July 18, 2025
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पर्यावरण दिवस मनाने वाले आडम्बर की ‘बधाई’

बेजुबान पेड़, आसरा ढूंढते जीवों की गुहार…
-डॉ.छाया मंगल मिश्र

– घरों में कबूतर, पक्षी, छतों पर बंदर, झाड़ों पर पक्षी न तो आने पाए न घोसलें बना पाएं इनके लिए बिक रही हैं जालियां, नुकीले चटाई. आपका घर इनसे सुरक्षित. स्वार्थ की नदिया में क्रूरता की नाव में बैठ कर हिंसा के चप्पू चलाते, निर्ममता का जाल फेंक कर पर्यावरण दिवस मनाने वाले लोगों को भी आज के दिन के आडम्बर की बधाई कि प्रकृति देवी और मां वसुंधरा इन्हें सदबुद्धि दें. दया दें, संवेदना भरा हृदय दे. हमारा दुर्भाग्य ही है कि शहर अब तेजी से जंगलों और खेतों में आ रहें हैं और सारे पशु पक्षी पेड़ नदी विकास की चपेट में आ रहे हैं. खैर किसी को क्या लेने देना भाई… हम तो खुश हैं हमारा क्या बिगड़ रहा? ऐसे विकास प्रेमियों को भी आज पर्यावरण दिवस की शुभ कामनाएं. जो आज पेड़ पेड़ खेलेंगे.

जंगली पशु सड़कों पर निकल आए हैं या कहें उनके जंगलों पर हमने अपने नाखून गड़ाए हैं, शहर के अतिक्रमण पर जेसीबी चलाने चलवाने वालों को इनके घरों पर अतिक्रमण करते लज्जा नहीं आती. पक्षी भूखे प्यासे हमारी लालची प्रवृत्ति को भुगतने को मजबूर हैं. धरती के सारे जल स्त्रोत हमारे नाम को रो रहे हैं.पर्यावरण का कोई तो कोना ऐसा हो जो हमारा गुणगान करे. सभी जगह कुकर्म अपनी कहानी कह रहे हैं. बढ़ते शहरो के सीमेंट जंगलों की बालकनी गांवों के दालान खा गई, पंछियों के पेड़, घोंसले, आसमान खा गई. रेत की हवस नदियां सुखा गई. पहाड़ों से पत्थरों का लोभ, वृक्षों से लकड़ी, नगद फसल का लालच लगातार धरती मां का गर्भपात कर रहा.

अखंड गोद वाली धरती को बंध्या करने का महा पाप करते इंसान नदी से पानी, पहाड़ से औषधि, खेत से अन्न लेना भूलने लगा है. मां की गोद में केवल सूखे कूंएं,नदियां, सूखे,कटे पेड़ के ठूंठ/डूंड, बूंद बूंद बिकता पानी, तहस नहस मेड़ें ही बचीं हैं. हो सकता है कल को हवा भी बिकने लगे.

बढ़ता तापमान, बे मौसम बारिश, असंतुलित होता पर्यावरण हमें चेता रहा है. प्राकृतिक हादसे हमें चेतावनी दे रहे हैं पर हम मेजों बैठकर सवालों का हल ढूढ़ते है, चाय के प्यालों मे अपना कल ढूढ़ते है. घरों मे उगा लिए प्लास्टिक के पौधें, वीरान जंगलों मे ताजे फल ढूढ़ते है. मर रहीं नदियां, उजड़ रहे पहाड़, लेकिन पिकनिक को फिर भी बर्फीली वादियां आजकल ढूंढते है.

याद रहे हमारे वेद-पुराणों में इनकी पूजा अर्चना, इनकी महत्ता को गाया है. हमारा अस्तित्व इनके कारण ही है. त्यौहार इनकी वैज्ञानिक महत्ता पर आधारित है. धर्म इसी की नींव से जन्मा है. बावजूद इसके यदि हम इसकी रक्षा नहीं करते तो विनाश निश्चित है… क्योंकि प्रकृति अपना बदला जरूर लेती है.