July 17, 2025
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महालक्ष्मी गजलक्ष्मी व्रत की कथा : चांदी के हाथी पूजन के साथ पढ़ें mahalakshmi vrat katha

महालक्ष्मी व्रत कथा / गजलक्ष्मी व्रत कथा / हाथी पूजन व्रत कथा / Mahalaxmi Vrat Katha / Gajalakshmi Vrat Katha / Hathi Poojan Vrat Katha in Hindi

श्राद्ध पक्ष में एक दिन अत्यंत शुभ और मंगलमयी माना गया है और यह दिन है अष्टमी का…भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आश्विन कृष्ण अष्टमी तक चलने वाला यह शुभ व्रत अपार धन दौलत,समृद्धि,सफलता,खुशी और सुख का वरदान देता है. इस व्रत की कई कथाएं प्रचलित हैं… इसे महालक्ष्मी व्रत, गजलक्ष्मी व्रत या हाथी पूजन व्रत कहा जाता है… इस व्रत में चांदी, सोने या मिट्टी का हाथी पूजन में रखा जाता है…इसके संबंध में सुनाई जाने वाली प्रमुख कथा पढ़ी जा सकती है…

गजलक्ष्मी व्रत कथा 1: ब्राह्मणी की कथा
एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह दिन प्रतिदिन भगवान विष्णु की आराधना करती थी। भगवान विष्णु उसकी पूजाआराधना से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी प्रिय भक्त को दर्शन दिए। साथ ही ब्राह्मणी ने कहा कि तुम्हें जो वरदान मांगना है तुम मांग सकते हो। जब ब्राह्मणी ने इच्छा जाहिर करते हुए कहा कि वह चाहती है कि उसके घर में मां लक्ष्मी का वास हो जाए।

तब भगवान विष्णु ने उस ब्राह्मणी को अपने घर में मां लक्ष्मी को बुलाने का तरीका बताया। भगवान विष्णु ने कहा कि तुम्हारे घर से कुछ ही दूरी पर जो मंदिर है वहां एक स्त्री आती है और वहां आकर वह उपले थापती है। तो तुम्हें उसे अपने घर आने का आमंत्रण देना होगा। वही मां लक्ष्मी है। ब्राह्मणी ने भगवान विष्णु के कहें अनुसार ही किया। ब्राह्मणी ने उस स्त्री को अपने घरा आने का निमंत्रण दिया। तब मां लक्ष्मी ने उस ब्राह्मणी से कहा कि वह 16 दिन के लिए मां लक्ष्मी की पूजा करें। मां लक्ष्मी के कहे अनुसार, ब्राह्मणी ने 16 दिन तक मां लक्ष्मी की उपासना की। मां लक्ष्मी ने फिर उस ब्राह्मणी को आशीर्वाद दिया और उसके घर में निवास किया। तभी से जो व्यक्ति भाद्रपद महीने में महालक्ष्मी की इन 16 दिनों तक उपासना करता है मां लक्ष्मी उससे प्रसन्न होकर उसे सुख समृद्धि का आशीर्वाद देती हैं।

महालक्ष्मी व्रत कथा 2 : चिल्लदेवी और चोलदेवी की संपूर्ण कथा

महालक्ष्मी व्रत का आरंभ भाद्रपद माह की अष्टमी तिथि से होता है और अगले 16 दिनों तक यह व्रत चलता है। इस व्रत को करने से मां लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं और उनकी विशेष कृपा बनी रहती है। महालक्ष्मी व्रत भविष्यपुराण में वर्णित कथा के पाठ के बिना अधूरा माना जाता है। यहां पढ़ें महालक्ष्मी व्रत वाली चिल्लदेवी और चोलदेवी की संपूर्ण कथा।
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धर्मराज युधिष्ठिर बोले- हे पुरुषोत्तम! अपने नष्ट स्थान की पुनः प्राप्ति कराने वाला और पुत्र, आयु, सर्वैश्वर्य तथा मनोभिलषित फलप्रद कोई एक व्रत मुझसे कहिये।

