स्मृति शेष- जिनका महाकालमय जीवन हमारी प्रेरणा है
श्रीमती किरणबाला जोशी के महाकाल लोक गमन पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि – आदित्य
श्रावण में महाकाल की तीसरी सवारी के बाद उज्जैन की यह रात नागचंद्रेश्वर के साल भर में एक ही दिन दर्शन वाले दिन यानी नागपंचमी की सुबह को न्यौत रही है और मैं एक ऐसे आंगन में खड़ा हूं जहां पारिजात बदस्तूर गिरते जा रहे हैं, इस बात से बेखबर कि रोज उन्हें सहेज लेने वाले और फिर उनसे महादेव के चरणों सहित देहरी पर रंगोली बना देने वाले हाथ अब उन्हें चुनने नहीं आने वाले हैं. किसी जमाने में जो हाथ अपने घर की सीढ़ियों से सीधे उतर कर महाकाल के गर्भगृह में सजावट करते रहे हों, जिनके हाथों से बुनी आंकड़े के पत्तों की माला का इंतजार रहा करता हो जिन्होंने उज्जैन न छोड़ने की कसम महज इस वजह से खा रखी हो कि महाकाल की नगरी से दूर नहीं रहना है उन्हें खुद महाकाल ने अपनी शरण में ले लिया तो अचरज कैसा. सवारी से आए फूल और प्रसाद छूने के बाद मानो उनकी सांसों ने वह राहत की सांस ली जो इहलोक में अंतिम सांस कही जाती है. उन्हें पद्मभूषण पंडित सूर्यनारायण व्यास की पुत्री होने का जो गर्व था वैसा कम ही लोगों के पास होता है. दृढ़ता और खरा बोलना उनके लिए सांस लेने जैसा जरुरी था और इसके लिए उन्होंने कभी परवाह नहीं की कि सच सुनकर नाराज हो सकने वाला कौन होगा. मां के महादेवी की शिष्या होने से लेकर डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के प्रोटोकॉल तोड़कर घर आने जैसे किस्से हों या स्वतंत्रता सेनानियों के उज्जैन में रुकने संबंधी ‘फर्स्ट हैंड’ बातें, वो जब सुनातीं तो भूल ही जातीं कि कुछ समय पहले उनका जो ब्रेन हेमरेज के कारण ऑपरेशन हुआ था उसने उनसे क्या क्या छीन लिया था जिसमें लंबे समय गुम रही याददाश्त भी शामिल थी.
उनका उत्साह बच्चों जैसा था और व्यवहार ठीक उस बुजुर्ग की तरह जिसे आशीष का खजाना लुटा देना भी कम महसूस होता हो. उनसे बातें करने बैठें तो कभी यह महसूस नहीं होता कि किसी अस्सी साल के व्यक्ति से रुबरु हैं. बस, उनके अनुभवों के नाम जरुर यह बताते कि बातें पुरानी हैं लेकिन उनके लिए नित नई हैं. मालवी और हिंदी में जो पकड़ उनके पास रही वह इतनी बारीक थी कि मैंने कभी उनके हाथ का खाना खाया ही नहीं क्योंकि उन्होंने कभी भोजन परोसा तो कभी जीमने ही बैठाया. बड़े होने का जो एक संयम होता है वह उनकी दमक में शामिल था. पुरानी बातें सुनाते उनके आंखों की चमक होती थी वह देखने काबिल होती थी मानो यह सब दोबारा फिर ठीक उसी तरह से घट रहा हो और वो आपके लिए ‘संजय’ हों. रिश्ते निभाने की उनकी जिद और लोगों की परख जैसे कोई कोर्स हों तो उन्हें घर बैठे मानद डॉक्टरेट दे दी जाती. उन्हें जब उज्जैन ने विदाई दी तो आसमान जमकर रोया और अग्नि स्पर्श के दौरान तक साक्षात शिव के नंदी उनके आसपास मंडराते नजर आए. मोक्षदायिनी सलिला क्षिप्रा ने जब उन्हें अपनी गोद में लिया तो हम निश्चिंत थे कि अब वे नाजुक हाथ शिवलोक में पारिजात चुन रहे होंगे जिनसे महाकाल के लिए अप्रतिम रंगोली बनाई जा रही होंगी, वो हाथ अब साक्षात महाकाल के लिए प्रिय आंकड़े के फूल और पत्तों की माला गढ़ रहे होंगे और वहीं कहीं किरण ने अपने बा यानी पंडित व्यास से मुलाकात भी की ही होगी. महाकाल की शरण में वो सदैव कृपापात्र बनीं रहें और हम सभी पर अपना आशीष बरसाती रहें. मुस्कुराती फोटो के नीचे जब स्वर्गीय किरणबाला जोशी लिखाने की बारी आई तो दिल रो पड़ा लेकिन अगले ही पल यह समझ आया कि महाकाल की भक्त का उनकी शरण में जाना रोने का विषय तो नहीं हो सकता…पूर्णमद;, पूर्णमिदं, पूर्णात पूर्ण मुदच्यते… उनकी शुद्ध बुद्ध आत्मा को नमन….