Bangladesh निर्वाचन से निर्वासन तक शेख हसीना
-आदित्य पांडे
असली निशाना तो कहीं और है
निर्वाचन और निवार्सन में सिर्फ एक शब्द का फेर है लेकिन इसमें फर्क कितना है इसे बांग्लादेश की स्थित से समझिए. बांग्लादेश की सत्ता दशकों से बेगम खालिदा जिया और मुजीबुर्रहमान की बेटी शेख हसीना के बीच झूलती रही है लेकिन शेख हसीना शायद इकलौती ऐसी राष्ट्रप्रमुख होंगी जिन्होंने अपने जीवनकाल में बार बार जान लेने के प्रयास ही नहीं निर्वासन भी झेला है और इस मामले में उनका मुकाबला यदि किसी से है तो आंग सान सू की ही हो सकती हैं.
शेख हसीना 15 अगस्त 1975 को अपनी बहन से साथ जर्मनी में थीं जब उनके पिता सहित उनके परिवार के 18 लोगों की हत्या कर दी गई थी तब भी उन्हें भारत में शरण दी गई थी और वो मिसेज मजूमदार बनकर भारत में लगभग छह साल रही थीं. भारत में निवार्सन खत्म कर जब वो ढाका पहुंचीं तो उसके कुछ ही दिन बाद फिर उन्हें भागने की जरुरत पड़ी और तब भ्ज्ञी वो भारत की ही तरफ आई थीं लेकिन उन्हें सीमा पर पकड़ लिया गया था. अब जब अगस्त के महीने में उनके खिलाफ तख्ता पलट उनके ही पारिवारिक व्यक्ति और सेना प्रमुख ने कर दिया तब फिर उन्हें भारत में ही शरण सबसे बेहतर नजर आई.
यह बात अलग है कि वो अब आगे भी कहीं शरण ले सकती हैं लेकिन जब आपका आर्मी चीफ आपको कुछ मिनट की समय सीमा में इस्तीफा देने को कह दे, जब आप सामान समेटने के चंद सेकंड भी न जुटा पाएं और जब पागल भीड़ प्रधानमंत्री आवास में हत्या के इरादे से आपको घेरने की मंशा में हो तब भारत में ही शरण लेना उन्हें सुरक्षित लगा, यह उन लोगों के मुंइ पी करारा तमाचा है जो भारत में डर लगने का राग भारत में ही रहते हुए अलापते रहते हैं, वे ही सोचें कि क्यों शेख हसीना ने जीवन और मरण के चंद मिनटों में भारत ही आना पसंद क्यों किया और क्यों उन्होंने पचास से ज्यादा उन मुल्कों का रुख नहीं किया जहां ‘या इलाहा’ के नारे से एकजुटता बताई जाती है. हसीना समझ नहीं सकीं कि न सिर्फ उनके आसपास बल्कि उनके घर के अंदर तक उन एजेंसियों की पैठ हो चुकी है जो एक बढ़ते हुए मुल्क को देखना पसंद नहीं करते और उस पर हसीना का चीन के दबाव में न आना आग में घी का काम कर रहा था. बाहर से दिखने में भले चीन और अमेरिका दो अलग ध्रुव नजर आते हों लेकिन इस बात पर दोनों एक हो जाते हैं कि किसी देश को ताकतवर होने देने से रोकना ही इनके अस्तित्व को बचाने का तरीका है और जब पाकिस्तान जैसा पिट्ठू मौजूद हो तो दोनों देशों को इस बात का भरपूर फायदा उठाने के बारे में सोचना ही था.
अब हसीना का बेटा कह रहा है कि मां का बांग्लादेश में आना ही मुश्किल है, सत्ता से नाता तो बहुत दूर की बात है. जब उम्र अस्सी के करीब हो रही हो और हालात ऐसे बन जाएं तो यह कह देना बहुत आसान है लेकिन जिस तरह की आग लगाकर सत्ता पलट किया गया है और बेगम जिया को छोड़ने का ऑर्डर जिस तेजी से हुआ है वह कह रहा है कि हसीना को विस्थापित करने वाले खुद भी डरे हुए हैं, डरना भी चाहिए. जो भीड़ आज पीएम हाउस में घुसकर पीएम के बिस्तर पर कुछ देर आराम फरमा कर फोटो डाल रही है या सांसदों की सीट पर बैठकर संसद को शर्मसार कर रही है वह हमेशा तो यहां बैठी नहीं रहेगी. वह पूछेगी कि रजाकारों पर सरकार क्या कर रही है और स्वतंत्रता सेनानियों के लिए उसके क्या विचार हैं.
वह जानना चाहेगी कि इतने खून खराबे के बाद क्या वाकई उसे आरक्षण के रहने और हटने से कोई बड़ा फर्क पड़ रहा है, उसे भी धीरे धीरे समझ आएगा कि जिस आर्थिक गति से बांग्लादेश आगे बढ़ रहा था उस गति रुकने का क्या मतलब होता है और यह भी कि सेना यदि कठपुतली सरकार बना भी देगी तो हश्र पाकिस्तान जैसा ही होगा, कल के दृश्य तो यही कह रहे थे कि बांग्लादेश नाम की कोई जगह अब बची ही नहीं है बल्कि यह 1971 का वही पूर्वी पाकिस्तान है जो अराजकता से घबराकर टूटा था और मुजीब ने जिसे बांग्लादेश का नाम दिया था. इतने दुखों, इतने जानलेवा प्रयासों और इतनी बार निर्वासन झेल चुकी हसीना की उम्र भी पक चुकी है इसलिए चिंता उनकी नहीं है बल्कि चिंता तो इस बात की होना चाहिए कि डीप स्टेट इस क्षत्र में क्या करवाना चाह रहा है, चीन और अमेरिका के बीच क्या म्यांमार, श्रीलंका और बांग्लादेश या नेपाल जैसे देश किसी फुटबॉल मैच में लतियाई जा रही फुटबॉल से ज्यादा अहमियत रखते हैं? अब मामला किसी हसीना या खालिदा जिया से कहीं आगे पहुंच चुका है और भारत भी समझ रहा है कि उसके आसपास के देशों में इतना वितंडा खड़े किए जाने के पीछे असली निशाना कौन है.