Forest Fire जलते पेड़ों के बारे में कौन सोचेगा
हिमाचल में जंगल आग से नष्ट हुए जा रहे हैं. सिर्फ कुमाऊँ में पांच सौ जगहों पर आग धधकने कीह बात सामने आई है और इससे आप पूरे हिमाचल का अंदाजा लगा लें. पांच इंसान जल कर मर चुके हैं लेकिन इस आग में मरे जानवरों की कोई गिनती नहीं है. हवा में इस कदर धुआँ घुला है कि सांस लेना दूभर है. हर साल जंगलों का सुलगना जारी है लेकिन इस बार तो कुछ लोग ऐसे भी पकड़ाए हैं जो जंगल में आग लगाने को जेहाद से जोड़ते हैं. पिछले कुछ समय से आग लगने को आम मान लिया गया है और इसका समय वही होता है जब उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था संभालने वाले पर्यटन का सीज़न होता है. जलते जंगलों का दायरा हर साल बढ़ता जा रहा है. सुन्दर रही जगहें अब कालिख से पुती हुई और जहरीली हवा से भरी हुई हैं. सदियों से चारे के लिए अच्छी घास के लिए चीड़ की सूखी पत्तियों को नियंत्रित रूप से जलाया जाता था. नियंत्रण के लिए पतरौल और अगलैन जैसे पद बनाए गए थे. जंगल महकमा खातरी रखता था कि जंगल की इस आग से नुकसान न हो. उत्तराखण्ड
बनने के बाद इसके लिए एक विभाग बना लेकिन वह बुरी तरह असफल रहा.दरअसल हमने एक समुदाय होने का दायित्व ही नहीं निभाया है, सारी जिम्मेदारी सरकार के माथे देकर हम खुश हैं और सरकार कहती है कि शरारती तत्व आग लगा दें तो हम क्या करें. जंगल की आग में कीड़े-मकोड़े, तितलियाँ, छोटी झाड़ियाँ और संभावना वाले पेड़, चिड़ियों के नन्हे बच्चे घोंसले में ही मरते हैं. प्रकृति की पारिस्थितिकी डगमगाती है और यह सब स्कूलों में तो पढ़ाया नहीं जाता है. वनकर्मियों के नाम पर सिर्फ लाठी होती है और आग बुझाने का प्रागैतिहासिक तरीका ही अपनाया जाता है. पर्यावरण की चिंता किसी पार्टी का एजेंडा नहीं है. सरकार जब खुद विकास की योजनाओं के लिए सैकडा़ें हजारों पेड़ कुर्बान करने को तैयार है तो उसके सरोकारों में पेड़ और जंगल कैसे हो सकते हैं.