Majithia Wage Board मामले में एससी का भी आदेश नहीं मान रहे
जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने की समयसीमा दी थी उसे 2017 से 2025 तक खींच लिया निचली अदालतों ने
क्या आप किसी ऐसे मामले के बारे में जानना चाहेंगे जहां सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की खुली अवहेलना की गई हों और एक बार नहीं बीसियों मामलों में ऐसा करने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई हो? मामला जानने से पहले यह भी समझ लीजिए कि यह कथित तौर पर शक्तिशाली माने जाने वाले चौथे स्तंभ से जुड़ी बात है और इसमें पीड़ित यदि कोई है तो वे पत्रकार हैं. देशभर के हजारों पत्रकार, जिन्होंने संसद से पारित, राष्ट्रपति के हस्ताक्षर वाले एक कागज पर भरोसा कर अपने हक का न्यूनतम वेतन मांग लिया. मजेदार बात यह कि पत्रकारों ने तो न्यूनतम वेतन तय करने को कभी कहा भी नहीं था लेकिन सरकार ही समय समय पर वेजबोर्ड गठित कर बताती रही है कि किस दर्जे के अखबार वाले किस दर्जे के कर्मचारी को कम से कम कितना वेतन मिलना चाहिए. वेज बोर्ड आते गए लेकिन उनके कहने से न अखबार मालिकों को पैसा देना था न दिया गया. ऐसे ही 2011 में जीआर मजीठिया साहब के नेतृत्व वाले बोर्ड ने फिर सरकार के सामने पत्रकारों की न्यूनतम मजदूरी वाली सिफारिशें रखीं. सरकार ने नवंबर 2011 में इन्हें अधिसूचित करते हुए लागू करने की औपचारिकताएं पूरी कर ली गईं. अखबार मालिकों ने इसमें एक पेंच तलाश लिया कि यदि कोई चाहे तो वह पुराने वेतनमान पर भी रहने की मंजूरी दे सकता है और इस बीस जे वाले पेंच का फायदा उठाने के लिए सारे कर्मचारियों से दस्तखत करा लिए गए कि उन्हें नया वेतनमान पाने की कोई इच्छा नहीं है. हालांकि इस शर्त में यह बात साफ थी कि यह तभी हो सकता है जब कर्मी का वेतन नए वेतनमान या लाभों से कम न हो लेकिन अखबार मालिकों का अपने लाखों की फीस लेने वाले वकीलों की धूर्तता पर भरोसा भी तो कोई चीज होती है. अखबार वालों ने पहले तो इस वेजबोर्ड पर ही सवाल उठा दिए फिर इसकी सिफारिशों को लागू करने की बाध्यता से लेकर तमाम तर्क दिए लेकिन 7 फरवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया कि वेजबोर्ड तो अखबारों को लागू करना ही होगा और वह भी सभी कर्मचारियों के लिए यानी पत्रकार भी और गैर पत्रकार भी. इसके बाद नए खेल शुरु हुए. 20 जे का भी तर्क नहीं चला तो अखबारों ने उन कर्मियों के साथ हर हथकंडे अपनाने शुरु किए जो चाहते थे कि सरकार द्वारा तय न्यूनतम तक तो हो. ऐसे कर्मियों का ट्रांसफर, टर्मिनेशन और इस्तीफा लिखाए जाने वाले कई मामले आए और यह बात भी सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आई. कई अलग अलग फैसलों के बाद आखिर सुप्रीम कोर्ट ने 13 अक्टूबर 2017 को अभिषेक राजा नमा के कर्मी के पक्ष में यहां तक कह दिया कि मजीठिया से जुड़े हर मामले को छह महीने की समयसीमा में निपटाया जाए. सुप्रीम कोर्ट कर्मचारियों को परेशान करने की अखबार मालिकों की नीयत को इतनी गंभीरता से देख चुका था कि हाइकोर्ट्स को यह निर्देशित किया गया कि मजीठिया मामलों में जब बेहद जरुरी लगे तो ही आपत्तियां स्वीकार करें.
अब आता है इस पूरे मामले का सबसे बड़ा पेंच. दरअसल सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद श्रम न्यायालयों को सिर्फ इतना करना था कि वो कर्मचारी के ग्रेड, शहर के ग्रेड और अखबार के ग्रेड के आधार पर सेवा अवधि का या नवंबर 2011 से साफ पैसा बता देती कि किस केस में अखबार को कितना पैसा देना है. तीनों ग्रेड के चार्ट मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों के साथ साफ साफ दिए गए हैं इसलिए यह सब रॉकेट साइंस नहीं था और रॉकेट साइंस भी हो तो सुप्रीम कोर्ट का निर्णय तो मानना ही होगा ना? शायद आप यकीन न करें कि छह महीने की समय सीमा को बीते छह साल हो चुके हैं बल्कि अगले महीने आठ साल ही पूरे हो जाएंगे और श्रम न्यायालय हैं कि इन केसों की सुनवाई ही नहीं कर रहे हैं. यानी सुप्रीम कोर्ट के देश की अवमानना उसी के अधीन आने वाली और छोटी अदालत कही जाने वाली श्रम अदालतें कर रही हैं. यानी न्यूनतम वेतन मांग लेने वाले कर्मचारी नौकरियों से बाहर कर दिए गए, उनके पास आ रही तनख्वाहें बंद हो गईं और उनकी जेब का पैसा कोर्ट में एक ऐसे मामले पर खर्च होने लगा जिस आदेश को लागू कराने की जिम्मेदारी सरकार की थी. अखबार दुहाई देते फिर रहे हैं कि यदि कर्मचारियों को 2011 से एरियर और बढ़ी हुई तनख्वाह देनी पड़ी तो वे बर्बाद हो जाएंगे जबकि यह साफ है कि अखबारों को यह देना ही है और यदि उन्होंने देने में आनाकानी की तो यह ‘राजस्व वसूली’ की तरह की जा सकती है यानी संपत्ति कुर्क कर उसे बेचकर भी पैसा चुकाया जा सकता है. अखबार मालिकों को अपने रसूख, अपने सिब्बलों, सिंघवियों और उनकी जमावट पर इतना भरोसा है कि वो केस करने वाले कर्मचारियों को अंगूठा दिखाकर कहते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सके तुम क्या हो. अक्टूबर की 13 तारीख हर साल हमें याद दिलाती है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को भी धता बताने वाले अखबार मालिकान अब सुपरपॉवर हैं. सरकारें इनसे पंगा लेना नहीं चाहती हैं, कार्यपालिका इनकी जेब में है और न्यायपालिका को इन्होंने क्या समझ रखा है यह तो इतने से ही साफ हो जाता है कि सुप्रीम कोर्ट की छह महीने की समयसीमा को लांघ कर आठ साल कर देने पर भी इनसे कहीं कोई सवाल नहीं पूछा जाता.