July 18, 2025
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Anshul Mahajan: संभावनाओं का यूं डूब जाना

दुकान से निकलते मैंने उससे कहा आजा इंदौर, जल्दी मिलते हैं और उसने जवाब दिया ‘हां’…यह हां उसका सबसे बड़ा झूठ था क्योंकि वह इस पर अब कभी खरा नहीं उतरने वाला है लेकिन बात तो शुरु से ही शुरु करनी होगी ना…

महाजन सर को पहचानना बहुत आसान था, हर समय स्फूर्ति के साथ, व्यवस्थित और संतुलित रहने वाले और एक ही वाक्य में छात्र को आप, तुम और तू जैसे संबोधन देने वाले. छात्रों के प्रिय रहे और खुद छात्रों को इतना प्यार करते कि कथित तौर पर ट्यूशन में भी छात्रों से घिरे होते. ‘कथित’ इसलिए कि न वे फीस तय करते और न कभी बाकी फीस की याद दिलाते. ऐसा भी हुआ कि कोई पूरे चार साल पढ़ गया लेकिन फीस का एक धेला भी नहीं दिया और जो देता भी तो सर को गिनने की फुरसत कहां होती. ट्यूशन के दौरान होने वाली चाय और नाश्ते के भी पैसे उन्हें हर महीने मिल पाते होंगे कहना मुश्किल है लेकिन यदि वे इतना हिसाब लगाते तो उन्हें कस्बे का बेहिसाब प्यार कैसे मिलता.एक बार कहीं ट्रांसफर हो गया तो न जाने कौन, कहां से जुगाड़ कर ट्रांसफर रुकवा भी लाया क्योंकि सर को कोई जाने ही नहीं देना चाहता था. वे मानपुर में ही रुक गए और तब तक रुके जब तक पिछले साल उनकी सांसें ही नहीं रुक गईं… लेकिन आज बात सर की नहीं बल्कि उनके इकलौते बेटे की है. नाम अंशुल, हम अपने हायरसेकंडरी स्कूल में आठ किलोमीटर साइकिल चलाकर पसीना पसीना होते पहुंचते तो अंशुल कैंपस के पास अपने सरकारी घर से तब के हिसाब से महंगी घड़ी वगैरह से लैस धीरे धीरे आते दिखता. हमें उसकी किस्मत पर थोड़ी जलन भी होती. जिस समय हम गिल्ली डंडे की दुनिया से क्रिकेट की बातें करना शुरु कर रहे थे तब वो टेनिस जैसे खेलों पर बात करता. ‘क्लास अपार्ट’ इसलिए कि उसके पास क्रिकेट की पूरी किट थी और हम बैट बमुश्किल जुगाड़ पाते थे लेकिन दोस्ती होनी ही हो तो राहें भी निकल आती हैं… नईदुनिया के प्रकाशन खेल हलचल में उसका नाम शतरंज पहेली हल करने वालों में अक्सर अजय भदौरिया के साथ छपता. उन्हीं दिनों नईदुनिया अखबार के प्रसिद्ध अंतिम पत्र में मेरे पत्र छपते जिस पर अभयजी के कमेंट होते और वह देवेंद्र जी के रेखांकन से सजा होता. इस मूल के साथ हमारी बातें शुरु हुईं, वह एक साल आगे था इसलिए अधिकतम तीन साल साथ रहने की गुंजाइश थी लेकिन दोस्ती हो गई तो तीन दशक से ज्यादा का साथ रहा भले वह अंतराल पर हो रही बातों से ही हो.शायद हमारे बीच कंप्यूटर सीखने वाला वह पहला था और शतरंज की चालों में भी उसे अव्वल रहने की आदत थी. संभावनाओं के हिसाब से वह हम सबमें आगे था लेकिन न कस्बे ने उसे छोड़ा और न उसने कस्बे को…कंप्यूटर पेरिफेरल की अपनी शॉप पर जब वह आखिरी बार मिला तो अपने बेटे से मिलवाया, इधर उधर की बातें हुईं लेकिन उसके तमाम कहने पर भी मैंने चाय नहीं पी, अब मैं चाहता हूं कि वह वापस मुझे चाय ऑफर करे लेकिन नर्मदा में अस्त हो चुके तारे फिर दूर कहीं आकाशगंगा में ही नजर आते हैं, कल के बाद न जाने कौन सा नया तारा बन गया हो अंशुल, उसे अलविदा नहीं कह सकता लेकिन मेरे जिस हिस्से को वह अपने साथ ले गया है उसे तो अब अलविदा कहना ही होगा…