151 MP, MLA के खिलाफ महिला अपराधों के मुकदमे
दागी सांसदों और विधायकों के बढ़ते ही जा रहे हैं आंकड़े
हाल ही में एडीआर (एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) ने एक रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि 151 मौजूदा सांसदों और विधायकों पर महिलाओं के प्रति अपराध के मुकदमे हैं और यह जानकारी खुद इन जनप्रतिनिधियों ने अपने चुनावी हलफनामों में दी है.
इनमें 16 सांसद और 135 विधायकों पर तो बलात्कार जैसे मामले हैं. इन जनप्रतिनिधियों में भाजपा के 54, कांग्रेस के 23, तेलुगु देशम के 17 जनप्रतिनिधि शामिल हैं. 25 ऐसे माननीय पश्चिम बंगाल से आते हैं. यानी सर्वाधिक दागी नेताजी यहां से हैं. संस्था एडीआर ने 2019 और 2024 के चुनावों के दौरान निर्वाचन आयोग तक पहुंचे सांसदों और विधायकों के 4809 हलफनामों में से 4693 की जांच कर यह तथ्य सामने रखा है. दागी जनप्रतिनिधियों की संख्या में कमी नहीं आ रही. यानी राजनीतिक दलों का ऐसे लोगों से परहेज नहीं है और न ही निर्वाचित करते समय जनता इसे तवज्जो दे रही है. यह स्थिति किसी भी संसदीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है.
सर्वोच्च अदालत ने पूर्व और मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों का जल्द निपटारा करने का प्रयोग भी कर देख लिया गया और इनकी जल्द सुनवाई के लिए यह भी निर्देश था कि किसी मुकदमें में उच्च न्यायालय की रोक हो तो उसे भी जल्द हटा कर फैसला लिया जाए. अदालतों ने तेजी दिखाई तो माननीयों को सांसदी और विधायकी से हाथ भी धोना पड़ रहा है लेकिन सवाल तो ऐसे लोगों को चुने जाने का है. सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि भ्रष्टाचार देश का दुश्मन है और संविधान की संरक्षक की हैसियत से आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोग मंत्री न बनाए जाएं तो बेहतर होगा लेकिन इस नसीहत का ज्यादा असर पड़ता दिख नहीं रहा. व्यवस्थापिका यूं भी कार्यपालिका में ज्यादा हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझती लेकिन दागी माननीयों के मामलों में एससी कई बार सख्त टिप्पणी दे चुका है पार्टियां अपने जनप्रतिनिधियों को बचाने के लिए कुतर्क देने में पीछे नहीं हटती हैं.
जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के साथ जब जेल से चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की बात आई तो राजनीतिक दलों ने खूब बखेडा किया. पार्टियां चुनाव में दागियों को टिकट न देने पर सहमत तो होती हैं लेकिन उम्मीदवार उतारते समय उन्हें दागी ही पसंद आते हैं. अखबारों और टीवी में इनकी अपराधिक पृष्ठभूमि दिखाने की बात आई तो चुनाव आयोग की अधिसूचना के बाद उम्मीदवार छोटे अखबार में ब्यौरा देकर खानापूर्ति कर चुनाव लड़ते रहे. ऐसे में दागियों के बारे में जनता को ज्यादा पता ही नहीं चलता. चुनावी समय में दागी उम्मीदवारों पर भरोसा जताते राजनीतिक दलों को विश्वास रहता है कि जो जितना बड़ा दागी है वह चुनाव जीतने के लिए उतना ही योग्य है. इस ट्रेंड को लगातार बढ़ावा ही मिला है. वैसे इस सबके लिए सिर्फ राजनीतिक दल ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि जनता सहित कई स्तंभ बराबर के भागीदार है.जाति और मजहब के आधार पर बाहुबलियों को चुने जाने का ट्रेड तो जनता भी समझती ही है ना. पार्टियां तो उन्हें ही टिकट देंगी जिनकी किसी भी समीकरण के चलते जीतने की संभावना हो.