Holi बसंत के साथ जीवन के रंगों का भी त्योहार
बसंत में बिखरते पलाश के रंग और महुए की गंध
मथुरा-वृंदावन में चालीस दिन चलने वाली मशहूर होली शुरु हो गई है, फागुन में जब ब्रज की धरती पर स्वर्ग उतरता है तो बसंत के रंग खिलकर बिखर जाते हैं. फसलों की रंगत बदलकर सुनहरी होने लगती है और सरसों के पीले फूल अब नन्हें दाने हो जाते हैं. टेसू यानी पलाश फागुन की मस्ती में खिलखिला रहे हैं और अमराइयां बौर की मादकता से सराबोर हैं. दरअसल फागुन प्रकृति का रंगोत्सव ही है. मादकता इस मौसम का स्वभाव है.
फागुन के होने की दस्तक गीतों पर ढोल और ढप से साथ जवान होती जाती है. पूर्वांचल में फगुवा या फाग गीत प्रकृति के ही गीत हैं. मानव जीवन में भी विविध रंग हैं और उन्हीं को कुछ अनूठे तरीके से सामने रखता है बसंत का यह पर्व और फागुन. चरखी से निकलते गन्ने के रस, खेतों में मटर की फलियों का लुभावना आमंत्रण और केरी की आमद से खाने में खटास का शामिल होना इसी मौसम, इसी फागुन की नेमत है. रंग उत्सव यानी होली का डांडा गड़ जाना कई बदलाव का संकेत लेकर आता है और जब तक सूरज पूरा ताप न भेजने लगे तब तक की यह रुत महुए की वह गंध से भी सराबोर हो जाती है. फागुन जिंदगी को हसीन और रंगीन बनाए रखने का वह संदेश है जो प्रकृति अपने ही तरीके से हम तक पहुंचाती है.