August 3, 2025
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Work Hours के इन कुछ बचे समय का क्या करें सुब्रमण्यम साहब?

  • आदित्य पांडे

काके आंखों में आंसू ही ना आ गए तेरी बात सुन के, सही है जो मजदूर है या मजबूर है उसे रविवार को भी काम करना चाहिए, बिना छुट्‌टी काम करना चाहिए लेकिन एक गड़बड़ हो गई, ये नब्बे घंटे हर हफ्ते का क्या हिसाब है. वहीं रख लो, फैक्टरी में तो और ज्यादा समय काम कराओ आखिर बाकी के 78 घंटे उसने करना क्या है? पहले भी तो होते थी गुलाम… नारायणमूर्ति साहब 70 घंटे खींचना चाहते थे आपने हफ्ते के बीस घंटे और बढ़ा दिए तो थोड़ी और हिम्मत करते, बोलते मजदूरों से कि मुझे दुख है कि आपको सोने की छुट्‌टी देनी पड़ती है और फिर खाने पीने जैसी बकवास बातों में भी तुम समय खराब करते ही हो. मैं आपसे हफ्ते के 168 घंटे काम नहीं करा पा रहा इस बात का दुख है मुझे. थंब इम्प्रैशन वाली मशीनें तो अब बता ही देती हैं कि बंदा कितने समय कैंपस में था, क्या कर रहा था इससे न आपको मतलब है और न उस थंब मशीन को.

सच कहूं तो चेहरा देखकर हाजिरी लगाने वाली मशीन से थंब इम्प्रेशन वाली मशीनें मुझे इसी मायने में बेहतर लगती हैं कि वो देख नहीं पाती कि आते हुए जो चेहरा खिला हुआ होता है वह निकलते हुए कैसे मुर्दनी लिए होता है. एलएंडटी और इंफोसिस तो यूं भी बड़ी कंपनी हैं, अपने कर्मचारियों को इतना तो पैसा देती ही होंगी कि कर्मी अपने जीवन का एक एक पल और खून की एक एक बू्ंद इनके नाम कर दे. जाहिर है सुब्रमण्यम साहब ने एलएंडटी के लिए दिल, जिगर, गुर्दा और कलेजी तक सब गिरवी रख दिए हैं इसीलिए वो कह रहे हैं कि मैं तो रविवार को काम कर रहा हूं लेकिन आपसे नहीं करा पा रहा हूं, इसका दुख है… तो सुनिए सुब्रमण्यम साहब, अब आपके हिसाब का पैकेज हो और आपकी जैसी सोच हो तो कोई सोच भी ले कि कितनी देर बीबी को देखते रहेंगे लेकिन शायद आपको पता नहीं कि आपके यहां दिन भर खटने वालों के घरों में सिर्फ बीबी ही नहीं होती और भी बहुत से तार जुड़े होते हैं. आप जिन्हें सिर्फ मजदूर कर्मचारी समझते हैं वो किसी के बेटे, किसी के पिता और न जाने किन किन रिश्तों से बंधे होते हैं और सच तो यही है कि वो इन्हीं सबके बीच में जीते रहने के लिए आपके यहां खटते मरते रहते हैं.

आप शायद समझ नहीं सकेंगे कि आपका यह एक बयान आपकी कंपनी के अंडर कॉन्ट्रैक्ट और उसमें भी नीचे सब कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वालों को कितना भारी पड़ेगा. वैसे आप कहें तो जापान की वह खबर भी नत्थी कर दी जाए जहां काम के लिए आपकी ही तरह बावली रही एक पीढ़ी अब इस बात के लिए हफ्ते में तीन दिन की छुट्‌टी पा रही है कि जैसे भी हो आबादी बढ़ानी है. वो तो गनीमत है कि नई पीढ़ी अब उन दकियानूस बातों के चक्कर में पड़ती ही नहीं है कि कौन कितनी देर ऑफिस में क्यों बैठा था, उसे तो अपना असाइनमेंट पूरा करने से मतलब है और बदले में उसे पूरा पैसा मिल जाए तो वह अपनी धुन में मगन है, उसे फर्क ही नहीं पड़ता कि कौन सी कंपनी के कौन से ओहदेदार क्या कह रहे हैं लेकिन सुब्रमण्यम साहब एक बात जरुर बता दीजिएगा कि आज तो आप इनसे महीने के चार सौ घंटे काम करा लेंगे लेकिन आपके लिए काम करने वाली अगली पीढ़ी कहां से आएगी… खैर अभी तो आप खुश हों कि न जाने कितने लोग ऐसे हैं जो बड़े पैकेज के लालच में इस बात के समर्थन में खड़े हो जाएंगे. उन्हें भी आप ही की तरह यह आधा सच बताने में मजा आता है कि हम तो रविवार को भी काम करते हैं जबकि सच यह है कि वे रविवार को ही काम करते हैं ताकि कंपनी को बता सकें, जता सकें और इस तरह धमका सकें…