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा-कृतयुग (सतयुग) के आदि में जिस समय दैत्यराज वृत्रासुर ने देवताओं के स्वर्गलोक में प्रवेश किया, उस समय इन्द्र ने भी यही प्रश्न नारद मुनि से किया था।

इन्द्र के पूछने पर नारदजी कहने लगे – हे इन्द्र ! सुनो, पूर्व समय में अत्यन्त रमणीय पुरन्दपुर नाम का एक नगर था। उसकी भूमि रत्नों से युक्त थी और पर्वत भी रत्नों से भरे हुए थे। वह नगर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का उत्पत्ति स्थान होने के कारण संसार का भूषणस्वरूप था। उस नगर में मंगलमय ‘मंगल’ नामक राजा राज्य करता था। उसके महादुर्भगा चिल्लदेवी और यशस्विनी चोलदेवी ये दो रानियां थीं।

एक समय राजा मंगल चोलदेवी के साथ महल के शिखर पर बैठा था। वहां से उसकी दृष्टि समुद्र के जल से घिरे हुए एक स्थान पर पड़ी। उस जगह को देखकर अति प्रसन्नचित्त हो राजा ने चोलदेवी से कहा- हे चंचलाक्षि ! मैं तुम्हारे लिए नन्दनवन को भी लजाने वाला एक बगीचा बनवा दूंगा।

राजा के वाक्य को सुनकर रानी ने कहा- हे कान्त ! ऐसा ही कीजिये। तदनुसार राजा ने उस स्थान पर बगीचा बनवा दिया। वह बाग थोड़े ही समय में अनेक वृक्ष, लता, फूलों और पक्षिगणों से सम्पन्न हो गया। एक समय उस उद्यान में विकराल शरीर से युक्त मेघ तुल्य काला एक शूकर आ गया। वह अपनी दाढ़ों से सूर्य-चन्द्र को भी खींच सकता था, गर्जन में वह प्रलयकाल के मेघ सदृश था। उसने आकर अनेक वृक्षों को तोड़-मरोड़ डाला और उस उद्यान को चौपट कर दिया। हे युधिष्ठिर! उस शूकर ने किसी वृक्ष को जड़ से उखाड़ा, किसी को दांतों से तोड़ा, किसी को दांतों की रगड़ से ही तोड़ दिया। काल के समान उस शूकर ने कई रखवालों को मार डाला। तब बगीचा के रक्षक भयभीत होकर राजा के पास गये और सब हाल कह सुनाया। यह बात सुनकर राजा के नेत्र क्रोध से लाल हो गये।

राजा ने निजी सेना को आज्ञा दी कि शीघ्र जाकर उस शूकर को मार डालो। तदनन्तर राजा भी एक मतवाले हाथी पर सवार होकर उद्यान की ओर चले। वह सेना अश्वसमूहरूपी वस्त्र से ढंकी हुई पृथ्वी को हिलाती तथा रथों की शीघ्र गति से उत्पन्न पवन से सम्पूर्ण सैनिकों को कंपाती तथा पैदल सेना शब्द से दिशाओं को पूरित करती हुई बगीचे के नजदीक पहुंची और उसे चारों ओर से घेर लिया।

