Media पहले गलत खबर और फिर माफी का दिखावा, कब तक चलेगा
ऑपरेशन सिंदूर तक को लेकर झूठी खबरें चलीं तब भी कोई कड़ा नियम बनाने को सरकार तैयार नहीं
टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने उस झूठी खबर पर माफी माँग ली है जिसमें उसने कहा था कि भाजपा कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह को अपने चुनावी अभियान का चेहरा बनाएगी. माफी सोमवार को प्रकाशित करते हुए अखबार ने कहा कि रिपोर्ट तथ्यात्मक रूप से गलत थी. मजे की बात यह है कि लखनऊ और चेन्नई संस्करणों में यह खबर काफी बड़ी जगह में लगाते हुए इसे हाइलाइट भी किया गया था लेकिन माफी महज एक लाइन की है यानी जो बात कई पैराग्राफ में कही गई उसकी माफी के लिए महज चंद शब्द छाप कर अखबार ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. ठीक ऐसा ही पिछले ही सप्ताह देनिभास्कर ने किया था जब घर घर सिंदूर बांटने की योजना को भाजपा की बता कर न सिर्फ उसे लंबी चौड़ी जगह में छापा गया बल्कि उसका विश्लेषण भी कर दिया गया और जब भाजपा प्रवक्ता सहित पूरी पार्टी ने इस खबर को सार्वजनिक रुप से फेक न्यूज बता दिया तो भास्कर ने भी महज दो लाइन माफी ली बलथ्क उसकी भी भाषा ऐसी रखी गई कि यह कहीं से माफी न लगे. द हिंदू से लेकर द प्रिंट तक ने अब यही पैटर्न अपना लिया है, वे अपने एजेंडा को बढ़ाने वाली खबरें बड़े स्तर पर फैलाते हैं और आमतौर पर तो झूठ को झूठ कहने की बाात सामने ही नहीं आती लेकिन यदि हंगामा हो ही जाए और यह साफ भी हो जाए कि यह सरासर बदनीयती से छापी गई ढूठी खबर यया कहें फेक न्यूज है तो सबसे आसान तरीका है कि एक लाइन में कहीं किसी कोने में माफीनामा जैसा कुछ छाप दें और हो सके तो उसकी भाषा भी ऐसी गोलमोल रखें कि अखबार की अक्षम्य गलती तक छुपा ली जाए.
कुछ मामलों में तो यह भी बात सामने आई है कि खबर छापने से पहले भी यह पता होता है कि खबर तथ्यहीन, आधारहीन और पूरी तरह बकवास है लेकिन यदि अखबार (या अन्य मीडिया हाउस) के एजेंडा को आगे बढ़ाने वाली बात है तो उसे पत्रकारिता के मूल्य दरकिनार कर भी चला दिया जाता है और पकड़े जाने पर सबसे आसान है माफी मांग कर बरी हो जाना. यूं भी हमारी सरकारें मीडिया से इतना डरती हें कि फेक न्यूज की फैक्टरियों तक को बंद करने में भी रुचि नहीं लेतीं, यहां तक कि ऑपरेशन सिंदूर के समय जब एक संस्थान ने जानबूझकर तब पाकिस्तानी पैनलिस्ट बुलाकर उन्हें भारत के खिलाफ जमकर जहर उगलने का मौका दिया तब भी सरकार ने उस एंकर पर कोई कार्रवाई नहीं की और जब सरकार ने पोर्टल पर कार्रवाई करने की सोची भी तो उनके पास पहले से उसके तोड़ मौजूद थे, सबसे बड़ा हथयार यानी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार वाला विकल्प तो ऐसा है ही कि आपको देशद्रोह तक के मामलों से बचा ले जाता है. सरकार की पॉलिसी साफ न होने का यह साफ नतीजा है कि एजेंडा पत्रकारिता को रोका जाना संभव नहीं हो रहा है जबकि सरकार यदि ऐसे किसी भी मामले में दो चार ही कड़ी कार्रवाई कर दे जिसमें खबर चलाने से पहले ही उसके झूठ होने की जानकारी हो तो इन्हें काफी हद तक रोका जा सकता है.