June 2, 2025
Film

1991 के ‘लम्हे’ और आज के मद्देनजर ‘रिव्यू’

– विजयमनोहर तिवारी

“लम्हे’ हिंदी की उन आखिरी फिल्मों से एक है, जिसमें प्रेम पत्र लिखे जा रहे हैं और लैंड लाइन फोन पर बात हो रही है. उसके बाद प्रेम पत्रों की लेखन कला लुप्त हो गई. लैंड लाइन फोन भी लुप्त प्रजाति के हो गए. स्मार्ट फोन की लाइव तकनीक से लैस आज के जल्दबाज और बेपरवाह प्रेमी उस कठिन समय का दिव्य स्वाद जान ही नहीं सकते, जब गर्लफ्रेंड, वेलेंटाइन, लिव-इन, एक्स और ब्रेकअप जैसी व्याधियों से वायुमंडल मुक्त और शुद्ध था…

यश चोपड़ा की “लम्हे’ जब बनी थी, तब भारत की आबादी 84 करोड़ थी. यानी आज से लगभग आधी. तब दुनिया में काफी हद तक शांति थी. मुंबई का 26/11 और न्यूयार्क का 9/11 नहीं हुआ था. गोधरा-गुजरात भी नहीं. मुंबई ने धमाके नहीं सुने थे. इस्लामी आतंक के चलते कश्मीर से पंडितों का सफाया हुए साल भर ही बीता था. पलायन जारी था. दो मौन विभूतियाँ भारत में सत्ता के शीर्ष पर थीं- नरसिंहराव प्रधानमंत्री और मनमोहन सिंह वित्त मंत्री. वह आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के आरंभ का साल था, जिसके बाद भारत हमेशा के लिए एक नई करवट लेने वाला था.

“लम्हे’ मेरे कॉलेज के दिनों की फिल्म है. जब माता-पिता पढ़ाई के खर्चे दे रहे होते हैं तब वह उम्र मन के भटकाव और निश्छल प्रेम की भी होती है. जब अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तो जिंदगी विवाह की कठोर दहलीज पर ला पटकती है. प्रेम के रंग उड़ चुके होते हैं. इंदौर के प्रो. सरोज कुमार की एक प्रसिद्ध कविता का शीर्षक है-“हम प्रेम नहीं करते, हमारी शादी की जाती हैं.’

“लम्हे’ की समीक्षाएँ तब अखबारों में पढ़ी थीं. गाने खूब बजे थे इसलिए सुने ही गए. मगर यह फिल्म मैंने कल देखी. रिलीज होने के 34 साल बाद. तब जब फिल्म के निर्देशक, संवाद लेखक, गीत-संगीतकार और नायिका हमारे बीच नहीं रहे हैं. जीवन के विस्तार में बहुत दूर जाकर जब पीछे की घटनाओं और तस्वीरों को देखते हैं तो नजरिया बिल्कुल अलग होता है. सही दृष्टि में तस्वीर तभी आ पाती है जब एक निश्चित दूरी हो. वैसे सही दृष्टि का कोई पैमाना नहीं है. कोई दृष्टि कभी सही नहीं होती. वह एक दृष्टिकोण ही है. बस.

“लम्हे’ एक छोटी सी कहानी है, जिसे हर चार पाँच मिनट में किसी गाने या गाने की धुन पर रबड़ की तरह जमकर खींचा गया है. हनी ईरानी और राही मासूम रजा के मस्तिष्क से झरी कुल कहानी एक भावुक प्रेमी की है, जिसका एकतरफा प्रेम है. माँ बेटी के डबल रोल में श्रीदेवी एक जैसी चंचल हैं. लंदन से जयपुर के बीच अनिल कपूर यूं आते-जाते हैं जैसे कोई पुष्कर जाकर जयपुर लौट आए. राजस्थान की गर्मी में रेत के तपते टीलों पर टाई कोट यश चोपड़ा ही पहना सकते थे.

यश चोपड़ा परदे पर कर्णप्रिय गीत-संगीत से सुसज्जित प्रेम संबंधों की नाटकीय प्रस्तुति के वैसे ही मास्टर थे, जैसे उनके ही समकालीन मनमोहन देसाई बिना कहानी के ही फिल्म शुरू करने के मास्टर माइंड थे. दोनों की फिल्में ही सुपर-डुपर हिट हो जाया करती थीं. तब टीवी था मगर पहुंच ज्यादा नहीं थी. मोबाइल दूर का ख्वाब थे. इंटरनेट ने अंडे नहीं दिए थे. ओटीटी नाम की चिड़िया आकाश में उड़ी नहीं थी. सिंगल स्क्रीन सिनेमा का एकल सहारा था.

