June 26, 2025
देश दुनिया

Emergency लंबे समय जारी रहती यदि संजय की मर्जी चलती

21 महीने की इमरजेंसी खत्म होने की वजह भी संजय और इंदिरा के मतभेद से जुड़े हैं

देश आज एक ऐसे दंश की पचासवीं सालगिरह पर खड़ा है जिसने भारत के लोकतंत्र के सुनहरे अध्याय में सबसे मटमैला पन्ना जोड़ दिया था. 25 और 26 जून 1975 की दरम्यानी रात दिल्ली में प्रधानमंत्री निवास से लेकर राष्ट्रपति भवन तब एक हलचल मची थी जिसने भारत को एक 21 महीने लंबे आपातकाल में धकेल दिया था. इमरजेन्सी की घोषणा ही अपने आप में भारतीय संविधान के लिए बउ़ा झटका था क्योंकि इंदिरा ने 25 जून को शाम 5 बजे राष्ट्रपति से मुलाकात की और रात 11.30 बजे इमरजेन्सी लागू हो गई जबकि केबिनेट 26 जून को बुलाई गई जिसमें इमरजेन्सी की स्वीकृति हुई, किसी के चूँ चपड़ करने की हिम्मत तक न हुई. इमरजेन्सी के कंलक के काले धब्वे इतने गहरे हैं कि भारत में जबतक लोकतंत्र जिंदा बचा रहेगा तबतक वे काले धब्वे दिखेंगे. इमरजेंसी हमारे देश के लिए दूसरी गुलामी थी. दरअसल इमरजेंसी लगाने की वजह सिर्फ दो थीं, चुनाव में इंदिरा गांधी को गड़बड़ी करने का दोषी पाया गया था और इलाहाबाद हाइकोर्ट का यह फैसला सत्ता में बैठी हजम नहीं कर पा रही थीं और दूसरा यह कि अपने बेटे संजय गांधी की असीमित सत्ता वाली इच्छा के आगे वो बेबस भी थीं. तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा सरकार की सिफारिश पर अनुच्छेद 352 का उपयोग करते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी थी. आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय बतौर ही याद किया जाता है. 1977 में भी यह आपातकाल नहीं हटता यदि तब कांग्रेसियों और सरकारी मशीनरी ने इंदिरा गांधी को ठीक वही फीडबैक नहीं दिया होता जो वो चाहती थीं यानी कि इंदिरा को भरोसा दिलाया गया कि आपकी लोकप्रियता तो इतनी है कि जनत्ता आपको चुनाव में जितवा ही देगी. हालांकि संजय गांधी चुनाव नहीं चाहते थे लेकिन इंदिरा ने उन्हें भरोसा दिला दिया और चुनाव हुए. यदि वो संजय के चुनाव न कराने व इमरजेन्सी बनाए रखने की राय को मान लेतीं तो पता ही नहीं कि आपातकाल कितना लंबा हो जाता. पत्रकार कुलदीप नैय्यर की किताब ‘द जजमेंट’ में संजय गांधी का जो इंटरव्यू है उससे साफ है कि चुनाव कराने या न कराने पर संजय की राय इंदिरा से ठीक उलट थी. नैय्यर ने लिखा है कि मैं संजय से मिला तो मेरा पहला प्रश्न यही था कि उन्हें इतना भरोसा कैसे हो गया कि इमरजेन्सी से जुड़ी ज्यादतियों को जनता भूलकर चुनाव में उन्हें जीत मिल जाएगी. नैय्यर के सवाल के जवाब में संजय गांधी ने कहा कि कोई चुनौती नहीं थी. हम 20 या 25 साल तक भी इमरजेन्सी जारी रखते तो दिक्कत नहीं होती.
दूसरे प्रश्न में जब उनसे पूछा गया कि इसके बाद भी आपने चुनाव कैसे करवाए, इस पर संजय का जवाब कुछ यूं था कि चुनाव मैंने नहीं करवाए बल्कि मैं तो इसके खिलाफ था लेकिन मां नहीं मानी. इसलिए यह सवाल अब आप उन्हीं से पूछिए. दरअसल 21 महीने की इमरजेंसी के दौरान इंदिरा दो चीजें समझ चुकी थीं, पहली यह कि एक तो उन्हें इमरजेंसी का नतीजा कहीं न कहीं भुगतना ही है और दूसरा यह कि संजय गांधी के बढ़ते दायरे और जुल्म के चलते उन्हें संजय की बातें मानने से किसी न किसी स्तर पर तो इंकार करना ही होगा. वही हुआ कि उन्होंने संजय गांधी की इच्छा के खिलाफ जाकर चुनाव कराने का निर्णय लिया और जनता ने उन्हें बुरी तरह हराया भी. दरअसल संजय ने इमरजेंसी में सत्ता की पूरी लगाम अपने हाथों में ले ली थी और चुनाव कराना इंदिरा का वह कदम था जिससे वो सत्ता पर अपना दावा दिखा तो सकती ही थीं क्योंकि चुनाव उन्हीं के नाम पर लड़ा जाना था. संजय गांधी इंद्रकुमार गुजराल के प्रेस को ‘ठीक करने’ के सुझाव पर मीडिया से दुश्मनी कर ही बैठे थे और इंदिरा के चुनाव हारने की यह भी बड़ी वजह रही. जब तक इमरजेंसी रही तब तक तो अधिकतर मीडिया हाउस संजय गांधी के सामने रेंग रहे थे. जिनमें बड़े कहलाने वाले हाउस भी शामिल थे.