ISHA Foundation और सद्गुरु मामला और कानूनी सवाल
सद्गुरु के आश्रम में हुई जांच के बाद मामले को समझना भी जरुरी
जग्गी वासुदेव जिन्हें उनके शिष्य सद्गुरु कहते हैं, पर पिछले दिनों मद्रास हाइकोर्ट ने कुछ टिप्पणियां कीं और उसके बाद उनके आश्रम की जांच के करने के लिए तमिलनाडु पुलिस की एक बड़ी फोर्स पहुंची. उनके फाउंडेशन ईशा और आश्रम को लेकर एक पिता ने यह आरोप लगाया था कि सद्गुरु ने उनकी बेटियों को बंधक बना लिया है और अब उनकी बेटियां सद्गुरु के प्रभाव में आने के बाद से अपने पिता से बदतमीजी करती हैं, कहना भी नहीं सुनतीं और शादी भी नहीं कर रही हैं.
मद्रास हाइकोर्ट ने कहा कि जिस व्यक्ति ने अपनी बेटी की शादी अच्छी से करा दी हो वह दूसरों की बेटियों को शादी न करने की सलाह क्यों दे रहा है. इस तरह के फैसले से एक वर्ग बड़ा खुश हुआ लेकिन इस फैसले में दो तीन तथ्य ऐसे भी हैं जिन पर गौर करना जरुरी होगा क्योंकि यदि ऐसे फैसले बाद में मिसाल बनते हैं तो यह लंबे समय के लिए न सुधारी जाा सकने वाली गलती में बदल सकते हैं. पहली बात तो यही कि जिन्हें याचिकाकर्ता पिता ने लड़कियां कह कर संबोधित किया है उससे छवि यह जाती है कि उनकी दोनों बेटियां अबोध हैं या जिनकी कानूनन फैसले ले सकने की आयु नहीं है, दूसरे शब्दों में ऐसी छवि दी जा रही है कि वे नाबालिग हैं लेकिन हकीकत यह है कि कथित लड़की में से बड़ी बहन तो चालीस वर्ष की है और दूसरी उससे छोटी भी है तो शायद पैंतीस के आसपास है. दूसरा तथ्य यह कि दोनों ने कहा है कि न उन्हें बहकाया गया है और न शादी न करने की कोई सीख दी गई है यानी हम जो भी कर रहे हैं उसके बारे में बेहतर जानते हैं. तीसरी बात तब उठती है जब हम मान लें कि जग्गी वासुदेव ने वाकई दोनों लड़कियों का ब्रेनवॉश किया है और उन्हें शादी न करने की प्रेरणा दी है. ऐसे में किसी की सलाह मानने या न मानने की जिम्मेदारी किसकी होगी?
इससे भी बढ़कर यह कि क्या किसी ने जिसने अपनी बेटी को संन्यस्त कर दिया हो वह दूसरों की बेटियों को सन्यास के लिए कहेगा तो यह न्यायोचित हो जाएगा? यहां यह भी सवाल है कि क्या सद्गुरु की बेटी की अपनी कोई मर्जी नहीं चलेगी और वह अपने पिता की बात मानने को बाध्य होगी? कम से कम भारतीय संविधान में तो ऐसी कोई धारा नहीं है जिसमें पिता के कृत्यों के लिए बेटी या बेटी के निर्णयों को पिता से जोड़कर देखा जाना चाहिए. यही जग्गी वासुदेव का आश्रम था और हाइकोर्ट की टिप्पणियों का था तो उनका आश्रम खंगाल लिया गया जो कि उचित भी था लेकिन क्या ऐसी ही कार्रवाई अन्य मामलों में की जाती या की जा सकती थी? नाबालिगों को यदि जबरन संत बनने के लिए धकेला जाना गलत है तो मौलवी या पादरी बनने के लिए भेज देना भी तो उतना ही गलत होगा. यदि आश्रम में अपनी मर्जी से रह रही निर्णय लेने की उम्र पार कर चुकी चालीस साल की अधेड़ को लेकर पिता शिकायत करे और कार्रवाई हो जाए तो आप कल्पना नहीं कर सकते कि आप किस तरह की चुनौती सामने खड़ी करने जा रहे हैं.
ऐसे भी मामले हैं जिसमें अपने कानूनी वयस्कता मिलने के दिन ही लड़की ने अदालत में कह दिया हो कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहती हूं और पिता बेबस होकर देखता रह जाता है, यह जानकर भी कि लड़की ने गलत निर्णय ले लिया है, वह कानूनन कुछ करने की स्थिति में नहीं होता. यदि शादी करने का फैसला इस तरह ले सकने की अनुमति है तो पिता की इच्छा के खिलाफ जाकर शादी न करने के फैसले को चुनौती कैसे मिल सकती है. अब जब दोनों बहनों ने सामने आकर कह दिया है कि हम पर किसी का दबाव नहीं है और यह हमारा फैसला है तो क्या उस पिता पर कोई कार्रवाई होगी जिसने गलतबयानी की, जो अपनी बेटियों को उनकी मर्जी से तब भी फैसला नहीं लेने देना चाहता जबकि कानूनन वो नाबालिग हैं. याचिकाकर्ता ने तो यह भी कहा था कि आश्रम में मेरी बेटियों को कुछ खिला पिला दिया गया है जिसके बाद से वो मेरा कहना नहीं मानती हैं. यदि आश्रम की जांच में ऐसी कोई चीज पाई जाती है तो निश्चित ही जग्गी पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए लेकिन यदि ऐसा कुछ नहीं मिलता है और उनके आश्रम के मामले साफ सुथरे पाए जाते हें तो बेटियों पर दबाव बनाने वाले पिता पर भी कार्रवाई का प्रावधान तो होना ही चाहिए.