June 11, 2025
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नईदुनिया भवन हुआ निष्प्राण, लेखन के भीष्म तुम्हें प्रणाम

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय, ख्यात ललित निबंध लेखक एवं कला मर्मज्ञ

उसे दीर्घजीवी होना था लेकिन अल्पकाल में ही उसका अवसान हो गया

इंदौर के केसरबाग रोड स्थित “नई दुनिया”का भवन ढहा दिया गया.अब वहां किसी नई इमारत का निर्माण होगा. मुझे भीष्म याद आए.वे सामर्थ्यहीन तो पहिले ही हो चुके थे लेकिन निष्प्राण नहीं हुए थे. जब सूर्य उत्तरायण हुआ तब वे निष्प्राण हुए और तभी उनकी देह पंचभूत में विलीन हुई. नई दुनिया का भी यह भव्य भवन अपने समय में पत्रकारिता का भीष्म था, यहीं से पत्रकारिता की पाठशाला माना जाने वाला समाचारपत्र “नई दुनिया” निकलता था लेकिन समय बदला, नई दुनिया समाचार पत्र जागरण समूह ने क्रय कर लिया, फिर वह इस भवन के ठीक दूसरे छोर पर स्थित एक नए भवन से निकलने लगा. जब वह नए भवन में गया तब यह धरती पर तो तुरंत नहीं गिरा,लेकिन तभी से उत्तरायण की राह देखने लगा. अब जब किसी नए भवन के निर्माण का सूर्य उत्तरायण हो गया तब यह भी निष्प्राण हो गया और अब उसकी देह भी पंचभूत में विलीन हो गई.
लेकिन यह भीष्म की भांति दीर्घजीवी नहीं रहा जबकि इसे दीर्घजीवी होना था. भीष्म ने चार पीढ़ियां देखीं लेकिन यह भवन एक पीढ़ी ही देख पाया और दूसरी पीढ़ी के अल्पकाल में ही इसका अवसान हो गया. जब तक कोई जीवित रहता है तब तक उससे जुड़ी स्मृतियां सोई रहती हैं लेकिन उसके प्राणहीन होते ही ये स्मृतियां जाग जाती हैं. मेरे साथ भी आज इन्हीं स्मृतियों का अखंड और अनंत जागरण हो रहा है. स्मृतियों की इस उजास को पूरी तरह समेटने के लिए मेरी भाषा का आकाश बहुत छोटा है.
मैंने नई दुनिया में लिखना तब आरंभ किया जब मैं लगभग इक्कीस बरस का था. भोपाल में इतिहास विषय लेकर सैफिया कॉलेज में पढ़ता था. संघर्ष के दिन थे. अनेक कार्य करता था उनमें से एक ऐतिहासिक विषयों पर लेखन था. उस समय नई दुनिया का रविवारीय संस्करण जो रविवासरीय कहलाने लगा बहुत महत्वपूर्ण होता था. दत्तात्रय सरमंडलजी ने उसे लंबे समय तक देखा. मुझसे उनका नियमित पत्राचार होता. उस समय स्वर्गीय शरद पगारे, शिवनारायण यादव, बालकृष्ण पंजाबी और क्रिश्चियन कॉलेज के प्रोफेसर सोलोमन ऐतिहासिक विषयों पर लिखते थे. मैं इन सबसे बहुत छोटा था लेकिन मुझे इन सबका स्नेह मिला.तब स्वर्गीय लाभचंद जी स्वयं पूरा अखबार देखते थे. एक बार पूरे पृष्ठ का आलेख छपा लेकिन जब उसके पारिश्रमिक का मनी ऑर्डर पांच रुपए का आया तो मैंने एक लंबा पत्र बाबूजी अर्थात लाभचंद जी को लिखा. उनका पत्र आया कि जब मैं इंदौर आऊं तो उनसे मिलूं. मैं एक बार इंदौर आया और उनसे मिलने गया तो इस कार्यालय में गादी पर बाबूजी के साथ स्वर्गीय सेठियाजी और तिवारी जी बैठे हुए थे. यही तीन इस अखबार की लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचने की सीढ़ियां थे. बाबूजी ने मुझे बिठाया फिर बोले बेटे तुम बड़ी जल्दी बड़े लेखक बन गए. फिर उन्होंने स्नेह से बिठाकर मुझे समझाया कि तुम अच्छा लिखते हो इसलिए छपते हो यह पूरी तरह सही नहीं है. तुम्हारा लेखन निरंतर बना रहे इसलिए भी तुम्हें स्थान मिलता है. मैंने उन्हें बताया कि मैंने किन परिस्थितियों में यह पत्र लिखा था.उन तीनों के चरण छूकर मैं लौट आया और मेरे लिए वे हर्ष मिश्रित प्रसन्नता के पल थे कि जब अगले आलेख का पारिश्रमिक मुझे सीधे पांच से पचास रुपए का मिला. मुझे बाबूजी भूले नहीं भूलते.
उसके बाद इतिहास लेखन से ललित निबंध ,संस्मरण,आलेख से लेकर कुंभ की रिपोर्टिंग तक की यात्रा चलती रही. अभयजी का भरपूर स्नेह मिला और स्वर्गीय महेंद्र सेठिया ने आजीवन अग्रज तुल्य सम्मान दिया. वे मेरे अनुज निर्मल के गहरे मित्र थे.एक बार कुंभ के समय जब उज्जैन में पदस्थ था तब अभय जी का फोन आया कि रविवार के अंक में मेरा लिखा निबंध “और शिप्रा अमृतमय हो उठी”पर बहुत प्रतिक्रियाएं आई हैं और हम चाहते हैं कि इसे दोबारा छापा जाए इसलिए अब हम एक विशेषांक कुंभ पर निकालेंगे, बेहतर हो उसका आप शीर्षक बदल दें तब मैंने उनसे अनुरोध किया कि शीर्षक यही रहने दीजिए क्योंकि इसे ही पाठकों ने पसंद किया है तब उन्होंने एक विशेषांक संयोजित किया. सुमन जी से अनुरोध कर कुंभ पर कविता लिखवाई और टाइटल आर्टिकल के रूप में इसे प्रकाशित किया.
इस भवन में बहुत जाना तो नहीं हुआ लेकिन इससे संवाद की निरंतरता नहीं टूटी. रज्जू बाबू से लेकर राहुल बारपुतेजी तक ने मेरे निबंध पसंद किए और बहुत छापे. आज जब नई दुनिया के अपने मित्रों और अग्रजों का स्मरण करने बैठा हूं तो “क्या भूलूं क्या याद करूं “की स्थिति है.सभी इतने प्रिय हैं कि कोई एक भी नाम छूटेगा तो उसका मलाल कभी दूर नहीं होगा. इसलिए बहुत सीमित उल्लेख कर रहा हूं. इसी भवन के परिसर की नर्सरी में खूब घूमा और यहां के विशाल ग्रन्थालय का लाभ उठाया. यहीं की प्रेस से मेरी कृति,”अंधेरे के आलोकपुत्र”, नई दुनिया”प्रेस के कर्ता धर्ता झांझरी जी ने निकाली .
“नई दुनिया” ने मेरे निबंधकार को शैशव से यौवन दिया और आज वार्धक्य जब दस्तक दे चुका तो वह “नई दुनिया” बहुत पुरानी हो चुकी है. विभागीय कॉलोनी में अपने विभागीय मित्रों के बीच प्लॉट लेकर घर बनाने की सलाह मैंने इसलिए नहीं मानी थी कि मुझे तो साहित्य और कला से ही बाबस्ता रहना था और इसके लिए नई दुनिया के इस भवन के वह पड़ोस की कॉलोनी में घर ले लिया.लेकिन आज जब नई दुनिया का यह भवन ध्वस्त हो गया तबसे मुझे अपना घर ही अजनबी लग रहा है.
पहिले नहीं करता था लेकिन अब यह भरोसा करने लगा हूं कि जीता जागता निबंध कब कहानी बन जाए ,नहीं कहा जा सकता.
मेरे लेखन के भीष्म,तुम्हारी स्मृति को प्रणाम.