Dainik Bhaskar क्यों छुपा गया कल्पेश मामले की ताजा खबर
जब सुसाइड किया तब कल्पेश संस्था के ग्रुप एडिटर थे और इंदोर कैंपस में ही उनकी मौत हुई लेकिन इससे जुड़ी खबरें अब तक हैं बैन
एक सज्जन थे जो सुसाइड करते समय तक दैनिक भास्कर के समूह संपादक थे लेकिन हद देखिए कि भास्कर ने उसी दिन, उसी समय से उनसे किनारा कर लिया जब वे मृत घोषित किए गए. अगले दिन जब लोगों ने यह समाचार पढ़ा तो उन्हें पता चला कि कल्पेश याग्निक की मौत दिल के दौरे से हुई है यानी अपने लाखों पाठकों को अखबार ने अपने ही कैंपस में हुई आत्महत्या और अपने ही समूह संपादक की मौत के बारे में झूठ खबर दी थी. फिर सारा मामला सामने आया कि वो एक अदना सी रिपोर्टर रही एक महिला से ही परेशान थे जो उन्हें ब्लैकमेल कर रही थी और जिसे उन्होंने ही न सिर्फ ऊंचाइयों तक पहुंचाया था बल्कि उसकी मर्जी का हर काम उसी के हिसाब से किया गया. जब आपका संस्थान ही आपसे पल्ला झाड़ ले तो न्याय की उम्मीद धूमिल हो ही जानी थी और हुआ यही कि ब्लैकमेलर महिला के वकील ने भास्कर की ही कॉपी पेश करते हुए तर्क रख दिया कि जब किसी को दिल का दौरा पड़ा हो तो किसी दूसरे व्यक्ति पर उसे आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला कैसे चल सकता है. यानी केस को उलझाने में भास्कर की झूठी रिपोर्टिंग ज्यादा प्रभावी हो गई. फिर यूं हुआ कि ब्लैकमेलर महिला को जमानत मिल गई, वह बिंदास अपने घर से लेकर मुंबई और इंदौर में घूमने लगी लेकिन तारीख पर उसे आने की जरुरत नहीं महसूस हुई. कहानी में ट्विस्ट तब आया जब इस महिला की सगी भाभी ने दी हुई जमानत वापस ले ली क्योंकि इसके भाई से भाभी का झगड़ा हो चुका था.
ब्लैकमेलर सलोनी अरोरा ने जमानत की जुगाड़ें भिड़ानी शुरु कीं तो उनके वकील ने उन्हें बढ़ चढ़कर साथ दिया और अपनी बहन के अलावा एक ऐसे व्यक्ति से जमानत दिलवा दी जो फर्जी जमानत मामले में पकड़ा जा चुका था और जिसे अदालत ने जमानत दे पाने के अधकिार से भी वंचित कर दिया था. इसका मतलब साफ था कि सलोनी की जमानत भी फर्जी थी और उसका बाहर आना कानून की आंखो में धूल झोंकना था. जब कानून को अंधा कहा ही जाता है तो उससे यह उम्मीद बेमानी थी कि वह इस फर्जीवाड़े को पकड़ेगा और इसी नाउम्मीदी के चलते मृतक कल्पेश के भाई नीरज ने इस सब पर पैनी निगाह रखी और अदालत से लेकर पुलिस तक को इस बारे में अवगत कराते रहे कि ब्लैकमेलर और उसके साथी मिलकर कानून का कैसे मजाक बनाने की कोशिश में हैं. इतनी सक्रियता नीरज न दिखाते तो शायद सलोनी सहित ये सभी फर्जीवाड़ा करने वाले कभी पकड़ में ही नहीं आते…अब ये सारा फर्जीवाड़ा तो सामने आ गया है लेकिन एक बड़ा सवाल उस अखबार पर है जो सच के साथ बेधड़क खड़े होने की बात करता है जो दूसरों को खबरें दबाने वाला बता बताकर खुद आगे बढ़ा है लेकिन जब बात इस मामले की आती है तो वह अपने ही पूर्व ग्रुप एडिटर की मौत वाले मामले में एक लाइन की खबर दे पाने की हिम्मत नहीं कर पाता. उसे तब सांप सूंघ जाता है जब अपनी ही एक पूर्व कर्मचारी के अपराधों के बारे में दुनिया को बताने की बारी आती है. उसकी सांसे थम जाती हैं जब उसे यह बताने का मौकर आता है कि कैसे उसके सिस्टम ने किसी एक व्यक्ति को इस हद तक परेशान करने और एक को इतना परेशान होने का माहौल बना दिया कि सुसाइड जैसा कदम उठाने को एक ग्रुप एडिटर लेवल का व्यक्ति मजबूर हो जाए. सलोनी अरोरा को पुलिस ने गिरफ्तार किया, उसे अगले दिन कोर्ट में पेश किया गया, कोर्ट ने उसकी रिमांड दे दी, इन सबके बीच वह बीसियों बार कैमरों के सामने से गुजरी लेकिन न भास्कर के क्राइम कवर करने वालों को यह खबर बनाने दी गई और न फोटोग्राफरों का कोई फोटो ही एक लाइना कैप्शन के साथ ही छापा गया. ये उस अखबार की हकीकत है जो सच के नाम पर अपना अखबार बेचता है लेकिन उसमें इतना दम नहीं हे कि अपने ही ग्रुप एडिटर और रिपोर्टर से ऊंचाईयों तक पहुंचाई गई महिला पत्रकार वाली क्राइम स्टोरी के बारे में दो लाइन ही लिख सके.