“लम्हे’ में यश चोपड़ा ने दो साल पहले की ही सुपर हिट “चाँदनी’ की लोकप्रिय धुनों के टुकड़े शिव-हरि से रिपीट कराए हैं. ये ऐसा ही है जैसे कोई अपने नए शोरूम में पिछली दुकान का सामान भी सजा दे.

“लम्हे’ के आखिर में वे 1976 की “कभी-कभी’ के एक गाने को भी अनुपम खेर से दोहराकर माने-“मेरे दिल में ख्याल आता है.’ एक लंबे पैरोडी गीत में केएल सहगल से लेकर गीता दत्त के भूले-बिसरे गानों को मिक्स वेज की तरह बड़े कटोरे में परोसा गया है.

दर्शकों के जेहन में बसी पुरानी सिनेमाई स्मृतियों के शब्द या संगीतबद्ध पासवर्ड से आज की एटीएम सक्रिय करने का यह यश चोपड़ा का मनोवैज्ञानिक ढंग था. यह पुरानी कारों के कलपुर्जों से ऑन रोड चमचमाई एक नई कार के निर्माण का कारनामा है.

“लम्हे’ कोई मल्टी स्टार मूवी नहीं है. बेकार भीड़-भड़क्का नहीं है. जयपुर के आलीशान महल वीरान हैं. ले-देकर अनिल कपूर, श्रीदेवी, वहीदा रहमान और अनुपम खेर ही हैं. तीन-चार और किरदार कहीं-कहीं हैं. दर्जन भर गाने और हर चार-पाँच मिनट में संगीत के किसी टुकड़े के टेके पर 180 मिनट लंबी रीलों में यह कहानी टिकाई गई है, जिसे फिल्म फेयर पुरस्कार मिला और यश चोपड़ा की सर्वश्रेष्ठ दस फिल्मों में शामिल माना गया.

गुड़ की चाशनी जैसे स्वरों की मलिका इला अरुण का सशरीर तड़का भी है, जो संभवत: अपनी उम्र के ढलान पर रही होंगी. श्रीदेवी के पति बने दीपक मल्होत्रा पता नहीं किस कुल गोत्र के थे. उनकी संवाद अदायगी और अभिनय क्षमता से लगता है कि वह “व्यापमं की भर्ती’ से यशराज फिल्म्स में आए होंगे. इस दृष्टि से व्यापमं की बदनाम भर्तियों जैसी वह पहली भर्ती मानी जा सकती है.

राजस्थान के अलावा लंदन का डिटेल शूट दर्शनीय है. 1991 का लंदन पाकिस्तानियों की कुख्यात रेपिस्ट ग्रूमिंग गैंग से अछूता रहा होगा. कराची मूल के आरिफ अजाकिया आज के लंदन में फैली जिहादियों की तीखी गंध अपने वीडियोज में दिखाते हैं तब लगता है कि “लम्हे’ में कैद लंदन किस लोक का परिचय दे रहा है? इसे आज बरबादी की कगार पर पहुंची एक बस्ती के पुराने एल्बम की तरह देखा जा सकता है. लंदन की जिंदगी तब इतनी हसीन रही होगी कि “लम्हे’ की सतरंगी तस्वीरें वहाँ ली जा सकती थीं.

“लम्हे’ हिंदी की उन आखिरी फिल्मों से एक है, जिसमें नायक और नायिका के बीच विधिवत प्रेम पत्र लिखे जा रहे हैं और लैंड लाइन फोन पर बात हो रही है. उसके बाद प्रेम पत्रों की लेखन कला लुप्त हो गई. लैंड लाइन फोन भी लुप्त प्रजाति के हो गए. स्मार्ट फोन की लाइव तकनीक से लैस आज के जल्दबाज और बेपरवाह प्रेमी उस कठिन समय का दिव्य स्वाद जान ही नहीं सकते, जब गर्लफ्रेंड, वेलेंटाइन, लिव-इन, एक्स और ब्रेकप जैसी व्याधियों से वायुमंडल मुक्त और शुद्ध था. “लम्हे’ की प्रेममयी पुण्य स्मृति में आज के समय में अंतिम प्रेम पत्र लेखक को अपने आसपास खोजना चाहिए और उसका सम्मान करना चाहिए.