अपने उच्च घोष से दशों दिशाओं को प्रतिध्वनित करता हुआ राजा बोला कि जिसके रास्ते से यह शूकराधम निकल जायेगा, तो मैं उस सिपाही का शिर शत्रु की भांति काट डालूंगा। राजा के वचन सुनकर शूकर जिस मार्ग में राजा खड़े थे, उसी मार्ग से निकल गया और राजा कोड़े से अपने घोड़े को मारते ही रह गये। राजा लज्जा से चन्द्रवत् कलंकित होकर शूकर के पीछे-पीछे सिंह-व्याघ्रों से युक्त घोर वन में जा निकला। उस वन में तमाल, ताल, हिंताल, शाल, अर्जुन आदि के वृक्ष थे, वहां विविध लताएं थीं, झिल्लियों की झंकार से दसों दिशाएं मुखरित हो रही थीं। राजा उस घोर वन में एकाग्रमन से उस शूकर को ढूंढ़ रहा था। एकाएक शूकर से उसका सामना हो गया। तब राजा ने बाण से जैसे ही शूकर को घायल किया, वैसे ही बाण के लगते शूकर अपने अधम शरीर को छोड़कर दिव्य गन्धर्व रूप धारण कर विमान पर जा बैठा।

गन्धर्व बोला – हे महीपाल ! आपका कल्याण हो। आपने मुझे शूकर योनि से छुड़ाया, अतः बड़ी कृपा की। अब मेरा वृत्तान्त सुनिये । एक समय ब्रह्माजी देवताओं से घिरे हुए बैठे थे और मैं उनको तरह-तरह के स्थान व गुणों से युक्त गीत सुना रहा था। गाते-गाते मैं ताल-स्वर में भ्रष्ट हो गया।

इसी कारण ब्रह्माजी ने मुझ चित्ररथ गन्धर्व को शाप दे दिया। ब्रह्माजी ने कहा – तू पृथ्वी पर शूकर होगा, जिस समय राजाओं का राजा मंगल तुझे अपने हाथों से मारेगा, उस समय तू शूकर योनि से छूटकर फिर इस अवस्था को प्राप्त हो जायेगा। अतःएव हे महापते ! मैं इस योनि में आया था। आज आपके हाथ से मरकर मैं शूकर योनि से छूट गया। अब मैं प्रसन्न होकर देवताओं को भी दुर्लभ एक वर आपको देता हूँ, उसे आप स्वीकार कीजिये। धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को देने वाला यह महालक्ष्मी व्रत है। इसे करके आप सार्वभौम राजा हो जायेंगे। अब आप प्रसन्न होकर अपनी राजधानी को जाइये।

नारदजी कहते हैं- चित्ररथ गन्धर्व राजा मंगल से यह कहकर शरत् काल के मेघ के समान तत्क्षण अन्तर्धान हो गया। राजा मंगल ज्यों ही चलने को हुआ, त्यों ही बगल में मृगछाला लिये एक ब्राह्मण बालक को देखा। राजा ने मुस्कराकर बालक से कहा- हे वटो! देव, दानव, गन्धर्व, राक्षस-इनमें आप कौन हैं? आप सच-सच कहिये, ऐसे घोर जंगल में आप किसलिये आये हैं? राजा के प्रिय वचन सुनकर बटु ने राजा को आशीर्वाद देते हुए कहा- हे राजन् ! मेरा जन्म आप ही के देश में हुआ है। मैं आप ही के साथ-साथ यहां आया हूं, मेरे योग्य यदि कोई कार्य हो, तो बताइये।

राजा ने कहा- आज से मैं आपको नूतन कहूंगा। हे वटो ! अगर यहां कोई तालाब हो, तो उसमें से मेरे लिए थोड़ा जल ले आइये राजा के वचन सुनकर वटु ने राजा को एक बरगद की छाया में बैठा दिया औ स्वयं घोड़े पर सवार होकर पक्षिगणों का शब्द सुनता हुआ चल पड़ा। थोड़ी ही दूर आगे जाने पर उसे एक अति रमणीक तालाब दिखाई दिया। वह तालाब वायु के सैकड़ों यत्नों को निष्फल करने वाला, विषरहित, अगस्त्य मुनि की पिपासा को शान्त करने वाला, समुद्र से भी अधिक गम्भीर, शीतल मन्द- सुगन्ध वायुयुक्त, स्वच्छ जल से पूर्ण था। उसके निकट वह बटु घोड़े को लेकर ज्यों ही गया, त्यों ही कीचड़ में धंस गया। वह घोड़े से उतर कर चारों ओर देखता हुआ तालाब के निकट पहुंचा, तो वहां उसने कई स्त्रियों का झुण्ड देखा। अनेक दिव्याम्बरों को धारण किये दिव्य अलंकारों से युक्त होकर स्त्रियां कथा कह रही थीं। तदनन्तर वह उन स्त्रियों के पास जाकर अपना वृत्तान्त बताता हुआ कहने लगा। बटु ने कहा – हे स्त्रियों ! बड़ी भक्तिभाव से यह आप क्या कर रही हैं? इसकी क्या विधि है और इसके करने से क्या फल होता है? वह मुझे बताइये…

बटु के वचन सुन और दयाभाव से प्रेरित होकर वे स्त्रियां कहने लगीं- हे विप्र ! तुम एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्ति के साथ सुनो। जो माया, प्रकृति और शक्ति आदि नाम से त्रैलोक्य में प्रसिद्ध हैं, उसी महालक्ष्मी का यह व्रत है। हे बटु, इसकी विधि इस प्रकार है। इसका प्रारम्भ भाद्रपद के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि से किया जाता है। उस दिन प्रातःकाल उठकर सोलह बार हाथ-पाँव और मुख धोकर सोलह तन्तुओं से निर्मित तथा सोलह ग्रन्थि से युक्त एक डोरी बनाकर उसे चमेली के पुष्प, कपूर, चन्दन, अगर आदि सुगन्धित पदार्थों से पूजाकर ‘महालक्ष्म्यै नमः’ इस महामन्त्र से उसके सोलहों ग्रन्थियों को अभिमन्त्रित करे और कहे- हे महालक्ष्मी ! धन, धान्य, पृथ्वी, धर्म, कीर्ति, आयु, श्री, घोड़ा, हाथी और पुत्रादि-यह सब मुझे प्रदान करिये। इस प्रकार प्रार्थना करके उस डोरे को दाहिने हाथ में बांधे और अक्षतों के साथ सोलह दूब के पौधों को हाथ में लेकर एकाग्रचित्त होकर कथा सुने। जल में दूब को भिगो-भिगोकर अपने सिर, हाथ तथा पैरों में मार्जन करें।

भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से आश्विन कृष्ण अष्टमी तक सोलह दिन नित्य हाथ में अक्षत लेकर कथा सुनें। सोलहवें दिन आश्विन कृष्ण अष्टमी को सायंकाल के समय जितेन्द्रिय हो स्नान कर सफेद कपड़े पहनकर पूजाघर में जायें। वहां पर पूर्वाभिमुख हो पवित्र आसन पर बैठ अष्टदल श्वेत कमल बनायें। कमलदल के किनारे इन्द्रादिक शक्तियों को लिखें। कर्णिका में श्वेतांगी, श्वेत वर्णवाली, श्वेतपत्र, मोतियों से अलंकृत, कमलासना, हास्ययुक्त, कमलवत् मुखवाली, शरच्चन्द्र के तुल्य कान्तिमती, चतुर्भुजा, दो हाथों में कमल लिये, अभयदायिनी, दोनों ओर से हाथियों के शुण्डों से जल से सींचती हुई अटल क्षत्र युक्त महालक्ष्मी का ध्यान करता हुआ कपूर, अगर और चन्दन से महालक्ष्मी की पूजा करें। उनका आवहन करके कहें- हे महालक्ष्मी ! विष्णु के स्थान से तुम यहां आओ। हे देवि ! आप ही के निमित्त मैंने यह षोडशोपचार पूजन की सामग्री जुटायी है। हे विप्र ! व्रती सोलह दिन पूरा होने पर किस विधि से उद्यापन करे, वह भी सुनो। सुवर्ण के श्रृंग से युक्त गौ तथा सुवर्ण आदि किसी विद्वान् और वेदपाठी ब्राह्मण को दान करके दे। तदनन्तर यथाशक्ति दान देने से यह व्रत पूर्ण होता है। साथ-साथ ब्राह्मणों को वस्त्रादिक भी दान देना चाहिए।

इस प्रकार विधि-विधान बता करके स्त्रियां बोलीं- हे विप्र ! सब व्रतों में उत्तम यह व्रत हमने तुमसे कहा है। इसके करने से मनोवांछित फल अनायास प्राप्त हो जाता है। हे विप्र ! तुम इस उत्तम व्रत को करो और राजा से भी कराओ। यदि कोई अन्य श्रद्धावान् पुरुष मिल जाये, तो उससे कहो और उससे भी व्रत कराओ। हां, नास्तिकों के समक्ष यह व्रत कभी मत कहना। स्त्रियों के वचन सुनकर ब्राह्मण बालक उन स्त्रियों को नमस्कार कर और घोड़े को कीचड़ से निकालकर और उसे पानी पिला कमल के पत्ते में राजा के लिए जल ले और घोड़े पर चढ़कर राजा के पास आया। राजा को जल देकर उक्त व्रत का माहात्म्य राजा से कहा और अनेक भांति की सामग्री जुटाकर उस व्रत को राजा से कराया। वह मंगल राजा एवं वटु इस व्रत के प्रभाव से राजाओं में श्रेष्ठ राजा हुआ। वह राजा मंगल घोड़े पर सवार होकर अपने नगर के समीप जा पहुंचा।

राजा को आते देखकर पुरवासी तुरही आदि बाजाओं को बजाते, हाथों में बड़ी-बड़ी ध्वजाओं तथा माला को लिये कलशों को शिर पर रखे और घण्टा आदि बजाते हुए आये। उस समय वह नगर अत्यन्त सुशोभित था। मार्ग में रूपवती स्त्रियां राजदर्शन के निमित्त दौड़कर आ उपस्थित हुईं। इनको दर्शन देते-देते राजा मंगल उस ब्राह्मण के सहित अपने महल के निकट पहुंचे। घोड़े पर से उतरकर महाराज मंगल अपनी पटरानी चोल देवी के महल में गये। जाते ही रानी ने राजा के हाथ में एक डोरा बंधा देखा। इस पर रानी ने अत्यन्त क्रोध करके कहा कि मालूम होता है राजा शिकार के बहाने किसी दूसरी स्त्री के पास गया था। उसी के सौभाग्य के लिए राजा ने हाथ में यह डोरा बांध रखा है, उसी का भेजा हुआ ब्राह्मण बालक भी मुझे देखने आया है। ऐसा विचार करके चोल देवी ने राजा के हाथ में बंधा डोरा तोड़कर पृथ्वी पर डाल दिया।

राजा मंगल भी सामन्त, मंत्री तथा अन्य भृत्यों के साथ वन की बातें कर रहा था। इसी कारण राजा ने रानी को डोरा तोड़ते नहीं देखा। संयोगवश उसी समय चिल्ल देवी की एक दासी वहां कुछ कहने आयी थी। उसने वह डोरा उठाकर उस ब्राह्मण वटु से उसका कारण और व्रत पूछा। तब दासी ने चिल्ल देवी के पास जाकर वह व्रत बताया और ब्राह्मण बटु को बुलाकर विधिवत महालक्ष्मी का उत्तम व्रत किया। एक वर्ष बाद महालक्ष्मी पूजन के दिन चिल्ल देवी के महल में बाजाओं का शब्द हुआ और यह शब्द राजा मंगल ने भी सुना। तब राजा को महालक्ष्मी के व्रत की याद आ गयी और वह ब्राह्मण बटु से कहने लगा- अरे ! आज महालक्ष्मी की पूजा का दिन है, मेरा वह डोरा कहां है? यह पूछने पर बटु ने चोल देवी के द्वारा डोरा तोड़े जाने का हाल कहा।

वह सुनकर राजा चोल देवी पर अत्यन्त कुपित हुआ और कहने लगा- आज से चिल्ल देवी के ही घर में पूजा करूंगा। इसी समय राजा ब्राह्मण बटु को लेकर लक्ष्मीजी के पूजनार्थ चिल्ल देवी के घर में गया। उसी समय लक्ष्मीजी एक वृद्धा स्त्री का रूप धारण कर परीक्षा के लिए चोल देवी के महल में गयीं। चोल देवी वृद्धरूपधारिणी लक्ष्मीजी से कहने लगीं – अरे दुष्टे ! तू यहां से शीघ्र चली जा। मेरे घर में आने से तेरा क्या लाभ है? दुष्टा चोल देवी से अपमानित महालक्ष्मी चोल देवी को शाप देती हुई कहने लगीं- तूने मेरा अनादर किया, उसके प्रतिकार के लिए मैं तुझे शाप देती हूँ कि तू शूकर मुखी हो जा और यह मंगलपुर कोल्हापुर हो जाये। तभी से वह नगर कोल्हापुर कहलाने लगा। लक्ष्मीजी वहां से चलकर उसी वेश में चिल्ल देवी के घर में आयीं, तो वहां पर लक्ष्मीजी की अनेक प्रकार से सम्मान पूर्वक पूजा हुई।

पूजन के बाद लक्ष्मीजी ने वृद्धा रूप छोड़कर सत्य रूप धारण किया, तब चिल्ल देवी ने पंचोपचार से भली-भांति उनका पूजन किया। इस पर महादेवी ने प्रसन्न होकर चिल्ल देवी से वर मांगने के लिए कहा। श्री लक्ष्मीजी बोलीं- हे चिल्ल देवि ! तुम्हारे पूजन से मैं अति संतुष्ट हूं। हमसे तुम जो चाहो, वह वर मांगो।

चिल्ल देवी बोलीं- हे सुरेश्वरि ! आपका उत्तम व्रत जो करे, उसका घर जब तक सूर्य-चन्द्र हैं, तब तक आप न त्यागें। आज से इस राजा की संसार में प्रसिद्ध हो और हे देवि ! आप में मेरी अचल भक्ति सदैव बनी रहे। जो यह कथा सद्भाव के साथ पढ़े या सुने, उनको आप सदा मनोभिलषित फल दें। तब लक्ष्मीजी ‘तथास्तु’ कहकर वहां से अन्तर्धान हो गयीं। इसके बाद राजा मंगल ने भी आकर चिल्ल देवी के साथ परम भक्तिभाव से लक्ष्मीजी की पूजा की।

उसी समय ईर्ष्यावश चोल देवी भी चिल्ल देवी के महल में आयी। यद्यपि द्वारपालों ने उसे आने से मना किया, फिर भी वह नहीं मानी। वहां की गतिविधि देखकर चोलदेवी के मन में न जाने क्या आया कि वहां से सीधे अंगिरा ऋषि के स्थान से सुशोभित घोर जंगल में चली गयी। महर्षि ने चोल देवी की विचित्र आकृति को देख ज्ञान दृष्टि से विचार करके उसके द्वारा महालक्ष्मी का व्रत कराया। उस व्रत के करने से चोल देवी महायशस्विनी हो गयी। एक समय राजा ने शिकार खेलते हुए अंगिरा मुनि के आश्रम में आकर एक सुन्दर रूपयुक्त तथा चंचल नेत्रों वाली स्त्री को देखा। उसे देखकर मुनि से पूछा कि आपके स्थान में यह दिव्य रूप धारिणी स्त्री कौन है। मुनि ने चोल देवी का समस्त हाल बताकर राजा के हाथों सौंप दिया। तब राजा चोल देवी के साथ नगर में आकर चिल्ल तथा चोल देवी के साथ अनेक भोगों को भोगने लगा। वह नूतन नामक ब्राह्मण वटु महालक्ष्मी के व्रत के प्रभाव से बृहस्पति की भांति राजा मंगल का मन्त्री हुआ। वह राजा पृथ्वी के समस्त सुखों को भोगकर अन्त में आकाश में जाकर विष्णु दैवत नामक (श्रवण) नक्षत्र बनकर स्थित हुआ।

