Narmada की पौराणिक कथाएं और पुण्या सर्वत्र नर्मदा
- स्मृति आदित्य
नर्मदा नदी से मेरा क्या रिश्ता है में नहीं जानती लेकिन जब भी कहीं उनसे संबंधित कोई पौराणिक कथा सुनने या पढ़ने को मिलती है तो खुद को रोक नहीं पाती हूं. बचपन में नानी सुनाया करती थी चिरकुंवारी नर्मदा की कथा, तब ही एक गहरा लगाव उसके प्रति होता चला गया. लोकगाथा के रूप में वही कथा बार-बार अलग-अलग रूपों में सामने आती रही और मैं हर बार खुद को नर्मदा नदी के और करीब पाती गई. ना जाने स्त्री जाति का वह कौन सा अव्यक्त दर्द था जो हर कथा के साथ मुझमें बहता चला गया. नर्मदा नदी की तड़प, वेदना, अपमान की पीड़ा और अपने स्वत्व-स्त्रीत्व की क्रोधाग्नि, हर मनोभाव को कहीं गहरे तक अनुभूत किया.कहते हैं नर्मदा ने अपने प्रेमी शोणभद्र से धोखा खाने के बाद आजीवन कुंवारी रहने का फैसला किया लेकिन क्या सचमुच वह गुस्से की आग में चिरकुवांरी बनी रही या फिर प्रेमी शोणभद्र को दंडित करने का यही बेहतर उपाय लगा कि आत्मनिर्वासन की पीड़ा को पीते हुए स्वयं पर ही आघात किया जाए. नर्मदा की प्रेम-कथा लोकगीतों और लोककथाओं में अलग-अलग मिलती है लेकिन हर कथा का अंत कमोबेश वही कि शोणभद्र के नर्मदा की दासी जुहिला के साथ संबंधों के चलते नर्मदा ने अपना मुंह मोड़ लिया और उलटी दिशा में चल पड़ीं. सत्य और कथ्य का मिलन देखिए कि नर्मदा नदी विपरीत दिशा में ही बहती दिखाई देती है.

कथा 1 : नर्मदा और शोण भद्र की शादी होने वाली थी. विवाह मंडप में बैठने से ठीक एन वक्त पर नर्मदा को पता चला कि शोण भद्र की दिलचस्पी उसकी दासी जुहिला (यह आदिवासी नदी मंडला के पास बहती है) में अधिक है. प्रतिष्ठत कुल की नर्मदा यह अपमान सहन ना कर सकी और मंडप छोड़कर उलटी दिशा में चली गई. शोण भद्र को अपनी गलती का एहसास हुआ तो वह भी नर्मदा के पीछे भागा यह गुहार लगाते हुए’ लौट आओ नर्मदा’… लेकिन नर्मदा को नहीं लौटना था सो वह नहीं लौटी.अब आप कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि सचमुच नर्मदा भारतीय प्रायद्वीप की दो प्रमुख नदियों गंगा और गोदावरी से विपरीत दिशा में बहती है यानी पूर्व से पश्चिम की ओर. कहते हैं आज भी नर्मदा एक बिंदू विशेष से शोण भद्र से अलग होती दिखाई पड़ती है. कथा की फलश्रुति यह भी है कि नर्मदा को इसीलिए चिरकुंवारी नदी कहा गया है और ग्रहों के किसी विशेष मेल पर स्वयं गंगा नदी भी यहां स्नान करने आती है. इस नदी को गंगा से भी पवित्र माना गया है. मत्स्यपुराण में नर्मदा की महिमा इस तरह वर्णित है -‘कनखल क्षेत्र में गंगा पवित्र है और कुरुक्षेत्र में सरस्वती. परन्तु गांव हो चाहे वन, नर्मदा सर्वत्र पवित्र है. यमुना का जल एक सप्ताह में, सरस्वती का तीन दिन में, गंगाजल उसी दिन और नर्मदा का जल उसी क्षण पवित्र कर देता है.’ एक अन्य प्राचीन ग्रन्थ में सप्त सरिताओं का गुणगान इस तरह है.
