Tower Of Silence, गिद्धों की कमी और रतन की अंत्येष्टि
पारसियों की पारंपरिक पद्धति अपनाते लेकिन उसके लिए गिद्ध जरुरी
मशहूर उद्योगपति औार टाटासंस के चेयरमेन एमिरेटस रतन टाटा के न रहने पर उनका अंतिम संस्कार इलेक्ट्रिक शवदाह के जरिए आखिर क्यों तय किया गया. चूंकि रतन टाटा पारसी थे इसलिए सामान्य परंपरा के तहत उन्हें टॉवर ऑफ साइलेंस में ले जाया जाना था. टॉवर ऑफ साइलेंस उस कुंएनुमा जगह को कहा जाता है जहां पर पारसी शवों को अंतिम रुप से प्राकृतिक रुप से खत्म होने या गिद्ध जैसे मांसभक्षियों द्वारा खाने के लिए छोड़ आते हैं और इस प्रक्रिया को दखमा कहा जाता है.

समय के साथ पारसियों की जनसंख्या तो घ्हटकर एक लाख से भी कम रह ही गई है लेकिन उनके शवों को निपटाने वाले गिद्धों की संख्या तो 99 प्रतिशत तक कम हो गई है. इस कमी को पूरी करने के समाज ने गंभीर प्रयास भी किए लेकिन ये प्रयास अब तक तो सफल नहीं हुए हैं और यही वजह है कि पारसी समाज को वैकल्पिक व्यवस्थाओं पर ध्यान देना पड़ा है और इलेक्ट्रिक शवदाह इनमें से एक है. इंदिरा गांधी के पति फिरोज जैसे कुछ लोग ऐसे भी रहे हैं जिन्हें पारंपरिक पारसी तरीका पसंद न होने से उन्होंने अपने शव को दाह संस्कार करने के निर्देश पहले ही दे दिए थे फिर भी परंपराओं को काफी महत्व देने वाले इस समाज में वैकल्पिक व्यवस्था चुनने वालों को परंपरावादी पारसी अपने ही तरीके से सामाजिक तौर पर कुछ रस्म न निभाने देकर यह बताते हैं कि उन्होंने परंपराएं तोड़कर गलत किया है.
किसी दाह संस्कार करवाने वाले परिवारा वाले को प्रेयर हॉल में गेह सारनू पढ़ने से रोक दिया जाता है तो किसी को शांति प्रार्थना अहनावेति की अनुमति नहीं दी जाती लेकिन गिद्धों की शून्य होती संख्या ने समाज को इस बात पर मोड़ ही दिया है कि वे अपने तरीके से इतर जाकर शव का निपटान करें. रतन टाटा से पहले साइरस मिस्त्री का इसी तरह इलेक्ट्रिक शवदाह किया गया था जबकि उससे महज चार माह पहले साइरस के पिता की मृत्यु पर उन्हें टॉवर ऑफ साइलेंस पर दखमा दिया गया था. दरअसल जब अपने भाई की मृत्यु पर जेआरडी टाटा ने इस बात पर जोर दिया कि हमें अपने समाज के शवों के निपटान के लिए सम्मानजनक विधि अपनानी होगी उसके बाद से पारसी समाज ने दखमा प्रक्रिया को कुछ हद तक कम किया है. चूंकि दुनिया भर में जितनी आबादी पारसियों की है उसकी आधी से ज्यादा मुंबई में रहती है इसलिए ऐसे सुधार के लिए मुंबई में ही वरली में प्रेयर हॉल और अलग व्यवस्थाएं अपनाई गई ताकि प्रार्थनाओं के बाद शव का दाह किया जा सके. हालांकि अब भी बहुत से पारसी परंपरागत तरीके को ही पसंद करते हैं और यही वजह है कि गिद्धों की आबादी बढ़ाने के लिए अब भी समाज प्रयासरत है लेकिन टाटा जैसे भी परिवार हैं जो चाहते हैं कि समाज आज के हालात समझे और उसके अनुरुप खुद को ढाले