नारदजी बोले- हे इन्द्र ! सब व्रतों में उत्तम व्रत मैंने तुमसे कहा। जिसकी कथा मात्र के सुनने से मनोवांछित फल प्राप्त हो जाता है। जैसे तीर्थों में प्रयाग, देवताओं में विष्णु और नदियों में गंगा पुनीत मानी जाती हैं, उसी भांति यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है। हे इन्द्र ! धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष को यदि तुम चाहो, तो श्रद्धायुक्त होकर इस उत्तम व्रत को करो। इसके करने से महालक्ष्मी धन, धान्य, पृथ्वी, धर्म, कीर्ति, आयु, यश, श्री, घोड़े, हाथी और पुत्र-पौत्रादि सब कुछ देती हैं।

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से बोले- हे युधिष्ठिर जी ! नारदजी द्वारा कहा गया यह व्रत देवराज इन्द्र ने किया। इसी व्रत के प्रभाव से इन्द्र को मनवांछित फल मिला। आप भी इस व्रत को करें तो मनोवांछित फल की प्राप्ति एवं पुत्र, पौत्रादि की वृद्धि होगी।

यह कथा श्री कृष्ण भगवान ने युधिष्ठिर के प्रति कही थी। मैं आप लोगों से फिर भी कहता हूं। अपनी-अपनी मनोकामना की सिद्धि के लिए यह व्रत सबको करना चाहिए। इसके करने से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

इस प्रकार भविष्योत्तर पुराण में कही गई महालक्ष्मी व्रत कथा समाप्त।

महालक्ष्मी व्रत कथा 3: ऐरावत हाथी की गजलक्ष्मी व्रत कथा

इस संबंध में एक कथा महाभारत काल की भी है, जो कि देवी कुंती, पांडवों और गांधारी से जुड़ी हुई है. एक बार महामुनि व्यास हस्तिनापुर पधारे. महारानी गांधारी और देवी कुंती दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और सेवा-सुश्रुषा करके ऐसे व्रत का विधान पूछा जो कि परम कल्याणकारी और कुटुंब का ऐश्वर्य बनाए रखे.

इस पर महामुनि व्यास ने उन्हें देवी महालक्ष्मी के परमरल्याणी स्वरूप गजलक्ष्मी व्रत का विधान बताया और हाथी की पूजा का विशेष फल भी बताया.

जब कुंती महल में पूजन के लिए कोई न आई
समयानुसार भाद्रपद शुक्ल अष्टमी से गांधारी तथा कुंती अपने-अपने महलों में नगर की स्‍त्रियों सहित व्रत का आरंभ करने लगीं. इस प्रकार 15 दिन बीत गए. 16वें दिन आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन गांधारी ने नगर की स‍भी प्रतिष्ठित महिलाओं को पूजन के लिए अपने महल में बुलवा लिया.

माता कुंती के यहां कोई भी महिला पूजन के लिए नहीं आई. साथ ही माता कुंती को भी गांधारी ने नहीं बुलाया. इससे परेशान कुंती उदास हो गईं और पूजन की तैयारी भी नहीं की.

