Woke Olympics को अलविदा
-आदित्य पांडे
खेल के नाम पर खेल करने वाले महासंघ का सुधरना जरुरी
ओलंपिक इतिहास के सबसे विवादित गेम्स आज खत्म हुए लेकिन अपने पीछे इसने कई सवाल छोड़ दिए हैं, पहले दिन से ही या कहें गेम्स शुरु होने से पहले ही इसने विवादों को जो गले लगाया तो अब इनके खात्मे के बाद भी इससे जुड़े विवाद खत्म हो जाएंगे, लगता तो नहीं.
शुरुआती दिन हुए शो ने जो छवि बनाई वह यही थी कि इस पूरे ओलंपिक में एलजीबीटी और वोक लॉबी को खुश करने के लिए ईसाइयों के दिल के करीब द लास्ट सपर का भी मजाक उड़वा दिए जाने से भी परहेज नहीं किया जाएगा. यदि ट्रंप ने इस हरकत के बाद ओलंपिक को सेटेनिक कहा तो उनके समर्थन में खड़े होने वाले भी काफी थे और इसी वजह से थे कि गेम्स की गरिमा गिराने में ओलंपिक संघ ने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन बात शुरु से ही शुरु करें.
जब यह तय होने लगा कि कौन से देश इस ओलंपिक में शामिल नहीं हो सकेंगे तो रुस और बेलारुस को पहली फुरसत में बाहर कर दिया गया, सोवियत संघ के जमाने से भी रुस को पदक तालिका में टॉप सूची में रहने की आदत रही है लेकिन ओलंपिक महासंघ का मानना था कि यूक्रेन पर रुस ने हमला किया है और बेलारुस ने उसका साथ दिया है इसलिए ये खेलगांव में नहीं होने चाहिए. जो खिलाड़ी आए भी तो उनके पास न देश का नाम था और न झंडा, इन्हें इतनी दिक्कतें दी गईं कि ज्यादातर बीच में ही वापस चले गए. सोचिए एक खेलसंघ यह तय कर रहा है कि कौन आक्रांता है और कौन पीड़ित, तो फिरी दुनिया के सभी अंतर राष्ट्रीय मुद्दे इसी संघ के पास क्यों नही भेज दिए जाते. वैसे संघ को फिलिस्तीन को यहां खेलने देने में कोई दिक्कत नहीं थी भले उसने उकसावे की कार्रवाई की हो और न उसे इजराइल के खेलने पर आपत्ति रही जिसके जवाबी हमले में सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं.
वेसे संघ से पूछा जाना चाहिए कि क्या उसे ईरान का आतंकियों पैसा देना नहीं दिखता या पाकिस्तान जो हरकतें भारत में करता है उसके आधार पर उसे बाहर क्यों नहीं किया जा सकता. बात निकलेगी तो सवाल तो यह भी बनता है कि अमेरिका दुनिया के किसी कोने में किसी स्वतंत्र देश के अंदर हमले करने की जो हरकतें करता है उन पर संघ क्या सोचता है और तो और यह भी सवाल है कि फ्रांस को लोकतंत्र की हत्या के लिए क्यों दोषी मानकर उससे मेजबानी ही नहीं छीन ली संघ ने, क्योंकि दक्षिणपंथी मेरिन ली पेन की जीत तो तयशुदा थी लेकिन फिर ऐसा क्या रहस्यमय काम हो गया कि नतीजे उलट गए और दक्षिणपंथी दफना दिए गए.
