April 30, 2025
देश दुनिया

Pahalgam सिलेक्टिव हो तो रहो, लेकिन इंसानियत को तो जिंदा रहने दो

पहलगाम घटना के बाद नैरेटिव सेट करने के खेल पर वरिष्ठ पत्रकार स्मृति आदित्य का आलेख

-शर्मनाक, दर्दनाक, खौफनाक….

स्तब्ध..नि:शब्द…. चीख,आंसू, पीड़ा… और इन सबके बीच साहित्यकारों, पत्रकारों, नेताओं, फेसबुकियों की विचारधारा के तमाशे….

जो हुआ उसे नकारने की बेसब्री, जो कभी होगा नहीं उसे थोपने की चालाकी…

प्रतिक्रिया की इतनी हड़बड़ी क्यों? एक दूसरे को काटने की, खा जाने की निम्न स्तरीय प्रतिस्पर्धा चल रही है…

अपने मन पर हाथ रखो, खुद को उस मंज़र में देखने की कल्पना करो, उस भयावहता को महसूस करने की कोशिश करो फिर शांत दिमाग से सोचो क्या यह समय है जब आप विचारधारा की डाल पर झूले डालकर जो हुआ उस पर अपने नज़रिए का जाल बिछाकर वह बोलने को बाध्य करो जो तुम सोच रहे हो, जो तुम चाह रहे हो… इतनी बेशर्मी कहाँ से लाते हो?

खुद में सही को सही और गलत को गलत कहने का साहस है नहीं और लानत भेज रहे हो उन पर जो संवेदना के साथ उनके बाजू में खड़े हैं जो अपना सबसे अनमोल रिश्ता खो कर आए हैं….

क्या कभी आँखों के सामने से वो तस्वीर धुंधली होगी जब उस कनपटी पर गोली चली होगी जिसे चूमते हुए जीवन के सुनहरे ख्वाब सजाए होंगे…

जिस दृश्य की कल्पना भी दुष्कर है तुम उस पर टिप्पणी फेंक रहे हो पत्थरों की तरह… कितनी तेजी से तुम उस तरफ जाकर बैठ जाते हो यह देखते हुए कि कहीं मारने वालों को कोई गाली तो नहीं दे रहा…

अरे रुक जाओ थोड़ी देर बाद में निभा लेना कुत्सित विचारधारा, क्षुद्र राजनीति, खोखली प्रतिबद्धता…. सिर्फ इंसान को इंसान समझ लो. ज़िन्दगी को ज़िन्दगी मान लो, मौत को संजीदगी से मौत मान लो… हत्या को हत्या कहने के लिए किसी शब्दकोष को मत खंगालो… पुचकार लेना उनको भी पर वक़्त तो देखो…

आपके अपने आसपास के, आपके अपने देश के कुछ लोग बेवजह मार दिए गए दो मिनट मौन नहीं हो सकते? न सही, श्रद्धांजलि नहीं दे सकते? न सही, कंधे पर हाथ नहीं रख सकते? न सही,आँखों में पानी नहीं आता न सही…गला तुम्हारा नहीं रुंधता न सही पर एक बार सिर्फ एक बार हादसे और सदमे की गंभीरता, वक़्त की नज़ाकत को समझ लेने की समझदारी ही दिखा दो….

बाद में कर लेना घटना का विश्लेषण, कारण की खोज, मार डालने की बेबसी (?) पर शोध, बाद में कर लेना इतिहास की चलनी से छलनी होते शरीर को देखना….

अभी चिता की आग ठंडी नहीं हुई, अभी क़ब्र के फूल मुरझाए नहीं… और तुम सब में जहरीली उल्टियां करने की होड़ मची है…

जब वहां के सैनिक स्कूल से निर्दोष बच्चे घर नहीं लौटे तो उतनी ही सघन पीड़ा सबको हुईं थी…एक साथ हम सब दहले थे पर पहलगाम के पर्यटकों के लिए प्यार की झील क्यों सूख गई?? पानी बंद हुआ तो उस प्यास से तुम्हारी अकुलाहट ज्यादा बढ़ गई लेकिन खून की प्यास तुम्हें क्यों नज़र नहीं आई…

सिलेक्टिव हो तो रहो सिलेक्टिव… पर थोड़ी इंसानियत, ज़मीर और जज़्बा उनके लिए भी ज़िंदा रखो… जो आज बिलख रहे हैं…

कम से कम टूरिस्ट और टेरेरिस्ट में से तो एक को चुनो बाकी तो जो तुम्हारी सुविधा है वहां जाकर भाईचारा मंत्र जपो जहाँ ‘भाई’ को ‘चारा’ बना कर चर लिया गया है… बस दुख को दुख कहो उसकी तुलना किसी दूसरे दुख से करने से तुम नज़र से गिर रहे हो… बस यही कहना था…