‘गंगा कनखले पुण्या, कुरुक्षेत्रे सरस्वती, ग्रामे वा यदि वारण्ये, पुण्या सर्वत्र नर्मदा ।’
अर्थात्- गंगा कनखल में और सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है, किंतु गांव हो या वन नर्मदा हर जगह पुण्य प्रदायिका महासरिता है.
कथा 2 : इस कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है. नद यानी नदी का पुरुष रूप. (ब्रह्मपुत्र भी नदी नहीं ‘नद’ ही कहा जाता है.) बहरहाल यह कथा बताती है कि राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल की पुत्री थी. राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे. राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अतः उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ.नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी. विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची. जुहिला को सुझी ठिठोली. उसने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और चल पड़ी राजकुमार से मिलने. सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा. जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया. राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी. इधर नर्मदा का सब्र का बांध देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने. वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं. तुरंत वहा से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए. सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई. अब इस कथा का भौगोलिक सत्य देखिए कि जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दूषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है. रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के पूर्वी भाग में आज भी प्रचलित है.
कथा 3 : कई हजारों वर्ष पहले की बात है. नर्मदा जी नदी बनकर जन्मीं. सोनभद्र नद बनकर जन्मा. दोनों के घर पास थे. दोनों अमरकंट की पहाड़ियों में घुटनों के बल चलते. चिढ़ते-चिढ़ाते. हंसते-रुठते. दोनों का बचपन खत्म हुआ. दोनों किशोर हुए. लगाव और बढ़ने लगा. गुफाओं, पहाड़ियों में ऋषि-मुनि व संतों ने डेरे डाले. चारों ओर यज्ञ-पूजन होने लगा. पूरे पर्वत में हवन की पवित्र समिधाओं से वातावरण सुगंधित होने लगा. इसी पावन माहौल में दोनों जवान हुए. उन दोनों ने कसमें खाई. जीवन भर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ने की. एक-दूसरे को धोखा नहीं देने की. एक दिन अचानक रास्ते में सोनभद्र ने सामने नर्मदा की सखी जुहिला नदी आ धमकी. सोलह श्रृंगार किए हुए, वन का सौन्दर्य लिए वह भी नवयुवती थी. उसने अपनी अदाओं से सोनभद्र को भी मोह लिया. सोनभद्र अपनी बाल सखी नर्मदा को भूल गया. जुहिला को भी अपनी सखी के प्यार पर डोरे डालते लाज ना आई. नर्मदा ने बहुत कोशिश की सोनभद्र को समझाने की. लेकिनलेकिन सोनभद्र तो जुहिला के लिए दीवाना हो चुका था. नर्मदा ने किसी ऐसे ही असहनीय क्षण में निर्णय लिया कि ऐसे धोखेबाज के साथ से अच्छा है इसे छोड़कर चल देना. कहते हैं तभी से नर्मदा ने अपनी दिशा बदल ली. सोनभद्र और जुहिला ने नर्मदा को जाते देखा. सोनभद्र को दुख हुआ. बचपन की सखी उसे छोड़कर जा रही थी. उसने पुकारा-‘न…र…म…दा… रूक जाओ, लौट आओ नर्मदा .लेकिन नर्मदा जी ने हमेशा कुंवारी रहने का प्रण कर लिया. युवावस्था में ही सन्यासिनी बन गई. रास्ते में घनघोर पहाड़ियां आईं. हरे-भरे जंगल आए. पर वह रास्ता बनाती चली गईं. कल-कल छल-छल का शोर करती बढ़ती गईं. मंडला के आदिमजनों के इलाके में पहुंचीं. कहते हैं आज भी नर्मदा की परिक्रमा में कहीं-कहीं नर्मदा का करूण विलाप सुनाई पड़ता है. नर्मदा ने बंगाल सागर की यात्रा छोड़ी और अरब सागर की ओर दौड़ीं. भौगोलिक तथ्य देखिए कि हमारे देश की सभी बड़ी नदियां बंगाल सागर में मिलती हैं लेकिन गुस्से के कारण नर्मदा अरब सागर में समा गई. नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशीलमन महसूस करता है. कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है. पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है और वे कह उठते हैं नमामि देवी नर्मदे…. !