April 19, 2025
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ब्लॉग : यादों में टंके हैं पाटी,खूंटी और आलीये


-डॉ. छाया मंगल मिश्र


-‘बाई मेरी किताब नहीं मिल रही?’
-‘वहीं रखी होगी देख; पाटी पर’


-आशादी, रेखादी, सुनंदी, गुड्डू भैय्या, दादू और यहां तक कि बाबूजी की भी कोई चीज कहां रखी यदि याद नहीं आ रही, तो हो सकता है वो पाटी पर रखी मिले. पाटी कच्चे घरों की किसी मजबूत बल्ली या पाट, जो छत या उसके जैसे ही किसी सामान्य ऊंचाई पर हों, उस पर कस के मोटे तारों से बांध के या मोटे कीलों से लटकाया/टिकाया चौड़ा पाट/पाटिया जिस पर घर का अधिकतर सामान रखा जाए. हमारे यहां आगे वाले कमरे में जो पाटी थी उस पर सभी भाई-बहनों की कॉपी किताबें रखी जातीं थीं. पाटी के बीचोंबीच एक लकड़ी का घड़ी केस था जिसमें चाबी वाली रेडियम अंको की अलार्म घड़ी थी. बाबूजी का नियम था उसमें रोज चाबी भरने का. “तब घड़ी केवल एक पर समय सबके लिए सबके पास हुआ करता था”.

जैसे जैसे बड़े भाई बहनों की पढ़ाई खत्म होती गई वो पाटी सूनी होती गई. उसे ढंकने के लिए किसी सुंदर पुरानी साडी का पर्दा भी लोहे के स्प्रिंग के तार में दोनों तरफ गोल कील के नाप के हुक लगा कर पिरो दिया जाता. इसी से मिलते जुलते रेक हुआ करते थे जो लकड़ी या पतरे के हुआ करते. दो, तीन, चार, पांच पाटियों में बिना दरवाजे की अलमारी का रूप होते.


रसोई में लगी ये पाटी अचार की बर्नियां मसालों के डब्बे, पापड़, बड़ी, कुड्लाई आदि रखने के काम आती.


ऐसे ही खूंटियां और खूंटियों की पट्टी दीवारों और दरवाजों के पीछे लगी होतीं थीं. जिन पर कपडे, थैलियां, बेग-बस्ते, शर्ट-पेंट, रोजमर्रा के कपड़े लत्ते टंगे लटके होते. इन पट्टियों के ऊपर टिका कर फ्रेम किये हुए भगवानों,देवी-देवताओं, महापुरुषों, सीन-सीनरी, हस्तकला की सजावट और घर के बड़े बुजुर्गों/परिजनों के फोटुओं की लम्बी लाइनें होतीं. लोगों के ओसारी, बैठक, हॉल, आंगने, पूजा घर, शयनकक्ष में भी ये फ्रेम होते. रसोईघर में मां अन्नपूर्णा का भी फोटो होता. यहां जिसकी जैसी श्रद्धा-आस्था और घर की जगह हो उस हिसाब से. ये फ्रेम लाइट के तारों को ढंकने के काम भी करते.


अब क्या है कि कबर्ड, वार्डरोब, अलमीरा,केबिनेट, स्टोरेज, ओर्गनाइज़र जैसे शब्दों का चलन है. स्टिकी हुक्स आ गए हैं. तरह तरह के रैक आ गए. बाजार भरा पड़ा है. ऑनलाइन शॉपिंग से इनकी पहुंच घर घर तक है. दीवारों के तिकोने चोकोर गोल आकार के आलीये भी अब लुप्त हो गए हैं. जिनमें घरेलू छोटी छोटी आवश्यक चीजें जगह पातीं थीं. गोदड़माची, बिलौने, पानी के परेंडे, सिंके जैसे अन्य कई सामान अपने नाम को ही खो चुके. नई पीढ़ियों ने सुने भी नहीं. परिवर्तन यदि नियम है तो संस्कृति धरोहर है. ये तो मूल संस्कृति के वाहक भी हैं जो अब शायद म्यूजियम में ही देखने और पुराने शब्दकोषों में ही पढ़ने की वस्तु हो चले हैं. कोशिश होनी चाहिए कि हम इन्हें संरक्षित करने का, इन्हें नई पीढ़ी से परिचित करने का जिम्मा लें.

(लेखिका शिक्षाविद और समाजसेविका हैं)