Ganesh Chaturthi और उससे जुड़ा जीवन का संदेश
गणेश चतुर्थी रहस्य… ओशो
परमात्मा जन्म देता है, मृत्यु देता है. एक हाथ से जन्म देता है, दूसरे हाथ से जन्म वापिस ले लेता है. यहां रात होती, दिन होता. यहां गर्मी आती, सर्दी आती. यहां मौसम बदलते रहते. यही तो जीवन की रसमयता है.
राही विरोध का मिलन है. अगर इकहरा होता जीवन तो इसमें रस न होता, इसमें समृद्धि न होती. यहां विपरीत संघात मिल कर अपूर्व संगीत का जन्म होता है. यहां जन्म और मृत्यु के बीच जीवन का खेल चलता है, जीवन का रास रसा जाता है
वही मैं तुमसे कह रहा हूं : ध्यान करो भी और ध्यान रखना कि छोड़ना है. एक दिन छोड़ना है. —विधि का एक दिन विसर्जन कर देना है.
तुमने देखा, हिंदू इस संबंध में बड़े कुशल हैं. गणेश जी बना लिए मिट्टी के, पूजा इत्यादि कर ली—जा कर समुद्र में समा आए. दुनिया का कोई धर्म इतना हिम्मतवर नहीं है.
अगर मंदिर में मूर्ति रख ली तो फिर सिराने की बात ही नहीं उठती. फिर वे कहते हैं अब इसकी पूजा जारी रहेगी. हिंदुओं को हिम्मत देखते हो! पहले बना लेते हैं, मिट्टी के गणेश जी बना लिए. मिट्टी के बना कर उन्होंने भगवान का आरोपण कर लिया. नाच—कूद, गीत, प्रार्थना—पूजा सब हौ गई. फिर अब वह कहते हैं, अब चलो महाराज, अब हमें दूसरे काम भी करने हैं! अब आप समुद्र में विश्राम करो, फिर अगले साल उठा लेंगे.
यह हिम्मत देखते हो? इसका अर्थ क्या होता है? इसका बड़ा सांकेतिक अर्थ है. अनुष्ठान का उपयोग कर लो और समुद्र में सिरा दो. विधि का उपयोग कर लो, फिर विधि से बंधे मत रह जाओ. जहां हर चीज आती है, जाती है, वहा भगवान को भी बना लो, मिटा दो.
जो भगवान तुम्हारे साथ करता है वही तुम भगवान के साथ करो—यही सज्जन का धर्म है. वह तुम्हें बनाता, मिटा देता. उसकी कला तुम भी सीखो. तुम उसे बना लो, उसे विसर्जित कर दो.
जब बनाते हिंदू तो कितने भाव से! दूसरे धर्मों के लोगों को बड़ी हैरानी होती है. कितने भाव से बनाते, कैसा रंगते, मूर्ति को कितना सुंदर बनाते, कितना खर्च करते! महीनों मेहनत करते हैं. जब मूर्ति बन जाती, तो कितने भाव से पूजा करते, फूल— अर्चन, भजन, कीर्तन!
मगर अदभुत लोग हैं! फिर आ गया उनकी विसर्जन का दिन. फिर वे चले बैंड—बाजा बजाते, तो भी नाचते जाते हैं. जन्म भी नृत्य है, मृत्यु भी नृत्य होना चाहिए. चले परमात्मा को सिरा देने! जन्म कर लिया था, मृत्यु का वक्त आ गया.
इस जगत में जो भी चीज बनती है वह मिटती है. और इस जगत में हर चीज का उपयोग कर लेना है और किसी चीज से बंधे नहीं रह जाना है—परमात्मा से भी बंधे नहीं रह जाना है. मैं नहीं
कहता कि हिंदुओं को ठीक—ठीक बोध है कि वे क्या कर रहे हैं. लेकिन जिन्होंने शुरू की होगी यात्रा उनको जरूर बोध रहा होगा. लोग भूल गये होंगे. अब उन्हें कुछ भी पता न हो कि वे क्या कर रहे हैं. मूर्च्छा में कर रहे होंगे.
पुरानी परंपरा है कि बनाया, विसर्जन कर रहे होंगे; लेकिन उसका सार तो समझो. सार इतना ही है कि विधि उपयोग कर ली. फिर विधि से बंधे नहीं रह जाना है. अनुष्ठान पूरा हो गया, विसर्जन कर दिया.
वही मैं तुमसे कहता हूं : नाचो, कूदो, ध्यान करो,पूजा, प्रार्थना—इसमें उलझे मत रह जाना. यह पथ है, मार्ग है; मंजिल नहीं. जब मंजिल आ जाए तो तुम यह मत कहना कि ‘मैं इतना पुराना यात्री, अब मार्ग को छोड़ दूं? छोड़ो!
इतने दिन जन्मों—जन्मों तक मार्ग पर चला, अब आज मंजिल आ गई, तो मार्ग को धोखा दे दूं? दगाबाज, गद्दार हो जाऊं? जिस मार्ग से इतना साथ रहा और जिस मार्ग ने यहां तक पहुंचा दिया,उसको छोड़ दूं? मंजिल छोड़ सकता हूं, मार्ग नहीं छोड़ सकता. ‘तब तुम समझोगे कि कैसी मूढ़ता की स्थिति हो जाएगी. इसी मंजिल को पाने के लिए मार्ग पर चले थे; मार्ग से नाता—रिश्ता बनाया था—वह टूटने को ही था.
मार्ग की सफलता ही यही है कि एक दिन घड़ी आ जाए जब मार्ग छोड़ देना पड़े.
अष्टावक्र महागीता,ओशो से साभार