई है, वह सिर्फ मीडिया तक सीमित नहीं है बल्कि प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले अमूमन हर शख्स की कहानी है. इस स्तर पर किताब एक ऐसा आईना है, जिसमें बहुतों को अपने दर्द का अक्स नजर आएगा. यहाँ यह डायरी निजी अनुभव होते हुए भी सार्वभौमिक हो जाती है. और बकौल स्मृति यही उनकी किताब का उद्देश्य भी है कि ‘अपने हिस्से का प्रतिरोध दर्ज करना ही चाहिए और शुरुआत कहीं से तो हो.’
कामकाजी लड़कियां तो अधिकांश जगह उनके साथ रिलेट कर सकती हैं. वे लिखती हैं, ‘हम छोटी जगह की लड़कियां संकोच और स्वाभिमान के मिश्रण से बनी होती हैं, जिन्हें अक्सर हमारा अहम मान लिया जाता है …वास्तव में हम सही वक्त पर सही कदम न उठाने की पीड़ा से गुजर रही होती हैं.’ इससे उस समय और कुछ हद तक आज भी छोटे शहरों की अधिकांश लड़कियों के मन को कितना सही उकेरा है. पूरी किताब दरअसल एक सच्ची, संवेदनशील लड़की का अपने आत्मसम्मान को बचाते हुए संघर्ष का दस्तावेज है. गिरना, बिखरना, टूटना, फिर खुद को समेटकर स्वाभिमान के साथ खड़ा होना, इसी जिजीविषा का नाम स्मृति है और यही जीवन है.
अंतिम पन्नों में वे कहती हैं, ‘मैं हर हाल में खुश रहने वाली लड़की बस इतना चाहती हूँ कि इस पेशे की ‘नैतिकता’ को यथासंभव बचाया जाए ताकि आने वाली पत्रकारीय नस्ल और फसल हरी रहे, लहलहाती रहे.’ चूँकि स्मृति बच्चों के बीच सम्माननीय और प्रिय मीडिया शिक्षक हैं, उनकी यह चिंता वाजिब हैण् पत्रकारिता में आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक जरुरी और मार्गदर्शक किताब हो सकती हैण् जो बच्चे मीडिया की चकाचौंध से आकर्षित होकर इस क्षेत्र में आते हैं, उन्हें पहले इस तरह की किताबें पढ़ना चाहिए ताकि आने वाले संघर्षों के लिए तैयार होकर इस क्षेत्र में कदम रखेंण् बच्चे यह भी सीखेंगे कि मुश्किल वक्त में परिवार और दोस्तों के अलावा कार्यक्षेत्र में कुछ भले लोग भी मिलते हैं, जिनसे दुनिया में उम्मीद कायम हैण्
स्मृति के इस साहस को सलाम, इस आशा के साथ कि इसे खूब स्नेह मिले, समर्थन मिले और उनकी आवाज में और आवाजें शामिल होंण् फिर दुष्यंत कुमार के ही शब्दों में –
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए.