Hamdard और शरबत का कश्ता वाला चिपचिपा नुस्खा
अमेरिका से मनजी की कलम से
आज भी रुह आफजा की कमाई का 85 प्रतिशत वक्फ को जाता है
हाल में रूह अफ़ज़ा को लेके अच्छा खासा विवाद पैदा हुआ है. बाबा रामदेव ने हालांकि कोई भी ग़लत तथ्य नहीं कहा – बस अंतर ये है कि बाबा ने अपने शरबत को रेस में आगे रखने हेतु ये एंगल रख लिया और समस्त सेक्युलर बिरादरी को मिर्च लग गई. रूह अफ़ज़ा का इतिहास तो खैर अब खूब सबको मालूम चल चुका है. रूह अफ़ज़ा का इतिहास जनाब मीर मुंशी म्या के बयानत से कुछ ऐसा है. रूह अफ़ज़ा बनाने वाली फर्म हमदर्द है जो यूनानी चिकित्सा आधारित है. सबसे पहले इस चिकित्सा के बारे में जानिये- यूनानी चिकित्सा का जन्म यूनान में हुआ था | युनान से आकर यह अरब देशों में पल्लवित और पुष्पित हुई और मुसलमान शासकों के साथ भारत में आकर खूब विकसित हुई | यूनानी चिकित्सा वाले डॉक्टर्स को हकीम कहा जाने लगा था. मुग़लिया बादशाहों के दरबार में ईरान अरब आदि से ढेरों हकीम आया करते रहे जिन्होंने बादशाह टेस्ट लेते और फिर दरबार में बतौर डॉक्टर नौकरी दे देते. मसलन अकबर का हकीम वाला इम्तिहान होता था कि वो हर हकीम के समक्ष तरह तरह के मूत्र रखवाया करता-स्वस्थ आदमी का, बीमार का, घोड़े का, बकरे का. जो हकीम मूत्र परीक्षण पास कर लेता उसे नौकरी मिल जाती थी. भारत में आयुर्वेद और वैद्यों की परंपरा सदियों से थी जो इस काल में हाशिए पे चली गई. मनुची जैसे यूरोपियन डॉक्टर भी इधर अपना सिक्का जमाने लगे थे.
पहले जमाने में यूनानी हकीम हुआ करते थे, वे कुश्ता बनाया करते थे, सोने का कुश्ता, चांदी का कुश्ता, संखिया का कुश्ता, और न जाने क्या क्या कुश्ते तैयार करते थे, और कुश्ते बनाने के लिये वे सोने को जलाते थे, इतना जलाते थे कि वह सोना राख बन जाता था, और कहते थे कि सोने को जितना ज़्यादा जलाया जायेगा, उतना ही उसकी ताकत में इजाफा होगा, जला जला कर जब कुश्ता तैयार किया तो वह कश्ता-ए-तिला तैयार हो गया. कोई उसको ज़रा सा खा ले तो पता नहीं कहां की कुब्वत आ जायेगी. तो जब सोने को जला जला कर, मिटा मिटा कर, पामाल कर कर के राख बना दिया तो अब यह कुश्ता तैयार हो गया. औरंगेज़्ब के ज़माने तक इन हकीमों का मुख्य काम यौन समस्याएं दूर करना था- शाहजहाँ ख़ुद एक कुश्तों का विशेषज्ञ था. कुश्तों के अलावा ये हकीम शरबत और अर्क बनाने में निपुण होते थे. अपने शिफाखाने या दवाखाने में ख़ुद के नुस्ख़ों को पाउडर रूप या अर्क रूप में दवाई दी जाती थी. ऐसे ही एक ईरानी मूल के यूनानी हकीम के लड़के थे- जनाब हाफ़िज़ अब्दुल मजीद साहब. बचपन से होली बुक हाफ़िज़ करने वाले अब्दुल हकीम बने जब उन्होंने एक यूनानी हाकिम की शागिर्दी कबूली . फिर पुरानी दिल्ली में अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान एक छोटा सा दवाखाना खोला. प्रैक्टिस चल पड़ी- ज़माना था 1905 का. हकीम साब के अधिकतर मरीज पुरानी दिल्ली के बाशिंदे थे, दीनी थे. पाक महीने में गर्मी से बेहाल इन मरीजों का इलाज करना टेढ़ी खीर था. दिन भर के भूख प्यास से बेहाल मरीजों के लिए हकीम साब ने एक शरबत बनाया- अत्यधिक चीनी के घोल से तैयार ये शरबत बड़ी देग में रखा रहता जिसे शाम को रोजा खोलने से पहले राहगीर मरीज आदि सब को दिया जाता था.
शरबत हिट हुआ- इंस्टाल सुगर सप्लाई थी- पी कर दिन भर की प्यास तुरंत बुझ जाती थी. अब हकीम साब ने शरबत का नाम रखा- रूह आफ़ज़ा- वो शरबत जो रूह की भी प्यास बुझा दें. लेकिन चालीस बरस में हकीम खुदा गंज की सैर पे निकल पड़ें- पीछे रह गई बेवा बेगम और दो लड़के- बड़ा लड़का चौदह वर्षीय हाफ़िज़ अब्दुल हमीद. बड़े लड़के ने दवाखाना संभाला- बरकत होती रही- व्यापार पनपता रहा.
फिर आया बँटवारा- छोटा बेटा पाकिस्तान चला गया और बड़े हकीम साब देहली में ही रह गए. बंटवारे के दौरान हुए कांडों के चलते हकीम साब ने हमदर्द को वक़्फ़ में तब्दील कर दिया- केवल 15 प्रतिशत कमाई कुनबे को मिलनी थी और बाक़ी 85 प्रतिशत वक़्फ़ को जाती. सिलसिला 1948 से शुरू हुआ- आज तक चल रहा है. हमदर्द का एक्सपेंशन चच्चा से लेके बड्डे पप्पू साहब के कार्यकाल तक चला.
आज भी पाकिस्तान में हमदर्द का रूह अफ़्ज़ा रोजेदारों की पहली ड्रिंक है- इसके बैगेर अधिकतर लोग हलक से कुछ नहीं उतरना पसंद करते है.
तो- मुद्दे की बात-
रूह अफ़ज़ा कॉन्सेंट्रेटेड शुगर सिरप है- लाल रंग का चिपचिपा ड्रिंक पिछले सत्तर साल से इंडियन मार्केट में पकड़ बनाये हुए है. भारतीयों को वैसे भी अत्यधिक मीठी वस्तुएं खाने पीने में बहुत पसंद है. आज भी इसकी 85 प्रतिशत कमाई वक़्फ़ के काम आती है. यदि आपको चीनीदार लाल पानी पीना पसंद है, फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस पैसे का कैसे प्रयोग होगा तो रूह आफज़ा पीने में कोई बुराई नहीं. लेखक बाबा वाला शरबत पीने की अनुशंसा नहीं करता है. वैसे इन हकीमों का मुख्य काम शरबत बनाना नहीं- कुश्तें बनाना था. यकीन ना आयें तो हाशमी दवाखाना का नाम याद कर लेना!