राजनीति छोड़कर खेल की तरफ बढ़ें तो पहले दिन सीन नदी में डुबकी लगाकर मेयर ने बताया कि पानी साफ है और इस पर न सिर्फ रंगारंग कार्यक्रम कराए जा सकते हैं बल्कि तैराकी की प्रतियोगिताएं भी हो सकती हैं. तैराक के पानी में उतरते ही उसकी तबियत बिगड़ने को दुनिया ने लाइव देखा लेकिन महाशक्तिशांली ओलंपिक संघ से सवाल कौन पूछे. कथित खेलंगांव में जो अव्यवस्थाएं हुईं वो खिलाड़ियों ने अपने अपने तरीके से सामने रखीं, कितने ही खिलाड़ी खेलगांव छोड़ गए तो एक गोल्ड मेडलिसट ने तो बगीचे के किनारे फुटपाथ सोकर अपना विरोध दर्ज कराया लेकिन संघ की जिद थी कि वह खुद को पर्यावरण हितैषी बताने के चक्कर में एसी नहीं लगाएगा भले इससे 40 डिग्री से ज्यादा की गर्मी में खिलाड़ियों की हालत खस्ता हो जाए और उनका प्रदर्शन ही प्रभावित हो जाए.
बहुत विरोध हुआ तो कुछेक एसी मंगाए गए लेकिन वे भी खिलाड़ियों को नसीब नहीं थे. कई देशों ने अपने खिलाड़ियों के लिए अपनी तरफ से एसी भेजे जिसमें भारत भ्ज्ञी शामिल है जिसने 40 ऐसी दिल्ली से पेरिस पहुंचाए लेकिन महासंघ को शर्मिंदा न होना था और न वो हुआ. पदक तालिका में अच्छी जगह पर मौजूद चीन से लेकर निचले पायदान पर रहे देशों तक ने इसमें भेदभाव की शिकायतें कीं वह भी तब जबकि अध्यक्षों मेें से एक यू जैंकिंग खुद चीन से हैं. हद तो तब हुई जब एक एक्स वाई क्रोमोसोम वाले खिलाड़ी को ‘विशुद्ध’ एक्स एक्स क्रोमोसोम वाली महिला खिलाड़ियों से न सिर्फ लड़वाया गया बल्कि गोल्ड जीतने में भी उसकी मदद की गई और सिंगापुर के टिंग की भी मदद में संघ ने कोई कसर नहीं छोड़ी जिनकी केटेगरी को लेकर भी विवाद था लेकिन ओलंविक महासंघ को एलजीबीटीक्यू समुदाय को आगे बढ़ाना था इसलिए वह बेहूदगी से इन निर्णयों को सही बताता रहा.
भारत के खिलाफ हॉकी में रेडकार्ड कितना सही था यह भी सवाल अभी बाकी है. भारत के लिए जो सबसे बड़ा मुद्दा ‘बनाया गया’ वह विनेश फोगाट का था और संघ को इस बात के लिए दोष नहीं दिया जा सकता कि उसने वजन के आधार पर विनेश को डिसक्वालिफाई कर दिया लेकिन यहां भी एक सवाल तो बनता ही है कि जब वजन करने के बाद वैलिड तरीके से विनेश अपना मैच जीत चुकी थीं तो उनका रजत तभी तय हो जाना था, यदि ओलंपिक ऐसा करता तो बाद में वजन बढ़ने के बाद भी सिल्वर तो महारा ही होता. यूं भी एक दिन बाद बढ़े वजन का पहले हुए मुकाबले के नतीजे पर असर समझ से परे है जबकि यह डोपिंग का मामला भी नहीं कि आप इसे बुरी आदत का शिकार कह कर पदक से वंचित कर दें. विनेश मामले से सबक लेकर यह माशक्तिशाली महासंघ इतना तो कर ही सकता है कि अपने बकवास, बेहूदा और दिल तोड़ने वाले नियमों पर फिर से विचार कर ले लेकिन वह ऐसा करेगा नहीं क्योंकि उसे खिलाड़ियों की चिंता कभी रही ही नहीं उसे तो दूसरे मुद्दों पर राजनीति करनी है, उसे एलजीबीटीक्यू के लिए काम करना है और उसे ओलंपिक गेम्स को वोक ओलंपिक बनाने पर मेहनत जो करनी है