पांडवों ने मां को उदास देखा तो…
जब पांचों पांडवों ने मां को ऐसे उदास देखा तो अर्जुन ने उनसे इसका कारण पूछा. बोले, मां आज तो आपके व्रत का समापन है, आपने पूजन की तैयारी क्यों नहीं की?’ तब माता कुंती ने कहा- ‘पुत्रों, आज महालक्ष्मीजी के व्रत का उत्सव तुम्हारी माता गांधारी के महल में मनाया जा रहा है.

उन्होंने नगर की समस्त महिलाओं को बुला लिया और कौरवों ने मिट्टी का एक विशाल हाथी बनवाया है. सभी महिलाएं उस बड़े हाथी का पूजन करने के लिए उनके महल चली गईं,

स्वर्ग के ऐरावत हाथी को ले आए पुत्र
वह महिलाएं मेरे यहां नहीं आईं, साथ ही उन्होंने मुझे भी नहीं बुलाया. यह सुनकर अर्जुन ने कहा- ‘हे माता! आप पूजन की तैयारी करें और नगर में बुलावा लगवा दें कि हमारे यहां स्वर्ग के ऐरावत हाथी की पूजन होगी. इधर माता कुंती ने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया और पूजा की विशाल तैयारी होने लगी. अर्जुन ने अपने धर्म पिता का स्मरण कर बाण संधान द्वारा ऐरावत का आह्वान किया. ऐरावत देवी लक्ष्मी के भाई भी हैं.

हस्तिनापुर में उतरा स्वर्ग का हाथी ऐरावत
इधर सारे नगर में शोर मच गया कि कुंती के महल में स्वर्ग से इन्द्र का ऐरावत हाथी पृथ्वी पर उतारकर पूजा जाएगा. समाचार को सुनकर नगर के सभी नर-नारी, बालक एवं वृद्धों की भीड़ एकत्र होने लगी. उधर गांधारी के महल में हलचल मच गई.

वहां एकत्र हुईं सभी महिलाएं अपनी-अपनी थालियां लेकर कुंती के महल की ओर जाने लगीं. देखते ही देखते कुंती का सारा महल ठसाठस भर गया.

ऐरावत के लिए चौक पुरवाकर नवीन रेशमी वस्त्र बिछवा दिए
माता कुंती ने ऐरावत को खड़ा करने हेतु अनेक रंगों के चौक पुरवाकर नवीन रेशमी वस्त्र बिछवा दिए. नगरवासी स्वागत की तैयारी में फूलमाला, अबीर, गुलाल, केशर हाथों में लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे. जब स्वर्ग से ऐरावत हाथी पृथ्‍वी पर उतरने लगा तो उसके आभूषणों की ध्वनि गूंजने लगी. ऐरावत के दर्शन होते ही जय-जयकार होनी लगी.

ऐरावत के पूजन से मातालक्ष्मी भी प्रसन्न हुईं,दिया ऐश्वर्य का आशीर्वाद
सायंकाल के समय इन्द्र का भेजा हुआ हाथी ऐरावत माता कुंती के भवन के चौक में उतर आया, तब सब नर-नारियों ने पुष्प-माला, अबीर, गुलाल, केशर आदि सुगंधित पदार्थ चढ़ाकर उसका स्वागत किया. राज्य पुरोहित द्वारा ऐरावत पर महालक्ष्मीजी की मूर्ति स्थापित करके वेद मंत्रोच्चारण द्वारा पूजन किया गया. नगरवासियों ने भी महालक्ष्मी पूजन किया. फिर अनेक प्रकार के पकवान लेकर ऐरावत को खिलाए और यमुना का जल उसे पिलाया गया.

ऐरावत के पूजन से मातालक्ष्मी भी प्रसन्न हुईं और गजलक्ष्मी स्वरूप ने देवी कुंती को ऐश्वर्य का आशीर्वाद दिया. इसक बाद पांडवों के कहने पर मिट्टी के हाथी को भी ऐरावत की पूजा की मान्यता प्रदान की. इसके बाद से परंपरा स्वरूप में मिट्टी का हाथी पूजा जाने लगा.